बिजनेस स्टैंडर्ड में काम करने वाले पत्रकार सत्येंद्र पी सिंह इन दिनों फेसबुक पर अपने आत्मीय लोगों से जुड़े कुछ प्रसंग लिख रहे हैं. सत्येंद्र खुद मुख कैंसर को मात देकर फिर से जिंदगी की जद्दोजहद से जूझ रहे हैं और बेबाक तरीके से अपनी बात फेसबुक पर कहते-लिखते आ रहे हैं. वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल को लेकर सत्येंद्र ने जो कुछ लिखा है, उसे भड़ास पर प्रकाशित किया जा रहा है.
दिलीप मंडल। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनके बारे में कुछ भी लिखा जाए तो तमाम कुछ छूट जाता है। उनके व्यक्तित्व के इतने पहलू होते हैं। मैंने दिलीप जी के बारे में जब लिखने को सोचा तो समझ में नहीं आया कि कहां से लिखूं। इसकी बड़ी वजह है कि वह बहुत शानदार एडिटर हैं। अगर किसी कॉपी को रीराइट करना तो बड़ी बात, इंट्रो भी लिख दें तो मरी हुई कॉपी में जान आ जाती है। ऐसे में यह बहुत मुश्किल है कि कहानी कहां से शुरू की जाए। उनके बारे में एक मित्र ने कहा कि उन्हें गरियाईये या प्यार करिए, आपको यह विकल्प नहीं देते कि आप उन्हें यूं ही छोड़ दें।
हिंदी पत्रकारिता पराड़कर जी के हाथ से निकलकर भैया जी संस्कृति में प्रवेश करके अगले चरण में कानपुर वाले शुक्ला जी और बनारस वाले त्रिपाठी जी और बिहार वाले झा जी वाली लॉबी में पहुँच गई थी। कुजतिहा का घुसना मुश्किल था (एक हद तक अभी भी है)। ये लॉबीज इतने तालमेल के बाद कॉलेज से निकले ब्रिलिएंट स्टूडेंट्स से कहती थीं कि पता नहीं कहां कहां से चले आते हैं पत्रकार बनने, देख शुक्ला, 610 रुपये महीना मिलेगा, ट्रेनी स्ट्रिंगर रखूंगा, क्लास में जो चूतियापे पढ़कर आया है उसे भूल जा। भैया जी से सीख कि पत्रकारिता क्या होती है और कॉलेज से निकला बेरोजगार शुक्ला घर से पैसे मंगाकर फ्री की पत्रकारिता करना सीखता था। वह जान जाता था कि पत्रकारिता मतलब भैया जी और खौफ में नौकरी चलती थी कि अब गई कि तब गई!
इस दौर में दिलीप जी पत्रकारिता में धमाकेदार एंट्री पाते हैं। ऑल इंडिया एंट्रेंस से टाइम्स स्कूल ऑफ जर्नलिज्म में प्रवेश होता है और पहली नौकरी वेज बोर्ड के मुताबिक सब एडिटर की मिलती है और दिलीप जी की पत्रकारिता शुरू हो जाती है।
10 महीने की नौकरी में उनकी प्रेमिका कहती है कि आपके बिना अच्छा नहीं लगता और वह नौकरी से इस्तीफा देकर बोरिया बिस्तर बांधकर दिल्ली पहुँच जाते हैं।
वह लड़की भी हतप्रभ रह जाती है कि इस पागल ने ये क्या कर दिया! इस दौर में नौकरी मिलनी मुश्किल है और नौकरी छोड़कर चला आया!
बहरहाल दिलीप जी कहते हैं कि नौकरी तो मिल ही जाएगी, आज नहीं तो कल। मेरे लिए तुम और सिर्फ तुम जरूरी हो।
बहरहाल नौकरी फिर मिल जाती है। वह भी पत्रकारिता के स्कूल एसपी के साथ। विभिन्न संस्थानों में नौकरी। लंबी लंबी दो कारें। पॉश इलाके में बड़ा सा फ्लैट। वह भी उस उम्र में, जब हिंदी पत्रकारिता के लोग भैया जी के यहां 610 से 1200 रुपये पर पहुँचते थे और यह सीखते थे कि रिपोर्टिंग में हैं तो कहां से इंतजाम करके रोटी चलाई जाए।
उस समय ब्लॉग का दौर आया। मैं भी दिल्ली आ गया। ब्लॉग्स पढ़ने लगा। उसमें एक ब्लॉग दिलीप मंडल और आर अनुराधा का भी था। उस समय दिलीप मंडल पत्रकारिता के शिखर पर थे। सम्भवतः पत्रकारिता के जातिवाद क्षेत्रवाद वगैरा वगैरा के बारे में सोचा भी नहीं था।
मेरे बगल के एक संस्थान में सम्पादक बने तो पहली बार प्रत्यक्ष मुलाकात हुई। लगा कि कितने सरल और सहज व्यक्ति से मिल रहा हूँ। क्या कोई ऐसा सम्पादक भी हो सकता है जो किसी जूनियर की बात सुने? उसे यह न बताए कि तुम चूतिये हो, पता नहीं कहां से पत्रकारिता जैसे पढ़े लिखे पेशे में घुस गए?
बहरहाल इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी कहा कि यह सब मुझे 6 महीने में नौकरी छोड़ने को मजबूर कर देंगे, क्योंकि यह वेंचर बिजनेस नहीं दे रहा है। हिंदी पट्टी अभी गुजरातियों सी नहीं है कि गुजराती बोलकर इलीट और बिजनेस क्लास में पहुँच जाए। हिंदी पट्टी का जो छोटे बिजनेस में भी आता है उसे अंग्रेजी का ज्ञान होता है। मुझे आश्चर्य होता कि कोई सम्पादक मुझसे कैसे यह कह सकता है, जिससे मैं खुद उम्मीद कर रहा हूँ कि मुझे थोड़ी बेहतर सेलरी पर जॉब दे देगा। उन्होंने 6 महीने बाद सचमुच उस संस्थान से इस्तीफा दे दिया।
वह खाली हो गए और फेसबुक पर बहुत उग्र रूप में सामने आए। उस तबके के बारे में लिखना शुरू किया जो सुख सुविधाओं, क्रीम से वंचित है और उसे शासन प्रशासन में जगह नहीं मिल रही है। मीडिया के अपने अनुभवों के आधार पर उन्होंने मीडिया के खिलाफ ही चौथा खम्भा प्राइवेट लिमिटेड और मीडिया का अंडरवर्ल्ड जैसी किताबें लिख डालीं।
उनके इस कार्य में आर अनुराधा ने खूब साथ दिया। दोनों पहाड़ों की सैर करने जाते। कभी कभी अलग अलग कारों को ड्राइव करते हुए पहाड़ियों पर रेस लगाते और कभी एक ही कार में। ऋषिकेश की प्राकृतिक वादियों और गंगा के किनारों पर बैठकर किताब पर चर्चा होती। दिलीप जी लिखते तो अनुराधा जी एडिटिंग करतीं और अनुराधा लिखतीं तो दिलीप जी। दोनों की कई किताबें आईं।
इस बीच अनुराधा जी को कैंसर डिटेक्ट हुआ। इलाज चलने लगा। दिलीप जी को भी एमजे अकबर ने नौकरी पर लगा लिया। इलाज चलते चलते स्थिति गम्भीर हो गई। दिलीप जी ने एक बार फिर अपनी प्रेमिका के लिए नौकरी छोड़ दी, जिससे वह 24 घण्टे साथ रह सकें और उनकी सेवा कर सकें। उनकी जिंदगी वहीं पहुँच गई जहां से उन्होंने स्टार्ट की थी। अनुराधा जी को बचाया न जा सका। घाट पर अंतिम संस्कार के लिए ले जाया गया। कई महिलाएं देह में हल्दी वगैरा लगा रही थीं। रो रही थीं। मैं दिलीप जी को देख रहा था। वह काठ बन गए थे। मृत देह को इलेक्ट्रिक चिता की ओर ले जाया गया। मैंने पहली बार इलेक्ट्रिक चिता देखी। वहां मौजूद पंडित ने कुछ संस्कार वगैरा करने को कहा, जो दाह संस्कार करने के पहले किया जाता है। दिलीप जी ने मना कर दिया। शरीर एक विशाल पायर में डाली गई। एक अजीब सी आवाज आई और सब कुछ खत्म। पंडित जी ने पूछा कि प्रवाहित करने के लिए राख? दिलीप जी ने उसके लिए भी मना कर दिया।
उन्होंने आर अनुराधा से परोपकार सीखा था। लोगों की मदद करना। वंचितों की आवाज बनना। वह जान चुके थे कि यह उनके पेशे के हिसाब से ठीक नहीं है लेकिन उन्होंने इसको मिशन बना लिया।
वह ऐसे व्यक्ति हैं, जिनसे आप अपनी बात खुलकर रख सकते हैं। असहमति को सम्मान देना किसे कहते हैं, वह इसकी यूनिवर्सिटी हैं। उन्हें अम्बेडकर पसन्द हैं और घुमा फिराकर गान्धी की ढेरों खामियां निकालेंगे। लेकिन आप उनसे अम्बेडकर की आलोचना कर सकते हैं। गांधी या पटेल की प्रशंसा में आप अगर लेख लिख दें तो उसे भी वह और इनपुट जोड़कर आपके लिखे को बेहतर बना सकते हैं। उनके सामने दीन दयाल उपाध्याय और यहां तक कि नरेंद्र मोदी या मनु की भी तारीफ कर सकते हैं और अगर आपकी उनसे दोस्ती है तो आप यह यकीन करते हुए चर्चा कर सकते हैं कि उनकी तरफ से आपकी दोस्ती टूटने नहीं जा रही है।
उन्होंने वंचितों की आवाज के लिए सोशल मीडिया को हथियार बनाया। जब ट्विटर इलीट क्लास का था और वंचित हिंदी तबका अखबार की खबरों में आंख फाड़े पढ़ता था कि फलां सब्जेक्ट ट्विटर पर ट्रेंड कर गया तो उन्होंने ट्विटर की इलिटिज्म की ऐसी हवा निकाली कि वहां से इलीट तबके में भगदड़ ही मच गई।
दिलीप जी से आप घण्टे भर बात करें, कभी फेसबुक ट्विटर के गालीबाज या ऐसा कोई व्यक्ति चर्चा में नहीं आएगा। उनके पास इस पर चर्चा करने के लिए वक्त नही होता, न तारीफ के लिए न आलोचना के लिए। उनके मुंह से कभी सम्पर्क वाले लोगों की आलोचना नहीं सुनी। देश दुनिया जहान की इतनी बातें होती हैं कि मुझे कभी कभी जरूरी बात भूल जाती है कि किसलिए मिलने आए थे। जिस काम के लिए मुलाकात की होती है, वह फोन करके बताना पड़ता है। वह ऐसे मित्र हैं जिन पर पूरी तरह भरोसा कर सकता हूँ कि किसी हाल में वह नाराज नहीं होंगे, उनसे और उनको मैं कुछ भी कह सकता हूँ।
डिस्क्लेमर: दिलीप जी मेरे बड़े भाई, गुरु और मित्र हैं। मैंने उनके बारे में जितना लिखा, वह बहुत कम और बहुत खराब लिखा है। और अच्छा लिख सकता हूँ लेकिन जब किसी अपने बहुत प्रिय के बारे में लिखना हो तो समझ में नहीं आता कि क्या लिखें। लेकिन जो भी लिखा है वह तथ्यात्मक, अनुभवजन्य और आंखों देखी है। सम्बन्धों का इस पर रत्ती भर असर नहीं है। कोरोनाकाल में यह परिचित व्यक्ति परिचय/ प्रशंसा की चौथी सीरीज है।
वरिष्ठ पत्रकार सत्येंद्र पी सिंह की एफबी वॉल से.
Shiva
June 27, 2020 at 8:59 pm
सत्येन्द्र भाई आप का लेख उत्तम है। मेरी मुलाकात दिलीप जी से 2005 की है..उस समय यशवंत भाई ने ही मुलाकात करवाई थी और दिलीप भाई नवभारत टाइम्स में कार्यरत थे। मेरा कैरियर शुरू ही हुआ था और इत्तफाक देखिये कि मैंने दिलीप भाई से निवेदन किया कि वो मुझे नभाटा में काम दिलवा दें। उस समय मैंने सिर्फ उन्हें अपना नाम बताया था…जिसके बाद उन्होंने कहा कि भाई मैं दलितों की मदद नहीं करता क्योंकि वो फिर इल्जाम लगा देते हैं। जिसके बाद उन्होंने अपने दोस्ते के साथ आईटीओ पर स्थित उडिपी में मेरे सीवी के ऊपर संभार की कटोरी रखकर बड़े ही इत्तमिनान से डोसा खाया। जो मुझे आजतक याद है। शायद दिलीप भाई भूल गए हो…लेकिन बहुत ही अच्छे और नरक में जाने लायक हैं ये। बाकी कभी और…जब आप मौका देंगे। दिलीप मंडल और मिलिंद खांडेकर जैसे लोगों को नरक में गर्म तेल में तल कर इनके पिछवाड़े में लाल मिर्च डालकर चटनी के साथ दलीतों की थाली में रखकर परोसना चाहिए….ये दोनों ही नंबर एक के …..हैं। ये वो लोग हैं जिन्हें किस्तमत से आजचक नौकरी मिलती रही…नहीं तो घंटा ये इस लायक है। बाकी सभी की श्रद्धा अलग अलग है। मेरे दिल में इन दोनों के लिए कोई जगह नहीं।
Anuraag Yadav
June 28, 2020 at 11:09 am
Great job…
SB singh
July 1, 2020 at 12:21 pm
सत्येंद्र जी ने बढ़िया लिखा. शिवा भाई ने उतनी ही अच्छे ढंग से मार ली. बड़ा असमंजस है. किसको सही माने किसे गलत? फिर भी सभी के अपने अपने राम है. अपना अपना धर्म. अपना अपना विश्वास.