उपरोक्त खबर को हटवाने के लिए सहारा ग्रुप द्वारा की गई साजिश को जानें-
सहारा ग्रुप की दल्ली सोनिया अख़्तर के बारे में कुछ भी आप जानते हों तो भड़ास को बताएं
गलगोटिया ग्रुप भी भड़ास के खिलाफ ऐसी साजिश रच चुका है, जानिए विस्तार से-
आनलाइन गुंडई : Galgotia के गुर्गों ने ‘भड़ास’ पर गिरवा दी गाज!
भड़ास बंद करा के Galgotia को मिला घंटा!
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sahara ka ek karmi
January 21, 2021 at 11:47 pm
फिर सवालों के दायरे मे सहाराश्री के फैसले
इतिहास के बड़े मोड़ और बड़े परिवर्तनों की बात करें तो जंगल में घटित एक घटना शायद इतिहास की बड़ी घटनाओं में से एक है। कुछ साधुओं और कुछ राहगीरों की टोली को जंगल में डाकुओं ने लूटने के इरादे से घेर लिया। मौत सामने खड़ी थी। बेबस राहगीरों के पास अपनी जान बचाने के लिए अपना कीमती सामान नगदी आदि, डाकुओं को सौंपने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। तभी एक साधु महाराज ने हौंसला दिखाते हुए डाकुओं के सरदार से एक सवाल किया कि आप यह लूटपाट, खून खराबा आदि जैसा खराब काम क्यों करते हो। सरदार ने जवाब दिया कि अपने परिवार के लिए। साधू ने पूछा कि क्या जिस परिवार और जिन लोगों के लिए आप यह सब करते हो क्या वो लोग आपके पाप और उस पर मिलने वाली सजा में भी भागीदार हैं, जाओ उनसे पूछ कर आओ हम यहीं खड़े हैं। संक्षिप्त यह कि डाकुओं का सरदार घर गया तो उसने साधू का सवाल अपने परिवार से दोहराया। परिवार के लोगों ने कहा कि पाप आप करते हो हम उसके भागीदार क्यों बनेंगे। साधू महाराज के सवाल और परिवार के जवाब से डाकुओं के सरदार का हृदय परिवर्तन हो गया और इसी किदवंती के आधार पर कहा जाता है कि इसके घटना के बाद ही एक महर्षि, वाल्मीक का नाम इतिहास में दर्ज हुआ और एक बड़ा धर्म ग्रंथ भी अस्तित्व मे आया। इस कहानी के विस्तार या इसके पर बहस के बजाए आज इसका चर्चा सिर्फ इसलिए कर रहा हूं कि वर्तमान में भारत के बड़े घोटालों के आरोप में चर्चा में चल रहे सहारा ग्रुप के चेयरमेन सुब्रत राय सहारा यानि सहाराश्री के साथ, क्या उनका कथित सहारा परिवार भी साथ था। जिस दौरान वो तिहाड़ मे बेहद कष्ट का समय गुजार रहे थे, तब उनके सबसे बड़े सपने और सबसे बड़े खर्च पर खड़ा किये गये मीडिया हाउस के परिवारजन उनके लिए क्या सोच रहे थे, या केवल अपने लिए ही नौकरियां या धंधा ढूंड रहे थे, या जिन निकम्मों और नाकाम लोगों कहीं और नौकरी नहीं मिली वो वफादारी के नाम पर उसी परिवार को लूटने लगे थे, जिसको पालने पोसने और खड़ा करने के लिए सहाराश्री जैसा रिवल्यूश्नरी और डॉयनमिक शख्स घोटालों का न सिर्फ आरोपी बना बल्कि कई साल तक जेल में कष्ट झेलता रहा।
मैं फिलहाल न तो सहाराश्री की तुलना किसी डाकू या लुटेरे से कर रहा हूं न किसी उनके हृद्य परिवर्तन की उम्मीद! सहारा समय में कई साल के कार्यकाल के दौरान जो कुछ देखा और जो आज भी हो रहा है, उसी सब के बाद और उसी के आधार पर यह पत्र लिख रहा हूं। यह मत सोचना कि किसने लिखा, बस यह देखिए कि क्या लिखा और क्यों लिखा। फिर भी सबसे पहले तो आपको इस पत्र के लिखने का कारण बताता चलूं। अभी कुछ सप्ताह पूर्व सहारा नोयडा कार्यालय में एक वरिष्ठ के केबिन में जाना हुआ वहां पर पहले से ही एक अन्य वरिष्ठ, जो कि अक्सर किसी काम के बजाय किसी न किसी वरिष्ठ के केबिन मे बैठे या इधर उधर की बाते करते ही देखे जाते हैं, वह भी बैठे थे। तभी किसी तीसरे वरिष्ठ ने आकर नौकरी पाने के किसी इच्छुक व्यक्ति का बायोडाटा दिया तो, केबिन में बैठे दूसरे वरिष्ठ ने उसे देखकर कहा कि यह तो काफी पहले वैसे ही स्ट्रिंगर था, इस पोस्ट के लायक नहीं है, साथ ही ऐसे ही कुछ दूसरे कमेंट पास कर दिये। कई दिन बाद उसी वरिष्ठ को किसी दूसरी जगह देखा जहां वह हंस कर बता रहे थे, कि फंलाना को आने से रोक दिया है, थोड़ी भी देर हो जाती तो वह दुबारा आ जाता। मैं यह नहीं समझ सका कि किसी को आने से रोकने का यह खेल क्या है। जबकि सच्चाई यह है कि नौकरी के लिए जिस व्यक्ति का बायोडाटा उस समय देखा जा रहा था, तब तो मुझे पता नहीं चला कि वह किसका था। परंतु बाद में मुझे भी जिज्ञासा हुई कि किसको रोककर यह लोग प्रसन्न हो रहे हैं। मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि जिसको इन्होने वर्तमान बास जो कि सहारा के पूर्व के लोगों को अच्छे से नहीं जानते थे, को यह बताया गया कि वह स्ट्रिंगर था, जबकि वह शुरुआती दौर में सहारा का बड़ा चेहरा था। बड़ी खबरें देने के अलावा उसके नाम सहारा का पहला क्राइम शो देने का भी योगदान रहा। मगर हमारे एक वरिष्ठ ने दूसरे वरिष्ठ जो कि खुद कभी किसी चैनल के स्ट्रिंगर थे, को बताया कि वह तो स्टिंगर था, और उन्होने बिना कोई जांच या आगे की पूछताछ के मान लिया कि नौकरी मांगने वाला यह व्यक्ति नौकरी पाने का हकदार नहीं है। बस इसी के बाद सोचा कि आज अपने प्रिय संस्थान व उसके मालिक को गुमराह करने वालों,और सहारा की बदनामी व बदहाली के जिम्मेदार लोगो को बेनकाब किया जाए। हो सकता है कि भड़ास मेरे लेख को प्रकाशित नहीं करे और यह भी हो सकता है कि प्रकाशित होने के बाद मुझे ही सहारा से निकाल दिया जाए। लेकिन जिस संस्थान का कई साल खाया है उसके प्रति वफादारी यह रिस्क लेने के मजबूर कर रही है। अब देखते हैं जो भी होगा।
आज के दिन सहारा श्री और सहारा को लेकर चर्चा करने की एक वजह ये भी है कि पहले से ही कई विवादों और घोटाले की चर्चाओं से घिरा सहारा एक बार फिर बदनामी की कगार पर है। आज ही सहारा को लेकर भड़ास द्वारा प्रकाशित एक खबर को मैनेज करने के आरोप खुद भड़ास ने लगाए इसके अलावा कुछ दिन पहले ही लखनऊ के जिला प्रशासन ने सहारा समूह के खिलाफ बड़ा एक्शन लिया । मीडिया में चल रही खबरों के मुताबिक लखनऊ प्रशासन ने लखनऊ में सहारा इंडिया समूह के रियल स्टेट कार्यालय को सील कर दिया था। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक जिला प्रशासन व रेरा टीम ने अलीगंज के कपूरथला के सहारा इंडिया समूह के रियल स्टेट के ऑफिस को सहारा के कई हाउसिंग प्रोजेक्टस पर पैसा जमा करने पर मकान ना देने और पैसा ना वापस देने के आरोप के बाद सील कर दिया था। इससे पूर्व भी भारतीय प्रतिभूति एवं विनियम बोर्ड यानि SEBI ने सहारा ग्रुप के चेयरमेन सुब्रत रॉय सहारा यानि सहारा श्री से 62,600 करोड़ रुपये जमा करने को कहा था। कहा जा रहा है कि निवेशकों ने समूह की बॉन्ड योजनाओं में ये पैसा जमा किया है।
लेकिन सबसे पहले तो भड़ास के इस आरोप का मैं इतना ही कहूंगा कि सहारा कभी किसी मीडिया हाउस की सुपारी नहीं देता है। सहारा ही एक ऐसा ग्रुप है जो बड़े मीडिया हाउस का संचालन करते हुए दूसरे मीडिया हाउसों को मोटा विज्ञापन और हर संभव मदद करता है। जिस सूचना या आरोप को लेकर किसी महिला का नाम लेकर भड़ास ने सहारा पर आरोप लगाए हैं वह निराधार हो सकता हैं। हां इतना अवश्य हो सकता है कि सहारा के ही किसी वरिष्ठ ने पूर्व की भांति किसी अपनी चेली या चेले को आगे करके मामलों को मैनेज करने के नाम पर अपना मोटा गेम कर लिया हो। क्योंकि पूर्व में भी कई मामलों में सहारा मीडिया के कुछ वरिष्ठों ने सहारा की अंदर की सूचना पहले बाहर लीक की और बाद मे उसको मैनेज करने के नाम पर मोटा खेल कर लिया। क्योंकि सहारा जैसे बड़े ग्रुप के लिए यह शोभा नहीं देता कि भड़ास या किसी दूसरे मीडिया हाउस को लेकर इस हद तक जाए। इस सब में कहीं न कहीं सहारा मीडिया के ही किसी अंदरूनी खिलाड़ी का खेल है, जो पहले भी पुलिस, कानूनी दांव पेंच, निवेशकों को मैनेंज करने के नाम पर अपना घर चला रहे हैं। यह सच है कि सहारा मीडिया में कार्यरत वर्तमान वरिष्ठों का पत्रकारिता के अलावा हर प्रकार का कार्य साइड में एक संघठित गैंग की भांति चल रहा है। यह सहारा का दुर्भाग्य है।
जहां तक सहाराश्री का सवाल है, इतना तो जरूर है कि भले ही कुछ लोग सहारा श्री को घोटालेबाज , बचत और मोटा मुनाफे और धन दोगुना करने के नाम पर करोड़ों आम नागरिकों और गरीबों के हजारों करोड़ रुपए ठगने और लूटने का खिलाड़ी मानते हों लेकिन अगर गहराई से सोचा जाए तो उनके व्यक्तित्व का एक पहलू और भी सामने आता है। हांलाकि मामला चूंकि अदालत में है, वो भी देश की सबसे बड़ी अदालत में, इसलिए फिलहाल सहाराश्री पर लूट खसोट और धोखाधड़ी जैसे किसी भी आरोप पर कुछ भी कहना उचित नहीं है, लेकिन बावजूद उसके कुछ दूसरी बातों पर आज चर्चा होनी चाहिए।
सहाराश्री के बारे में कहा जाता है कि कभी शान-शौकत और शोहरत की बुलंदी पर रहने वाले शख्स की कामयाबी का राज उनके पिता और परिवार के संस्कार, उनका दिमाग और जूझारूपन ही था। जहां तक संस्कार की बात है तो एक बार अपने धोबी को शर्ट पर प्रेस न करने की वजह से डांटने वाले सुब्रत रॉय को उनके पिता ने बेहद डांटते हुए कहा था कि यह क्यों समझते हो कि वो धोबी आपसे छोटा है, जितनी बेहतर तरीके से शर्ट पर प्रेस वह कर सकता है, आप नहीं कर सकते। जिसके बाद सुब्रत राय जी को इतनी तो सीख मिली कि समाज के हर तबके का सम्मान न सिर्फ जरूरी है बल्कि कामयाबी का राज भी। दूसरी बात उनका विजन और दूसरे हटकर सोचना भी ऊंचाई के मुकाम तक ले गया था। वर्ष 2002 में मैंने उनके तीन दिवसीय एक इंडक्शन में उन्ही के मुंह से सुना था कि सहारा शहर को देखने के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन जब पूछा कि इतना सुंदर और वेल-मेंटेन शहर को संवारने और मेंनटेन करने में तो काफी खर्च आता होगा। तो सहाराश्री ने जवाब दिया इसको हम पैसे से नहीं बल्कि दिल से मेंनटेन करते हैं। बहराहल सहारा श्री को घोटालेबाज कहने या उनको क्लीनचिट देने का हमें कोई अधिकार नहीं है। लेकिन सवाल यह है कि दुनियां के सबसे बड़े कॉर्पोरेट परिवार के मुखिया से अगर वही सवाल किया जाए जो जंगल में डाकुओं के सरदार से किया गया था, तो उसका जवाब क्या होगा। आज इस पर चर्चा करते हैं।
कई साल सहारा मीडिया के साथ जुड़े रहने के दौरान एक बात यह भी सामने आई कि कभी सहारा के अंदरूनी हालात यह थे कि लगभग 15 साल पहले हमारे ही एक सहयोगी ने त्यागपत्र देते समय सहाराश्री को एक चिठ्ठी लिखी थी, जिसमें उसने सहारा को टाइटेनिक से संज्ञा देते हुए आगाह किया था कि जिन लोगों पर आप ज्यादा भरोसा करके उनको पाल रहे हो वही इस ग्रुप के पतन का एक कारण भी हैं।
माना कि सहाराश्री का कथित शौकीन लाइफ स्टाइल, सहारा के ही कुछ वरिष्ठ कर्मियों द्वारा सहाराश्री को लड़कियों का कथित शौकीन दुष्प्रचारित करना, उनके बारे में कहना कि एयर होस्टेस हो या कोई एंकर सहाराश्री कथिततौर पर उनको काम के लिए नहीं बल्कि किसी और वजह से इस्तेमाल करते हैं, बेहद गलत बात है। सबसे दुखद बात ये है कि ये सभी अफवाहें या अंदर की बातें सहारा के उन ही लोगों के मुंह से सुनी या प्रचारित की जातीं थीं, तो कथिततौर पर उनके सबसे बड़े वफादार माने जाते थे, और जिनमें से कुछ आज भी उसी वफादारी के नाम पर सहारा मीडिया को संचालित करने का नाटक कर रहे हैं।
पैराबैंकिग, चिटफंड या घोटालों की सूची में भले ही अकेला नाम सहारा का न हो लेकिन इस सबके बीच चाहे शारदा, पीयरलेस या दर्जनों नामों में सिर्फ सहारा ही निशाने पर रहता नजर आता है। लेकिन इस सबसे हटकर मीडिया की बात करें तो सहारा ने अखबार हो या टीवी दोनों ही क्षेत्रों में इतना खर्चा और इतनी बड़ी और मंहगी टीम उतारी थी, जो कि अभी तक किसी दूसरे ग्रुप या मीडिया हाउस ने नहीं उतारी। लेकिन आखिर क्या वजह रही कि सहारा को अपनी सफाई में या कथित दबाव से बचने के लिए दूसरे मीडिया हाउसों को मंहगे विज्ञापन देने पड़ते रहे।
सहारा जिसकी एयरलाइंस थी, अपने जहाज अपने हैलिकाप्टर थे, क्रिकेट की टीम हो या हॉकी या कोई दूसरा खेल सहारा की शर्ट यह बताने को काफी थी कि यहां भी सहाराश्री का दिमाग काम करता रहा । अमिताभ बच्चन हों या कपिल देव या फिर कोई दूसरा सैलेब्रिटी सहारा का नाम फख्र से लेता था। लेकिन उसी का सबसे बड़ा मंहगा मीडिया हाउस और उसके कथित रणनीतिकार सहाराश्री की छवि को बनाने के बजाय बिगड़ने से भी बचाने में क्यों नाकाम रहे। इस सवाल का जवाब जानने से पहले एक नाम का जिक्र करना चाहूंगा (जो कि काल्पनिक नाम है उसका किसी व्यक्ति या सहारा के कर्मी से कोई लेना देना नहीं है,यदि किसी व्यक्ति या सहारा के कर्मी से इस नाम की खूबियों का खामियों का मीलान होता है तो यह महज इत्तिफाक होगा,यह नाम एक काल्पिनकि पात्र है इसका सहारा के किसी कर्मी के असल जीवन या किसी सहारा कर्मी से कोई लेना देना नहीं है, सिर्फ समझाने के लिए यह पात्र खड़ा किया जा रहा है। राऊऊ भाड़ेद्र, यह वह नाम है जिसके बारे में कोई भी मीडियाकर्मी का या खुद सहारा का ही कोई व्यक्ति यह बताए कि क्या पिछले 18-20 साल में कभी इस नाम के आदमी को किसी ने रिपोर्टिंग करते देखा, किसी प्रेस कांफ्रेस में देखा, कभी किसी ने इसको कोई स्क्रिप्ट लिखते देखा, कभी स्क्रीन पर देखा या किसी डीबेट में या दिल्ली पुलिस हैडक्वार्टर या सीबीआई या देश के किसी थाने में रिपोर्टिंग करते देखा,लेकिन यह नाम पिछले लगभग 20-25 साल से सहारा के साथ महत्वपूर्ण तौर पर जुड़ा है। राऊऊ भड़ेद्र के साथ कई साल काम करने के बाद मैं या कोई भी दूसरा व्यक्ति शायद यह बताने में नाकाम रह सकते हैं कि सहारा के लिए उनका योगदान क्या है। हो सकता है कि कोई हमारी बात से इंकार करते हुए उनकी दक्षता की बात करते हुए यह कह दे कि राऊऊ भड़ेंद्र अपने सीनियर्स के साथ कैबिन में बैठने, दूसरों पर चर्चा करने,इधर की उधर लगाना, सीनियर्स की चापलूसी, दूसरों की नौकरी खाने, दूसरों के काम कौ मैनुपुलेट करने के दम पर अपनी नौकरी बचाने या अपने मालिकान और सीनियर्स की कमजोरियों और उनके शौक के दम पर या उनको मुहय्या कराने के नाम पर अपना पकड़ बनाने में माहिर हैं। वैसे तो राऊऊ भड़ेंद्र महज एक पात्र है, लेकिन यह भी कोई अकेला नहीं है। इस जैसे कई और हैं। इस मोड़ पर शायद सहाराश्री शायद मात खा गये। भले ही उन्होने कर्त्वय कौंसिल बनाई हो भले ही वहां का माली और गार्ड भी मुखबरी के दम पर वफादारी और दूसरों को खलनायक बनाने में माहिर हो, लेकिन किसी ने शायद आज तक सहाराश्री को यह नहीं बताया कि देश के सबसे मंहगे मीडिया हाउस को खड़ा करने के बावजूद सहारा दूसरे चैनलों के सामने कहीं क्यों नहीं टिकता, सबसे मंहगे और आधूनिक उपकरणों और ओबी वैन आदि के बावजूद सहारा को अपने प्रचार के लिए दूसरे मीडिया हाउसों को विज्ञापन क्यों देना पड़ता रहा, जबकि इसी तरह के आरोपों से घिरे दूसरे संस्थान और मीडिया हाउस तक क्या कभी सहारा के तेज तर्रार रिपोर्टरों और संपादकों को नहीं दिखे, जो लोग आज तक स्टार जैसे चैनल खड़े करने का माद्दा रखते हों वहीं लोग सहारा में टिकने के बजाए रातों रात वहां से भाग खड़े हुए हों, भगदड़ का सिलसिला लंबा है, बात चाहे आदरणीय उदय जी की हो या कापरी जी की या फिर दूआ जी की, लंबी फहरिस्त है लेकिन सिलसिला जारी है, जो सईद अंसारी सहारा में नहीं टिक सका वही सईद अंसारी दूसरे चैनलों में कामयाब क्यों होता दिख रहा है। वही मुकेश कुमार जिन्होने सहारा से जाने के बाद न सिर्फ, कई पुराने चैनलों में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया बल्कि कई नये चैनल लॉंच करा दिये, क्या कारण था कि सहारा में उनको लेकर दरबारी टाइप राऊऊ भड़ेंद्र जैसे लोग निकम्मा साबित कर चुके थे, जिस अबुल नस्र, अनुराग मुस्कान, हुमेरा, रोमाना, कवींद्र या दूसरे दर्जनों लोगों को राऊऊ भड़ेंद्र जैसे कई लोगों के फीड बैक की वजह से सहारा में निकम्मा मानकर न तो प्रमोट किया गया न ही उनकी हैसियत के मुताबिक सैलरी दी गई, वही लोग दूसरे चैनलों में, कैसे मंहगी सैलरी पर देश में नाम कर रहे हैं। लेकिन इसी कॉस्टकटिंग का लॉलीपॉप थमाकर राऊऊ भड़ेंद्र जैसे लोग अपनी सैलरी बढ़वाने और अपनी नौकरी के साथ साथ प्रमोशन हथियाने में लगे रहे। हांलाकि जब इस तरह के पैरासाइट्स अपनी खास तंरग में होते हैं तो अपनी कामयाबी के लिए सहाराश्री की कथित अय्याशी, संस्थान में आने वाली नई लड़कियों का भी कई बार कथिततौर पर शोषण, यह लोग ऊपर पहुंचाने के नाम पर करने से बाज नहीं आते। लेकिन इसका सबका सबसे बड़ा नुकसान देश के सबसे बड़े मीडिया हाउस और सहाराश्री के सपने को हुआ।
यह सवाल इसलिए कि डाकुओं से अगर साधू महाराज यह न मालूम करते कि परिवार उनको लेकर क्या सोचता है, तो समाज से एक शख्स की बुराई कभी खत्म न होती और न ही एक महान धर्मग्रंथ मिलता। हांलाकि मेरा निजी तौर मानना है कि भले ही कुछ लोग सहाराश्री को लेकर घोटाले और लुट खसोट की बात करते हों लेकिन मुझे गर्व है कि मैने ऐसे नाम के मार्गदर्शन में काम किया जो कि लाख आरोपों और परेशानियों के बावजूद माल्या नीरव जैसे किसी नाम की तरह देश से भागा नहीं। जिसने दूसरे मीडिया हाउसों में लाखों के विज्ञापन देकर अपने निवेशकों को हमेशा अपनी जमा पूंजी बताने की कोशिश की और उनको भरोसा दिलाने की कोशिश की। लेकिन आखिर यह सवाल कौन पूछेगा कि अपने ही घर यानि सहारा के महंगे मीडिया हाउस के मंहगे लोग ऐसी रणनीति क्यों न बना सके कि सहारा की सही छवि जनता तक पहुंच पाती। साथ ही यदि यहां पर काम का माहौल होता तो न सिर्फ सैंकड़ों सच्चे पत्रकारों का घर चलता बल्कि सहारा भी मजबूत होता।
मैं फिलहाल न तो राऊऊ भड़ेंद्र जैसे किसी काल्निक पात्र पर चर्चा करना चाहता हूं और न उन हालात पर बात करना चाहता हूं जिनकी वजह से देश के अग्रणी और बड़े मीडिया हाउस को लॉंच करने के लिए हजारों करोड़, जिनको हासिल करने के नाम पर घोटाले बाज जैसे नाम और जेल तक जाना पड़ा हो, उसको लेकर राऊऊ भड़ेंद्र जैसे कथित धुरंधर या सहारा परिवार के लोग सहाराश्री के साथ खड़े होते नजर क्यों नहीं आए। दिलचस्प बात ये है कि इसी सहारा परिवार के कई कथित वफादारों को अगर सहाराश्री के खिलाफ किसी थाने में शिकायत या किसी अदालत में लंबित मामले की खबर किसी रिपोर्टर के माध्यम से लग भी जाती थी, तो पहली फुरसत में दूसरे मीडिया हाउसों या पुलिस तक पहुंचाना और उनको मैनेज करने के नाम पर अपना प्रमोशन और कमाई करना राऊऊ भड़ेंद्र जैसों का बाएं हाथ का खेल था।
हो सकता है कि मेरे काल्निक पात्र राऊऊ भड़ेंद्र के नाम को लेकर कुछ लोग सहारा के एक वरिष्ठ अधिकारी राव वीरेंद्र जी के नाम को याद करने लगें। यह एक इत्तिफाक़ है कि इन दोनों नामों को लेकर कुछ लोग भ्रमित हो सकते हैं। मैं बिल्कुल साफ कर दूं कि इस पूरे कहानी का राव वीरेंद्र जी से कोई लेना देना नहीं हैं। किसी को यदि राव साहब में मेरे काल्निक पात्र की झलक दिखती है तो यह उसकी अपनी सोच है। वैसे भी मैं राव साहब का बेहद आदर करता हूं, क्योंकि जब सहारा टीवी का 24 घंटे का चैनल लांच हो रहा था और उसके प्रीव्यू के लिए लखनऊ में सहारा के ऑडिटोरियम में सहाराश्री जी, श्री विनोद दुआ जी, श्री नामवर सिंह जी की मौजूदगी में अरूप घोष जी को नेश्नल और प्रभात डबराल जी को रीजनल चैनलों की रूप रेखा को प्रदर्शित करना था को इन्ही राव वीरेंद्र साहब को कुछ खास काम सौंपे गये थे और कुछ एडिटिट स्टोरी का टेप लखनऊ लाने के लिए बाकायदा फ्लाइट से लखनऊ भेजा गया था, जिसमें अवैध हथियारों पर एक विशेष रिपोर्ट भी थी। यानि राव वीरेंद्र जी सहारा के बेहद सम्मानीय व्यक्ति हैं। मैं एक बार फिर स्पष्ट कर दूं कि मेरे काल्निक पात्र राऊऊ भड़ेंद्र और राव वीरेंद्र जी के बीच किसी को कोई समानता दिखाई दे तो यह महज एक इत्तिफाक ही होगा।
बात कहां से कहां पहुंच गई, जबकि हमने बात शुरु की थी सहाराश्री से। दरअसल सहाराश्री से मैं निजी तौर पर इसलिए भी प्रभावित था, कि उन्होने देश के ही बल्कि दुनियां के सबसे कार्पोरेट परिवार का न सिर्फ गठन किया था, बल्कि लाखों कर्मियों वाले इस ग्रुप में कुछ बाते बिल्कुल नई भी खड़ी कीं। देश में न तो सहारा मीडिया से बड़ा किसी चैनल का न्यूज रूम है न ही इंफ्रास्ट्रक्चर। लेकिन सच्चाई ये है कि इस सपने को साकार करने और लाखों बेरोजगारों को रोजगार देने वाले की सोच को उसके ही कथित वफादार, समझने में नाकाम रहे। सहारा में कई लोग ऐसे भी हैं जो महज कंपनी पर ही लगे मामलों को मैनेज करने के नाम पर पहले मामलों को उछलवाते हैं फिर खुद की नौकरी पक्की करते हैं। ये अलग बात है कि कुछ खुद भी जेल की सैर तक कर चुके हैं। कई लोगों पर हत्या के आरोपों तक की एफआईआर के बावजूद वो सहारा में मौजूद हैं। तो सीधे तौर पर समझा जा सकता है कि सहारा उनके लिए काम करने की नहीं बल्कि अपना ही काम निकालने की ही जगह बन चुका है।
अंत में यही कहना है कि सहारा में अधिकतर लोग मेहनती और वफादार ही थे और हैं लेकिन कुछ निकृष्ट और मैनुपुलेटर लोगों की वजह से सहाराश्री का असल सपना साकार न हो सका। बतौर एक पत्रकार और सहाराकर्मी हम सिर्फ अपने विभाग यानि मीडिया हाउस की ही बात करना चाहेंगे। जिस पर सहाराश्री ने दोनों हाथों से रकम लुटाई, देश के बड़े मीडिया के हाउस के तौर पर खड़ा करने का सपना देखा लेकिन उसकी क्या हालत है यह सबके सामने है। हो सकता है कि कुछ लोग मेरी बात का खंडन करने के लिए मेरे काल्पनिक पात्र राऊऊ भड़ेंद्र जैसों के पक्ष में कोई फर्जी दलील भी पेश कर दें, लेकिन ये सहारा के लिए ही बेहतर होगा कि कोई तो काली भेड़ सामने आए। क्योंकि निश्चित तौर पर ऐसे गैंग की पहचान करना ही सहारा की सबसे बड़ी चुनौती है।
बहरहाल जाते जाते बस इतना कहना चाहूंगा कि कई साल सहारा से जुड़े रहने के बाद उसको परिवार के तौर पर महसूस करने के बाद सहारा से लगाव हो गया है, यही मेरा परिवार है, भले ही आज मैनें एक डाकू की कहानी का जिक्र किया हो लेकिन मेरा मानना है कि सहाराश्री का विजन बड़ा था, उन्होने तमाम आरोपों और दिक्कतों के बावजूद देश के भागने के बजाय देश में रहकर कानून का सामना करते हुए जेल जाना तो पंसद किया लेकिन अपने आदरणीय पिता की शिक्षा को सम्मान दिया। उनको लेकर जो भी फैसला होगा वो अदालत को करना है, लेकिन फिलहाल तो यही लगता है कि खुद सहाराश्री को समझना होगा कि अपने परिवार के लिए वो जंगल के डाकू की तरह भले राहगीरों को न लूट रहे हों, लेकिन उन्होने दुनियां के सबसे बड़े अपने इस कार्पोरेट परिवार खासतौर से मीडिया हाउस के लिए हजारों करोड़ प्राप्त करने के लिए जो भी कष्ट उठाया है, उसका सम्मान और जिम्मेदारी क्या सिर्फ उन्ही की है, या परिवार के लोगों का भी कोई दायित्व बनता है।
साथ ही भड़ास, जो कि एक निष्पक्ष और बेबाक मीडिया मंच है, जिसको देखकर समझ में आता है कि कलम की और मीडिया की ताकत क्या है, जैसे संस्थान को किसी से मैनेज करवाने के बजाय इस बात पर ध्यान दिया जाए कि यह सब करने से सहारा का क्या फायदा होगा और क्या नुकसान।