संजय कुमार सिंह-
प्रधानमंत्री की एक जैसी खबर एक जैसे शीर्षक के साथ लगभग सभी अखबारों में पहले पन्ने पर है!
आपका असली रंग दिखने लगा है प्रधानसेवक जी… लाचारी और लफ्फाजी दोनों की हद पार कर गए हैं आप! आज के अखबारों में बोलने वाले प्रधानमंत्री की एक और चुटकुले जैसी खबर एक जैसे शीर्षक के साथ लगभग सभी अखबारों में पहले पन्ने पर है।
निश्चित रूप से यह उच्च स्तर का हेडलाइन मैनेजमेंट है और दैनिक जागरण का शीर्षक है, “राजनीतिक चश्मे से मानवाधिकार को देखने वाले देश को पहुंचा रहे क्षति”। अंग्रेजी में इंडियन एक्सप्रेस के शीर्षक का हिन्दी अनुवाद होगा, “अधिकारों के उल्लंघन का चुनिन्दा विरोध देश को नुकासान पहुंचाता है”।
प्रधानमंत्री ने कहा है तो गोदी मीडिया ने खूब प्रमुखता से छापा भी है लेकिन मुद्दा यह है कि हर बात को हर कोई, हर समय समान महत्व कैसे दे सकता है? कहने की जरूरत नहीं है कि प्रधानमंत्री प्रचारक मीडिया की बात नहीं कर रहे हैं और अज्ञानियों के लिए अपना अधकचरा ज्ञान ढेल रहे हैं।
वरना प्रधानमंत्री के कथनी और करनी का अंतर कौन नहीं जानता है। चुनाव से पहले विदेश में रखा काला धन और जीतने के बाद ना पनामा पेपर्स पर बोलना ना पंडोरा पेपर्स पर। और बात सिर्फ बोलने की नहीं है विदेश से काला धन लाना था खबर जाने की है, नोटबंदी जैसा महान करतब या 56 ईंची हिम्मत दिखाने के बावजूद।
अगर मानवाधिकार की ही बात की जाए तो मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष की नियुक्ति के लिए नियम बदलने की जरूरत क्यों पड़ी और बार-बार समर्थन करने वाले को नियम बदलकर ईनाम दिया जा सकता है तो उसका विरोध करने वाला दिल्ली पुलिस के प्रमुख की नियुक्ति का भी विरोध करे?
वैसे दिलचस्प यह है कि आज ही खबर आई है कि दिल्ली हाईकोर्ट ने राकेश अस्थाना को दिल्ली पुलिस का प्रमुख बनाने के खिलाफ दायर याचिका को खारिज कर दिया। प्रधानमंत्री कह सकते हैं कि इससे साफ हो गया कि उन्हें सीबीआई का प्रमुख बनाने की कोशिशें भी गलत नहीं थीं। जाहिर है, प्रधानमंत्री का बयान इसपर भी हो सकता था पर नहीं है क्योंकि उन्हें इसकी जरूरत नहीं लगी।
दूसरी ओर राहुल गांधी ने कहा है कि चीन को लाल आंख क्यों नहीं दिखा देते? अब इसपर प्रधानमंत्री पूछ सकते हैं कि राहुल गांधी ने घुस कर मारने की याद क्यों नहीं दिलाई या उसपर सवाल क्यों नहीं उठाया। उसपर सवाल मैंने उठाया था और राहुल गांधी ने लाल आंखें दिखाने पर सवाल उठाया – इसका कारण यही है कि सबकी प्राथमिकता अलग होती है।
आपकी भी है। आजकल आप नहीं कह रहे हैं कि आग लगाने वालों की पहचान कपड़ों से हो जाती है ना ही आप दीदी को याद कर रहे हैं। और तो और, आप यह भी नहीं बता रहे हैं कि किसानों की हत्या के आरोप में केंद्रीय मंत्री के पुत्र की गिरफ्तारी के बाद उनका इस्तीफा क्यों नहीं ले रहे हैं।
यह तो सामान्य जांच की दृष्टि से जरूरी है। भाजपा के पास या संघ में उनका विकल्प ही नहीं है क्या? इस बारे में तो बहुत लोग पूछ चुके हैं आपने कोई जवाब नहीं दिया है और अब आप मानवाधिकार को राजनीतिक चश्मे से देखने की बात कर रहे हैं। अपनी ही राजनीति पर अपने ही चश्मे का रंग नहीं दिखा रहे हैं।
आपने मंत्री बनाने के लिए जातीय संतुलन की बात की, योग्यता की नहीं की और पहले वालों को हटाने का कारण भी तो नहीं बताया। किसी ने नहीं पूछा हो तब भी बताना चाहिए कि बिना टीम के कप्तान के रूप में आप कभी चौकीदार को मंत्री बना देते हैं कभी जातीय संतुलन साधने लगते हैं और इसमें ना यह बताते हैं कि आपका कौन मंत्री काम का है और कौन किस लिहाज से उपयोगी है।
अगर पूछा नहीं जाए तो आप कौन से सवाल का जवाब बिना मांगे देते हैं। दूसरों को मूर्ख समझना छोड़िए अब आपका असली रंग दिखने लगा है।
- नोटबंदी से आंतकवाद खत्म होना था (बंद तो वेश्यावृत्ति भी नहीं हुई)
- हवाई हमले में ‘सारे’ आतंवादी मार दिए जाने का दावा था
- चौकीदारी मिली (जीत गया) तो घर में घुस कर मारूंगा
- चीन सीमा पर – न कोई हमारी सीमा में घुसा, न ही पोस्ट किसी के कब्जे में है
- अनुच्छेद 370 खत्म करना बेहद आसान था और जो कमाल हुए हैं
- लेकिन (अभूतपूर्व) हिस्ट्रीशीटर को मंत्री बनाने और बचाने में लगे हैं
- आज एक खबर सीमा का हाल बताती है (पुंछ में पांच सैनिक मरे)
- दूसरी किसानों का आरोप है (प्रधानमंत्री गुंडों को संरक्षण दे रहे हैं)
- पर बकेन्द्र की बोलती बंद है
- सिर्फ हेडलाइन मैनेजमेंट चल रहा है