‘आप’ का ‘मैं’ तक चेहरा व्यक्तिवादी

Share the news

लगभग दो वर्ष पूर्व जब आम आदमी पार्टी की नींव रखी गई तो एक नई विचारधारा के राजनीतिक क्षेत्र में प्रवेश का दावा किया गया। इस विचारधारा के महिमा मंडन और हकीकत में इसके अनुसरण पर कई प्रश्र चिन्ह भी लगे परन्तु सभी प्रश्रों को निरूत्तर करते हुए आप ने अपनी ऐतिहासिक सफलता की इबारत लिखी।      इस सफलता की खुमारी अभी पुरी तरह से उतरी भी न थी कि फिर से पार्टी एक विवाद में फंस गई। विवाद आप पार्टी में लोकतंत्र के गौण और व्यक्ति के प्रधान होने का। विवाद प्रश्र उठाने और एतराज जताने के अधिकार का।

 मार्च के प्रथम बुध की शाम को योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण को आम आदमी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी से बाहर कर दिया गया और बाहर करने के दौरान ऐसा प्रदर्शित किया गया कि लोकतांत्रिक तरीके से वोटिंग द्वारा सभी सदस्यों की राय ली गई और फैसला किया गया। परन्तु प्रश्र यह उठता है कि क्या वास्तव में ही उस प्रक्रिया का पालन किया गया यां फिर पालन का दिखावा किया गया। पिछले एक सप्ताह से लगभग सभी खबरिया चैनलों व अखबारों में यह बात पुख्ता तौर पर कही जा रही थी कि प्रशांत और योगेन्द्र की पीएसी से छुट्टी तय! तो फिर क्या? राष्ट्रीय कार्यकारिणी को उसके बॉस का फरमान मिल गया था कि विरोध की आवाज बुलंद करने वालों की जुबानें खींच दो। 

       इस सारे प्रकरण में आप पर प्रश्र चिन्ह लगने तो लज़मी है। लोकतंत्र की दुहाई देने वाली पार्टी ने अपना फैसला एक फार्म हाऊस की ऊंची-ऊंची दीवारों के बीच कुछ इस तरीके से किया कि किसी को मामले की हवा भी न लगे। संचार क्रांति के सहारे पलने बढऩे वाली पार्टी ने उस दिन टीवी डिबेट्स में अपने नुमायंदे तक नही भेजे कि कहीं कोई कुछ पूछ ही न ले। प्रश्र यह भी उठता है कि अगर यही सबकुछ होना था तो आप में और बाकी पार्टियों में फर्क कैसा? आवाज बुलंद करने पर पार्टी से निकाल देना यां आडवाणी बना देना अगर दूसरी पार्टियों का चलन रहा है तो फिर आम आदमी पार्टी उनसे अलग कैसे? प्रश्र उठाना और वैचारिक असहमति प्रकट करना बौद्धिक उच्चता का प्रमाण है। वैचारिक विरोध के वज्र को खुंड करके आम आदमी पार्टी ने भी साबित कर दिया कि राजनीति के राजतंत्र में लोकतंत्र के हथियार नहीं चलते। राजनीति का लोकतंत्र जो वास्तव में लोकतंत्र नहीं, राजतंत्र है, जिसमें व्यवस्था और जनता नहीं, व्यक्ति और उसका व्यक्तित्व प्रधान है। स्थापना से पूर्व संगठन की जय और स्थापित होने पर व्यक्ति की जय कहने की प्रथा जब आप ने भी दोहराई तो निस्संदेह उन लोगों के दिल तो जरूर टूटे होंगे, जो राजनीति में नए वैचारिक सूर्य के उदय होने का सपना संजोए काली रात के बीत जाने का इंतजार कर रहे थे।

      जवाब देने का भार अब अरविन्द केजरीवाल पर भी है कि क्या वे तानाशाह तो नहीं हो गए? क्या आप भी मैं के सफर पर तो नही निकल गई? क्या देश में लोकपाल की स्थापना के विचार से अस्तित्व में आई पार्टी ने अपने आंतरिक लोकपाल को ही तो दरकिनार नहीं कर दिया? निस्ंदेह प्रश्र उठेंगे और उठने भी चाहिए पर क्या केजरीवाल इनके उत्तर देने का साहस कर पाएंगे? अगर करते हैं तो उनके उत्तरों का बेसब्री से इंतजार रहेगा।



भड़ास का ऐसे करें भला- Donate

भड़ास वाट्सएप नंबर- 7678515849



Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *