पूरब के गांवों में एक कहावत है “दुआरे आई बारात तो समधिन को लगी हगास”। कुछ यही हाल देवभूमि कहलाने वाले उत्तराखंड के श्रम विभाग का है। मजीठिया अवमानना के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने पूर्वोत्तर के पांच राज्यों को (जिसमें उत्तराखंड भी शामिल है) 23 अगस्त को तलब किया है। इन राज्यों के प्रमुख सचिव इस दिन स्टेटस रिपोर्ट के साथ हाजिर होंगे। वे बताएंगे कि उन्होंने अपने राज्यों से छपने वाले अखबारों के कितने कर्मचारियों को मजीठिया के अनुसार वेतन और अन्य परिलाभ दिलवाना सुनिश्चित किया है। इस संदर्भ में मैंने 13-14 जून 2016 को सीए श्री एनके झा से क्लेम बनवाकर देहरादून स्थित अपर श्रम आयुक्त के कार्यालय में अपना दावा पेश किया। सफर में रहने के कारण 16 जून को मेरठ से इसकी प्रति लेबर कमिश्नर को हल्दावानी नैनीताल रजिस्ट्री की।
बताते चलें कि 26.06.2016 को पत्र सं. 2741/ उक्त के माध्यम से श्रम आयुक्त उत्तराखंड ने अपर / उप श्रम आयुक्त को लिखे और मुझे सूचित किये गए पत्र में बताया कि इस कार्यालय के पत्र सं. १८३५ / ४ – १९ (||) / २००९ दिनांक : ०२. ०५. २०१६ द्वारा आपको श्रम जीवी पत्रकार एवं अन्य समाचार पत्र कर्मचारी अधिनियम 1955 के अनुसार वैधानिक कार्यवाही किये जाने हेतु निर्देशित किया गया है। गौरतलब है कि अपने आयुक्त कार्यालय के पत्र भेजने के लगभग 50 दिन बाद आज 19.08.2016 को उप श्रम आयुक्त कार्यालय को होश आया है कि वे किसी अखबार के कर्मचारी से दावा प्रस्तुत करने को कहें। आज अपर / उप श्रम आयुक्त कार्यालय का पत्र (सं. 4938 / दे. दून. – डब्ल्यू. जे. ओ. एन. -क्लेम / 2016 दिनांक 16 अगस्त 2016) वाहक डाक रिसीव करा गया। आम तौर पर पत्र आदि पंजीकृत डाक से आते हैं।
बहरहाल पत्र के साथ एक प्रोफार्मा फार्म “सी” उपलब्ध कराया गया है। पत्र में यह आदेश/ निर्देश दिया गया है कि अपने क्लेम की राशि तीन प्रतियों में मांगी है। कब तक प्रस्तुत करना है यह निर्देश नहीं दिया गया। मित्रों यह हाल है आज (मोदी जी) के डिजिटल युग वाले श्रम विभाग का। लेबर कमिश्नर के यहां मैंने पंजीकृत डाक से क्लेम भेजा 16 जून को आठ दिन बाद 24 जून को सहायक श्रम आयुक्त पी. सी, तिवारी मेरे शिकायती पत्र पर कार्यवाही के अपने अधीनस्थ अधिकारी को पत्र लिखते हैं और उसकी प्रति शिकायतकर्ता को भेजते हैं। स्थानीय कार्यालय को 55 दिन लग जाते हैं नौकरी से निकाले गए पीडित पत्रकार से क्लेम संबंधी कागजात मांगने में।
प्रसंगवश बताते चलें कि यदि अवमानना का मामला सुप्रीम कोर्ट में न होता तो शायद विभाग मामले को दबा जाता। हां एक बात और। मजीठिया के संबंध में श्रम विभाग लगातार जानकारी देने से बचता रहा दिया भी तो झूठी और भ्रामक। श्रम विभाग के लचीले रवैये या कानून में खामियों के कारण सहारा में काम करने वाले दर्जनों कर्मचारियों को नौकरी से हाथ धोना पडा। मैंने खुद वेतन न मिलने सहित कई मामलों की लिखित शिकायत श्रम विभाग से की। न वेतन मिला और न ही शिकायतें दूर हुई बल्कि नौकरी से ही निकाल दिया गया। क्या यही न्याय है?
अरुण श्रीवास्तव
पत्रकार एवं आरटीआई कार्यकर्ता
देहरादून 09458148194
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