गोरों की तरह बदमाश है भारत में कालों की सरकार!

अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों… तो क्या ऐसा ही वतन आजादी के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वालों ने हमारे हवाले किया था, जैसा हमने इसे बना दिया है? क्या ऐसे ही वतन के लिए भगत सिंह और उनके साथियों ने हंसते हंसते फांसी का फंदा चूमा था? देश को आजाद कराने के लिए हिंदुओं की ही तरह मुसलमानों ने भी आपस में मिलकर अंग्रेजी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला था। गोरों की सरकार ने अपनी फौज के माध्यम से हिंदुओं, सिखों, मुसलमानों आदि पर बेइंतिहा जुर्म ढाये। ईसाई अंग्रेजों के अत्याचार की चपेट में इसलिए नहीं आये कि वे खुद ईसाई व इससे मिलती-जुलती कौम के थे।

पेशेवर लठैत बन चुका है मीडिया

बड़े-बुजुर्ग अक्सर कहते हैं कि अंग्रेज तो चले गए लेकिन चाय छोड़ गये। इसी तरह सामंतवाद समाप्त हो गया लेकिन लठैत छोड़ गया है। ये लठैत अपने सामंत के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते थे। आज भी लठैत हैं। बड़े-बुजुर्गों का कहना है कि, मीडिया से बड़ा लठैत कौन है। हालांकि तब (1988 के आस पास) मुझे भी खराब लगता था। अब भी खराब लगता है जब मीडिया को बिकाऊ, बाजारू या दलाल कहा जाता है। माना कि देश की आजादी में मीडिया का योगदान सबसे अधिक नहीं तो सबसे कम भी नहीं था। तब अखबार से जुड़ने का मतलब आजादी की लड़ाई से जुड़ना होता था। अब देश आजाद है। मीडिया की भूमिका भी बदल गई। पहले मिशन था अब व्यवसाय हो गया है। पहले साहित्यकार व समाजसेवक अखबार निकालते थे अब बिल्डर और शराब व्यवसायी (भी) अखबार निकाल रहे हैं।

शोभा की वस्तु बना संपादक

“आने वाले वर्षों में अखबार बहुत सुंदर होंगे, लेटेस्ट कवरेज होगी, अच्छी छपाई होगी, पर किसी संपादक की हिम्मत नहीं होगी कि वह मालिक की आंख में आंख मिलाकर बात कर सके”।

-बाबूराव विष्णुराव पराड़कर
संपादक हिंदी दैनिक आज
(एक कार्यक्रम के दौरान उनका वक्तव्य)

मजीठिया : अब नींद से जागा उत्तराखण्ड का श्रम विभाग

पूरब के गांवों में एक कहावत है “दुआरे आई बारात तो समधिन को लगी हगास”। कुछ यही हाल देवभूमि कहलाने वाले उत्तराखंड के श्रम विभाग का है। मजीठिया अवमानना के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने पूर्वोत्तर के पांच राज्यों को (जिसमें उत्तराखंड भी शामिल है) 23 अगस्त को तलब किया है। इन राज्यों के प्रमुख सचिव इस दिन स्टेटस रिपोर्ट के साथ हाजिर होंगे। वे बताएंगे कि उन्होंने अपने राज्यों से छपने वाले अखबारों के कितने कर्मचारियों को मजीठिया के अनुसार वेतन और अन्य परिलाभ दिलवाना सुनिश्चित किया है। इस संदर्भ में मैंने 13-14 जून 2016 को सीए श्री एनके झा से क्लेम बनवाकर देहरादून स्थित अपर श्रम आयुक्त के कार्यालय में अपना दावा पेश किया। सफर में रहने के कारण 16 जून को मेरठ से इसकी प्रति लेबर कमिश्नर को हल्दावानी नैनीताल रजिस्ट्री की।

श्रम विभाग के खिलाफ खबरें क्यों नहीं?

डेंगू रोकने में स्वास्थ्य विभाग असमर्थ… नहीं बन रहे जाति प्रमाणपत्र… लोक अदालत में मामले निस्तारित… आजादी तो मिली स्कूलों पर छत नहीं डली जैसे समाचारों से अखबारों के दर पन्ने रंगे रहते हैं । अखबारों में छपने वाली खबरों में 90-95 % पुलिस, शिक्षा, स्वास्थ्य विभाग या नगर निगम, जल निगम या परिवहन निगम से संबंधित होती हैं। खेल और कारोबार संबंधी खबरों की भी भरमार होती है। यही नहीं बडे क्या मझोले अखबारों में भी बकायदे इसके संवाददाता होते हैं। इधर कुछ वर्षो से न्याय पालिका से संबंधित समाचार भी पढने को मिल जाते हैं। अगर किसी समूह/ वर्ग की खबरें नहीं होती तो वह है श्रमिकों से जुड़े श्रम विभाग की। जबकि हर प्रदेश का अपना श्रम विभाग होता है।

तो कभी भी रिटायर नहीं होता अखबारकर्मी!

चौंक गए होंगे आप कि अखबार में काम करने वाला कर्मचारी रिटायर क्यों नहीं होता जबकि हर पेशे में काम करने वाले कर्मचारी की नौकरी में आने की कोई उम्र हो या न हो, रिटायर होने की आयु तो होती ही है। अब दिमाग में यह सवाल कौंधना स्वाभाविक है कि यही एक ऐसा पेशा क्यों है जहां सेवा से निवृत्त होने की कोई सीमा क्यों नहीं है जबकि समाचार पत्रों में काम करने वाले कर्मचारी श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम 1955-56 से आच्छादित हैं और इनके साथ श्रमजीवी शब्द जुडा होने के कारण ये अपने-अपने प्रदेशों के श्रम विभाग से नियंत्रित होते हैं।