गिरीश मालवीय-
विदेश से जो मेडिकल मदद आ रही है उसको लेकर मोदी सरकार कितनी लापरवाह है ये भी समझ लीजिए 25 अप्रैल को मेडिकल हेल्प पहली खेप भारतीय बंदरगाहों पर पुहंच गयी थी उसके वितरण के नियम यानि SOP स्वास्थ्य मंत्रालय ने 2 मई को जारी किए। यानी एक हफ्ते तक आई मेडिकल मदद एयरपोर्ट, बंदरगाहों पर यूं ही पड़ी रही। यानि केंद्र में बैठी मोदी सरकार को इस बारे में SOP बनाने में ही सात दिन लग गए कि इसे कैसे राज्यों और अस्पतालों में वितरण करे जबकि अगर आमद के साथ ही यह राज्यों में पहुंचना शुरू हो जाती तो कई मरीजों की जान बचाई जा सकती थी।
एक ओर बात है भारत सरकार विदेशों से आ रही मेडिकल मदद रेडक्रॉस सोसायटी के जरिए ले रही है, जो एनजीओ है। मेडिकल सप्लाई राज्यों तक न पहुंच पाने के सवाल पर रेडक्रॉस सोसायटी के प्रबंधन का कहना है कि उसका काम सिर्फ मदद कस्टम क्लीयरेंस से निकाल कर सरकारी कंपनी एचएलएल (HLL) को सौंप देना है। वहीं, HLL का कहना है कि उसका काम केवल मदद की देखभाल करना है। मदद कैसे बांटी जाएगी, इसका फैसला केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय करेगा। स्वास्थ्य मंत्रालय इस बारे में चुप्पी साधे हुए है……
अभी भाई Dilip Khan की पोस्ट पर पढ़ा कि गुजरात के गांधीधाम के SEZ में जहा देश के कुल दो तिहाई ऑक्सीजन सिलेंडर बनते हैं वहा पिछले 10 दिनों से SEZ के सभी प्लांट्स में ताला बंद है. वजह ये है कि सरकार ने औद्योगिक ऑक्सीजन के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाई थी. लेकिन, आदेश में इन सिलेंडर निर्माता ईकाइयों को भी शामिल कर लिया गया. अभी हालत ये है कि सरकार विदेशों से भीख मांग रही है या फिर दोगुने-चौगुने दाम पर ऑक्सीजन सिलेंडर ख़रीद रही है. जो अपने कारखाने हैं, वहां ताला जड़कर बैठी हुई है.
मतलब आप सिर पीट लो कि ऐसे क्राइसिस में भी लालफीताशाही किस तरह से हावी है।
दिलीप खान की पूरी पोस्ट ये है-
देश में इस वक़्त दायां हाथ क्या कर रहा है, ये बाएं हाथ को पता नहीं. इंडियन एक्सप्रेस ने आज अपनी स्टोरी इसी लाइन से शुरू की है. मामला ऑक्सीजन प्लांट का है. जब अयोग्य, अक्खड़, मक्कार, मूर्ख और लफ़्फ़ाज़ प्रधानमंत्री हों, तो देश का यही हाल होता है.
- गांधीधाम के SEZ में देश के कुल दो तिहाई ऑक्सीजन सिलेंडर बनते हैं.
- पिछले 10 दिनों से SEZ के सभी प्लांट्स में ताला बंद है.
- वजह? वजह ये कि सरकार ने औद्योगिक ऑक्सीजन के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाई थी. लेकिन, आदेश में इन सिलेंडर निर्माता ईकाइयों को भी शामिल कर लिया गया.
- फिर 27 तारीख़ को गृह मंत्रालय को इलहाम हुआ तो एक ‘स्पष्टीकरण’ जारी किया गया. इसमें कहा गया कि ऑक्सीजन सिलेंडर बनाने वाले कारखानों को लिक्विड ऑक्सीजन की आपूर्ति की जाए.
- लेकिन, यह आदेश काग़ज़ों में ही सिमटकर रह गया. गुजरात सरकार के पास या तो आदेश की कॉपी नहीं पहुंची या फिर वहां की भाजपा सरकार को ऑक्सीजन की कमी से मर रहे लोगों की फिक्र नहीं है. हफ़्ते भर बाद भी सारे कारखाने बंद पड़े हुए हैं.
- उद्योग से जुड़े लोगों का दावा है कि उन्होंने ऑक्सीजन की आपूर्ति की कमी को लेकर सरकार के ‘सर्वोच्च स्तर’ पर अपनी चिंता ज़ाहिर की, लेकिन हुआ कुछ नहीं.
- गांधीधाम से ऑक्सीजन सिलेंडर की आपूर्ति देश के लगभग सभी राज्यों में होती है क्योंकि 100 में से 66 सिलेंडर यही बनते हैं. अभी हालत ये है कि सरकार विदेशों से भीख मांग रही है या फिर दोगुने-चौगुने दाम पर ऑक्सीजन सिलेंडर ख़रीद रही है. जो अपने कारखाने हैं, वहां ताला जड़कर बैठी हुई है.
- न विजय रुपाणी ने इसका पालन किया और न ही राज्य के खाद्य और औषधि प्राधिकरण के कानों पर जूं रेंगी.
- पूरा देश कुप्रबंधन का शिकार बना बैठा है. देश को जितने ऑक्सीजन की ज़रूरत है, उतना भारत में रोज़ बन सकता है. हालात आपतकाल जैसे हैं, लेकिन जनसंहार के बीच भीषण अयोग्य प्रधानमंत्री टिनोपाल डालकर कुर्ता रंगने में जुटा है.
सत्येंद्र पीएस-
आपको पहले यह बताना होगा कि बल्क ड्रग किसे कहते हैं। आप जो दवाई की टैबलेट खाते हैं या सिरप पीते हैं, वह जिस केमिकल से बनता है, उसे बल्क ड्रग कहा जाता है। इसे दवा बनाने का कच्चा माल कहा जा सकता है।
जबसे कोरोना आया है, बल्क ड्रग के दाम 180% तक बढ़ गए हैं। इसकी कालाबजारी रोकना तो बहुत आसान है क्योंकि इसका सप्लायर कोई घुरहुआ नहीं होता, बड़े बड़े लोग होते हैं जो कई कम्पनियों को सप्लाई करते हैं। ऐसा नहीं है कि कोई मेडिकल स्टोर वाला 10 रेमदेसीवीर का इंजेक्शन दाबे है कि कोई परिचित, घर का बीमार होगा तो देंगे या ज्यादा पैसे पर बेचेंगे।
सरकार बल्क ड्रग की कालाबजारी नहीं रोक पाई जिसमें महज 8-10 लोगों का गला पकड़ना था। यह करना नेहरू या मनमोहन सिंह का काम नहीं था।
पवन सिंह-
हाशिए पर जनता और सात साल ..मैं!…मैं!!…मैं..!!!
रामराज्य से यमराज्य की ओर बढते कदम…
मैं गरीब मां का बेटा हूं। मेरी मां दूसरों के घरों में बर्तन मांजती थी। मैंने गरीबी देखी है। मैं बचपन में चाय बेचता था। मैंने 20 साल भिक्षा मांग कर पेट भरा। मैं हिमालय पर तपस्या करने चला था। मुझे लोग गालियां देते हैं। मैं गालियों को गहना बना लेता हूं। मै झोला उठा कर चल दूंगा। मैं चौराहे पर आ जाता हूं… मेरी बचपन से आदत रही है कि मैं बड़ा सोचूं….मां गंगा ने मुझे बुलाया है..मां नर्मदा ने मुझे बुलाया है..मैं बांग्लादेश की आजादी में शामिल था…मैं! …मैं!!…मैं!!!….मैं!!!?…मैं..!!!!!..
ये वो विषय हैं जो मेन स्ट्रीम मीडिया के मार्फ़त और सोशल नेटवर्किंग साइट्स के जरिए आवाम के दिमाग में ठेले गये… सहानुभूति बेचने-खरीदने की जबरदस्त मार्केटिंग की गई…जरा सोचिएगा कि इसमें जनता के सरोकारों के तमाम विषय कहां हैं?… चारों ओर “मैं” का साम्राज्यवाद है और विस्तार है…”हम भारत के लोग” कहां हैं?…”मैं” के विस्तार में “हम” यानी “आवाम” को ढक दिया गया…और इस कदर ढक लिया गया कि हमने अपने नागरिक होने के अधिकारों से ही मुंह मोड़ लिया। बकौल! एक नागरिक हमने बिजली-पानी-शिक्षा-रोजगार जैसे बुनियादी सवाल ही खो दिए…इसका परिणाम यह हुआ कि उद्योग धंधे खत्म हुए, रोजगार खत्म हुए, चिकित्सा व शिक्षा का बजट हर साल सिकुड़ता चला गया, खजाना भरने के लिए बेतहाशा टैक्स लगे, पेट्रोलियम प्रदार्थों के दाम डकैतों की तरह वसूले जा रहे हैं… अर्थव्यवस्था चरमाई, बैंकिंग सेक्टर खोखला हुआ और अब तो अपने ही पैसे की जमा व निकासी दोनों पर “चुंगी” कटने लगी…गैस की सब्सिडी छू-मंतर कर दी गई, खाद के दामों में बेहिसाब बढ़ोत्तरी कर दी गई…भत्ते रूक गये और नई सरकारी भर्तियां राम नाम सत्य हो गई…लाखों पद खत्म कर दिए गये…. दरअसल आवाम अपने हित के बुनियादी सवाल ही भूल गई या भुला दिए गये….”मैं” के कौन से सवाल आपके और हमारे जीवन के सरोकारों से जुड़ते हैं..कभी सोचिएगा?..अभी भी नहीं सोच सकते हैं तो भी कोई बात नहीं एक दिन ये सवाल आपके सामने साक्षात सूर्य के प्रकाश की तरह चमकने लगेंगे…..। चिकित्सा शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था व रिसर्च लैब….कितना बड़ा बुनियादी सवाल है/था…कभी सोचा आपने?.. नहीं सोचा …अच्छा किया…. “रामराज्य” से यमराज्य” की ओर बढ़ते रहिए….।
नोटबंदी भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए डिजास्टर साबित हुई…आपने “मैं” पर तालियां पीटी जब उसने कहा कि “उनकी” औकात थी उन्होंने चवन्नी-अट्ठन्नी बंद की और मैंने 200-1000 की नोट बंद कर दी…। मीडिया लगा दिया गया और आपको नोट में सेटेलाईट चिप लगाकर टहला दिया गया। आप भूल गये कि जब चंदन की लकड़ी का तस्कर एक “काईंयां बाबा” और “मैं” दोनों कहा करते थे कि बड़ी नोट भ्रष्टाचार का बड़ा कारण है और सामने से 1000 की बंद करके 2000 की करेंसी ठेल दी जाती है?…कि नेशनल हेल्थ प्रोफाइल के मुताबिक भारत स्वास्थ्य क्षेत्र पर जीडीपी का महज 1.02 फीसदी खर्च करता है, जबकि हमसे ज्यादा भूटान (2.5%) और श्रीलंका (1.6%) जैसे पड़ोसी देश खर्च करते हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े डराने वाली तस्वीर दिखाते हैं। इनके अनुसार, भारत में एलोपैथिक डॉक्टर के तौर पर प्रैक्टिस करने वाले एक तिहाई लोगों के पास मेडिकल की डिग्री नहीं है। मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के पास वर्ष 2017 तक कुल 10.41 लाख डॉक्टर पंजीकृत थे। इनमें से सरकारी अस्पतालों में 1.2 लाख डॉक्टर थे। शेष डॉक्टर निजी अस्पतालों में कार्यरत हैं अथवा अपनी निजी प्रैक्टिस करते हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों में करीब 90 करोड़ आबादी स्वास्थ्य देखभाल के लिए इन थोड़े से डॉक्टरों पर ही निर्भर है। आईएमए के मुताबिक, इस असामान्य अनुपात की वजह से हाल यह है कि कहीं-कहीं अस्पतालों में एक बेड पर दो मरीजों को रखना पड़ता है तो कहीं गलियारे में मरीज लिटाए हुए देखे जा सकते हैं। दूसरी तरफ जो चिकित्सक हैं, उनके ऊपर भी काम का काफी बोझ है। पीडब्ल्यूसी की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले एक दशक में करीब 1 लाख अस्पताल बेड जोड़े गए हैं, लेकिन यह ज्यादातर निजी क्षेत्र के हैं और जरूरतों के हिसाब से नाकाफी हैं। स्वास्थ्य क्षेत्र में होने वाले कुल खर्च का करीब 30 फीसदी हिस्से में ही सार्वजनिक क्षेत्र का योगदान होता है। ब्राजील में यह 46 फीसदी, चीन में 56 फीसदी, इंडोनेशिया में 39 फीसदी, अमेरिका में 48 फीसदी और ब्रिटेन में 83 फीसदी है।
कोविड की वैक्सीन देने वाला आधार पूनावाला देश छोड़कर निकल गया लेकिन गजब की ख़ामोशी!?.. कहीं कोई प्राइम टाइम नहीं..???सीएमआईई की रिपोर्ट में कहा गया है कि अच्छी रिकवरी के बावजूद मार्च, 2020 से रोजगार में लगातार गिरावट का ट्रेंड है। मार्च 2020 के बाद से हर महीने इसके पिछले साल की तुलना में रोजगार में गिरावट का दौर जारी है। रोजगार इन महीनों में कहीं से भी पिछले साल के स्तर पर नहीं पहुंचा है. सीएमआईई का कहना है कि नौकरी की कमी के कारण लोग हतोत्साहित हो रहे हैं और एक्टिव लेबर मार्केट से बाहर होते जा रहे हैं।
वित्त वर्ष 2021-22 के आम बजट में में शिक्षा को 93,224.31 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं जो पिछले साल के बजट से छह हजार करोड़ रुपये कम है। स्कूली शिक्षा के बजट में सबसे अधिक करीब पांच हजार करोड़ रुपये की कटौती की गई। स्कूली शिक्षा विभाग को 54,873 करोड़ रुपये प्राप्त हुए हैं जो पिछले बजट में 59,845 करोड़ रुपये थे। यह 4,971 करोड़ रुपये की कमी को दर्शाता है। उच्च शिक्षा विभाग के बजट में इस साल करीब एक हजार करोड़ रुपये की कटौती की गई है. उच्च शिक्षा विभाग को इस बार 38,350 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है जो पिछले बजट में 39,466.52 करोड़ रुपये रहा था। बजट में स्कूली शिक्षा योजना समग्र शिक्षा अभियान के आवंटन में कमी दर्ज की गई है और इसके लिए 31,050 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है जो पिछले बजट में 38,750 करोड़ रुपये था। लड़कियों के लिए माध्यमिक शिक्षा की राष्ट्रीय प्रोत्साहन योजना के लिए आवंटन महज एक करोड़ रुपये किया गया है जो चालू वित्त वर्ष में 110 करोड़ रुपये था।
खैर! आप लोग ‘मैं” के विस्तार व संरक्षण में लगे रहें और आपकी पीढ़ियों के भाग्य में भिक्षा मांगकर खाना ही लिखा जाएगा।
कृष्ण कांत-
मोदी सरकार के बारे में एक बहुत बड़ी और बहुत पॉजिटिव खबर है जिसे पढ़कर आप पैर के नाखून से खोपड़ी की चुरकी तक आह्लादित हो जाएंगे.
तो खबर ये है कि देश भर में लोग आक्सीजन और दवा के बिना मर रहे हैं. अब ये खबर छुपाई कैसे जाए? न चाहते हुए भी मीडिया में खबरें आ रही हैं. तो 18 घंटे मेहनत करने वाली सरकार के सूचना मंत्री अपने अधिकारियों के साथ रोज वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग करके योजना बना रहे हैं कि ‘नगेटिव’ मीडिया और ‘बैड प्रेस’ से कैसे निपटा जाए? सरकार मीडिया को बताना चाहती है कि वह बहुत “sensitive, bold, responsive and hardworking” है.
जो मीडिया पहले से ही रोज भजन करता आया है कि प्रधानमंत्री खाते नहीं, सोते नहीं, बस 18 घंटे काम करते रहते हैं, उसे ही और बताना है कि सरकार बड़ी मेहनती है.
क्या आपने एक साल में किसी भी वक्त ये सुना कि कोई मंत्री या खुद प्रधानमंत्री ने लगातार एक हफ्ते तक कोरोना से निपटने की योजना बनाने के लिए वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग या मीटिंग की हो? वे रैली महीनों तक कर सकते हैं, भाषण अनंत काल तक दे सकते हैं, लेकिन लोगों को मरने से बचाने के लिए आपात इंतजाम नहीं कर सकते.
ऐसे विकट संकट में वे महामारी से निपटने का नहीं, वे सोशल मीडिया पर मदद मांग रहे लोगों पर, मदद कर रहे लोगों पर और मीडिया पर शिकंजा कसने की योजना बना रहे हैं. यही है भक्तों की वह महान राष्ट्रवादी सरकार, जो जनता की जान बचाने की जगह मीडिया को घुंघरू पहनाकर नचाने के लिए षडयंत्र रच रही है. मर जाओ लेकिन इनकी आलोचना न करो. चिता पर लेट कर भी इनका भजन करो, क्योंकि इन्हें लगता है कि इनसे बेहतर कोई नहीं है.
अब सवाल ये है कि सरकार की तारीफ किस बात के लिए की जाए? महामारी में चुनाव कराने के लिए? रोज रैली करने के लिए? आक्सीजन प्लांट न लगाने के लिए? दवाओं का इंतजाम न करने के लिए? बेड और वेंटिलेटर न जुटाने के लिए? एक महीने के हाहाकार के बाद भी कोई आपात इंतजाम न करने के लिए? किसलिए तारीफ की जाए? लाखों लोगों को मौत के मुंह में झोंक देने के लिए? या फिर इस बात पर तारीफ की जाए कि सरकार लोगों की जान तो नहीं बचा सकती, लेकिन सरकार के मुखिया की दाढ़ी टैगोर जैसी है? तारीफ किस बात पर की जाए?
क्या इसी बात की तारीफ की जा सकती है कि सरकार को लोगों की जान बचाने की नहीं, अपनी छवि बचाने की चिंता है?
Lovekesh Kumar
May 5, 2021 at 4:04 pm
जनाब किसी में खोट निकलना बहुत आसान है और कुछ करना बहुत मुश्किल पता नही आप इस तरह की पोस्ट अपने मन में बैठे बैर की वजह से ऐसा लिख रहे है या कुछ और कारण है
अगर सरकार विदेशी समान को प्रॉपर देख भाल कर इस्तेमाल करने का न दे तो सबसे पहले आपका ये ही सवाल होता कैसी सरकार है विदेश से आये हुए समान की जांच कर बिना सीधा हॉस्पिटल में पहुँचा दिया विदेश से ही ये बीमारी आई है पता है ने आपको कोरोना
तो कुछ सोच कर ही सरकार ने एक हफ्ते इंतज़ार किया होगा।
हर वक़्त शक करना भी घर और देश को बर्बाद करता है
हैं आगे से मोदी जी से ओर सरकार से बोलना पड़ेगा
आपको A to z इन्फॉर्मेशन जरूर दे
वरना गलियाने को आप जैसे बहुत लोग तैयार बैठे है