यह कहानी है एक पत्रकार की। पहले अखबार में थे अब सरकार में। सरकार उन्हें पत्रकार नहीं जनसंपर्क अधिकारी कहती है। रेलवे जैसे भारी भरकम महकमे में हैं। पाला पड़ गया एक वकील से और माल के साथ माजना भी गंवा बैठे। आगे बात बढ़ाने से पहले स्पष्ट कर दें कि घटना पूरी तरह सच्ची है। पत्रकार चूंकि सरकारी है, इस खबर के कारण भविष्य में उन्हें अब और कोई परेशानी ना हो लिहाजा किसी व्यक्ति और जगह का नाम जानबूझकर नहीं दिया जा रहा है।
तो पत्रकार महोदय करीब पच्चीस-तीस साल पहले एक दैनिक अखबार में वरिष्ठ रिपोर्टर थे। पिताजी रेलवे में थे। शहर से दूर परंतु शान्त, भले लोगों की आबादी वाले एक ठीक-ठाक इलाके में मकान बनाने के कुछ दिनों बाद चल बसे। पिताजी की अंतिम इच्छा के चलते पत्रकार को पत्रकारिता छोड़ अनुकम्पा आधार पर रेलवे में क्लर्की की राह पकड़नी पड़ी। लोगों ने बहुत समझाया। उस दौर में वह पहले पत्रकार साबित हुए जिन्हें बाकायदा अखबार प्रबंधन ने एक समारोह में विदाई दी। नौकरी लगी मुंबई, तब के बम्बई में। मकान के ताला लगाकर विधवा मां के साथ चलते बने। शादी हो गई। बच्चे बड़े हो गए। रिटायरमेंट में भी सात-आठ साल बचे हैं। कहते हैं पत्रकारिता का कीड़ा आसानी से नहीं निकलता। क्लर्की से सफर शुरू किया तो रेलवे मैगजीन के संपादक से होते हुए अब वरिष्ठ जनसंपर्क अधिकारी हैं। मकान शुरू में खाली था, बाद में मामूली किराए पर दे दिया। जिसे दिया वह एक वकील है। अब मकान का इलाका बहुत महंगा हो गया है। जमीन है दो सौ वर्ग गज।
पत्रकार का मूड हुआ बेच दिया जाए। अखबारों में विज्ञापन दे दिए। कुछ ग्राहक भी आए। वकील ने भी कीमत लगा दी। बाद में पत्रकार का मूड पलट गया। सोचा फिलहाज बेटा रहेगा। मुंबई में मकान बनाया नहीं है, इसलिए रिटायरमेंट के बाद आकर खुद रह लेंगे। वकील बोला, आपका बेटा हमारा बेटा, हमारे साथ आकर रहे, कोई दिक्कत नहीं। रही बात मकान की तो हमें बेच ही दो। वाजिब कीमत बोलो खाली तो ऐसा है जब मूड होगा करेंगे, और मूड अभी है नहीं। पत्रकार ने अपने पुराने मित्रों को याद किया। वकील से बात की जाने लगी। वकील का फिर वही राग। अखबारों में विज्ञापन दिए हैं। हम भी खरीदना ही चाहते हैं। पूरे शहर में बदनामी कर दी है कि मैं कब्जा जमाए बैठा हूं। चार आदमी बैठा लो वो जो कीमत तय करे, उसमें उपर नीचे कर देख लेंगे। रही बात खाली कि वो तो पहले की बता चुके हैं मूड होगा तब कर देंगे और मूड फिलहाल नहीं है। लोगों ने वकील को समझाने की फिर कोशिश की यार, अगले का मकान है रखे या बेचे, आपको इससे क्या मतलब है। वकील का जवाब सुनिए, बच्चे यहां सेट हो गए हैं, स्कूल विस्कुल भी सब चल रहा है। वाइफ का भी पास-पड़ौस से सब कुछ ठीकठाक है, उसकी भी पटरी बैठ चुकी है। इतना सब सेट होने के बाद अब कहां जाएं, उसे समझाओ वो बेचना चाहता है, हम लेने को तैयार हैं। रही बात कीमत की तो तीस लाख से ज्यादा बनते नहीं है, अब कोई जबरदस्ती मुहं फाड़े तो ये कोई बात थोड़े ही है।
आखिरकार पत्रकार छुट्टी लेकर बीवी-बच्चों समेत अजमेर आया। कुछ संपादकों, पत्रकारों के जरिए सिफारिश करवाकर पुलिस अधीक्षक, थानेदार, विधायक आदि से मिला। पुलिस अधीक्षक और थानेदार ने लिखित में अर्जी भी ले ली। थानेदार की सलाह पर अपने मकान में अपने कब्जे के एक कमरे और बाथरूम पर पहुंचा। वेस्टर्न स्टाइल का बाथरूम की मरम्मत कराने के लिए एक कारीगर भी साथ ले गया। जैसे ही मरम्मत का काम शुरू किया कि वकील ने पुलिस को शिकायत कर दी, जाने कौन है मकान पर कब्जा करना चाहता है, बीवी-बच्चों को पीट रहा है। पुलिस ठहरी पुलिस तुरंत मुकदमा दर्ज लिया। मुकदमे में पत्रकार की पहले दी गई सूचना का कोई जिक्र नहीं। वकील ने अपने पचासों साथी बुलवा लिए। वकीलों की इज्जत की बात है कहते हुए वकीलों के नेताजी ने भी अपनी बाहें चढ़ा ली। पत्रकार अपने परिवार समेत लौट आया रेलवे स्टेशन जहां वह ठहरा हुआ था। अब तक तो मामला पत्रकार के मकान खाली कराने का ही था अब उस पर लगा मुकदमा हटवाने का भी हो गया। इधर मुकदमा मजबूत करने के लिए वकील ने खुद ही तोड़फोड़ कुछ ज्यादा ही कर डाली। दो दर्जन से ज्यादा वकीलों की मौजूदगी में अपराध स्थल का नक्शा बनवाने, वकील की बीवी की मेडिकल रिपोर्ट बनाने, गवाहों के बयान आदि की पुख्ता कार्रवाई हुई। वकीलों और पुलिस ने मिलकर ऐसा मामला और माहौल बना दिया कि एक ‘बेहद शातिर किस्म के अपराधी, शरीफों के मकान में जबरन घुसकर उनसे मारपीट कर मकान पर अवैध कब्जा और लूटपाट करने वाले, आतंक फैलाने वाले एक आदमी, उसकी बीवी और बेटे’ को तत्काल गिरफतार किया जाना जरूरी है वरना शहर में गुंडाराज कायम हो जाएगा। लोगों की जान सांसत में आ जाएगी। बहन-बेटी की इज्जत खतरे में पड़ जाएगी और शरीफों का जीना मुहाल हो जाएगा।
वकील और पुलिस को पता था कि एक सरकारी कर्मचारी को गिरफ्तार कर जेल में डाल दो, 24 घंटे जमानत ना होने दो, अगले की नौकरी चली जाएगी। इसी को हथियार बनाकर पुलिस जा धमकी पत्रकार को गिरफ्तार करने। कुछ वरिष्ठ पत्रकारों को भनक लगी तो पुलिस अफसरों से बात की। अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक ने गिरफतारी पर अड़े जांच अधिकारी को फोन किया तो वह बोला मैं तो सिर्फ अपने थानेदार की सुनूंगा। थानेदार बोला मैं कुछ नहीं कर सकता, वकीलों का मामला है। पुलिस अधीक्षक ने हाथ खड़े कर दिए, वकीलों के नेता ने धमकी दी है, गिरफ्तारी नहीं हुई तो कल से वकील हड़ताल पर चले जाएंगे। आखिरकार पत्रकारों ने कुछ सुलझे, संजीदा वरिष्ठ वकीलों की मदद ली। वरिष्ठ वकीलों ने दोनों पक्षों को बैठाया। पत्रकार और उसका परिवार तब तक समझ चुका था, राजीनामे का मतलब मकान बेचना है। एक करोड़ के आसपास के मकान की वकील ने कीमत लगाई तीस लाख। पत्रकार बोला इतने में तो नहीं एक साल पहले 75 लाख कीमत थी। कुल मिलाकर वरिष्ठ वकीलों की पहल पर सौदा तय हुआ 41 लाख में।
वकील ने हाथों-हाथ एक लाख रूपए दिए। सुबह से चले इस घटनाक्रम में रात के ग्यारह बज गए। मुस्तैद पुलिस जाब्ता बराबर मौजूद रहा, अगर राजीनामा नहीं बैठ रहा तो पत्रकार को गिरफ्तार करें। राजीनामा हुआ और सबसे पहले लपककर बधाई दी पुलिस के थानेदार ने। बड़ी बेशर्मी से हाथ फैलाते हुए, अब कुछ खर्चा पानी हमें भी, सुबह से परेशान हो रहे हैं। बिना खर्च लिए पुलिस नहीं मानी। और इस तरह संगठन के अभाव में लोकतंत्र के स्वयंभू चैथे खम्भे को दूसरे और तीसरे खम्भे ने लात मारकर गिरा दिया।
एक मीडियाकर्मी द्वारा भेजे गए पत्र पर आधारित।