सहारनपुर। अदब-ओ-सुखन से जज़्बाती लगाव रखने वालों ने सहारनपुर महोत्सव में आयोजित तारीखी आल इंडिया मुशायरे का दिल से लुत्फ उठाया। सही मायने में हिंदुस्तानियत की पुरसुकून झलक नुमायां करते इस यादगार मुशायरे में आलमी और मुकामी शायरों ने बेहतरीन कलाम पेश किए। तकरीबन छह घंटे तक चले मुशायरे में मशहूर-ओ-मारूफ शायर डा. नवाज़ देवबंदी को सुनने की खातिर जहां कला प्रेमी आखिरी लम्हे तक जमे रहे वहीं अल्ताफ जिया, नुसरत मेहंदी, हाशिम फिरोज़ाबादी और सबा बलरामपुरी समेत मुल्क के कोने-कोने से तशरीफ लाए तमाम मेहमान शायरों ने भी आयोजन को बखूबी बुलंदियों तक पहुंचाया।
जावेद खान सरोहा के संयोजन में सहारनपुर महोत्सव एवं शिल्प मेले के सांस्कृतिक पंडाल में आयोजित मुशायरे के पहले पड़ाव पर शमा रोशन किए जाने के साथ ही आयोजन समिति की ओर सेे एडीएम-एफ विनोद कुमार ने मंचासीन शायरों और अतिथियों को सम्मानस्वरूप स्मृति चिन्ह भेंट किए। तजुर्बेकार शायर महेंद्र सिंह ‘अश्क’ की ‘नात-ए-पाक’ के साथ शुरू हुए मुशायरे की निज़ामत जाने-माने शायर फाखि़र अदीब ने और सदारत मौलवी फरीद ने की।
अश्क साहब ने पढ़ा कि- ‘लोग समझे न थे सब निशाने उसी की जान पे थे, किस बुलंदी पर उसका सिर होगा पांव जिसके आसमां पे थे’ नौजवान शायर अलीम वाजिद ने तरन्नुम में पढ़ा कि- ‘दिल परीशां है तुझको मनाने के लिए, मैं हूं बेचैन मेरी जां तुझे पाने के लिए’। मेजबान शायर अमजद अज़ीम ने चुटीले अंदाज़ में ‘मेरी ही ससुराल ने हुलिया संवारा देर तक, सर से पांव तक मेरा सदका उतारा देर तक, मैंने जब उनको बताया कि मैं भी शायर हो गया, इतना सुनते ही मेरे सालों ने मारा देर तक…’ सुनाकर खूब गुदगुदाया। नैनीताल से तशरीफ लाए मोहन ‘मुन्तज़िर’ को नौजवानों से भरपूर वाहवाही मिली, जब उन्होंने पढ़ा कि- ‘मैं दिल के टुकड़ों को पहाड़ कर लूंगा तुझे न दूंगा दोबारा कबाड़ कर लूंगा, तू अपनी सोच मेरे बाद तेरा क्या होगा, मैं अपना कोई न कोई जुगाड़ कर लूंगा…’। जोशीले अंदाज़ में पेश उनके ‘ख़त’ उन्वान से पेश कलाम के इस मतले पर बार-बार तालियां बजीं कि- ‘हम चाहते ही नहीं कि मुहब्बत हो जाए…’।
इसी क्रम में, हरदोई से आए युवा शायर सलमान ज़फ़र ने दिलकश तेवर अख़्तियार करते हुए पढ़ा कि,-‘उलझे सुलझे हुए धागे भी चले आएंगे, भूले बिसरे हुए रिश्ते भी चले आएंगे, नेकनीयती से किसी काम का आगाज़ करो, फिर मदद करने फरिश्ते भी चले आएंगे।’ उनका यह कलाम बेहद पसंद किया गया कि-‘सख्ती थोड़ी लाज़िम है पर पत्थर होना ठीक नहीं, हिंदू मुस्लिम ठीक है साहेब कट्टर होना ठीक नहीं।’
उन्होंने पैग़ाम दिया कि- ‘सलाम करती है दुनिया जिसे अक़ीदत से उसी अज़ीम कफ़न के लिए मरा जाए, किसी हसीन पर मरने से बेहतर है कि सरहदों पर वतन के लिए मरा जाए।’ बाराबंकी से आए अली बाराबंकवी का कलाम-‘दर्द का चांद ढलता रहा रात भर, सिसकियां कोई भरता रहा रात भर, अश्क-ए-ग़म उसकी आंखों से बहते रहे, एक पत्थर पिघलता रहा रात भर।’ उनका यह तंजिया कलाम खासा सराहा गया कि- ‘ज़माने वालों तुम ऐसी हुकूमत लाओ तो जानें, अगर बेटा करे ग़लती सज़ा देता है बाप उसको, उमर फारुख़ जैसी अदालत लाओ तो जानें।’
मुकामी शायर बिलाल सहारनपुरी ने कहा कि-‘कल जो एक शाह था आज नहीं है साहेब, जिंदगी भर के लिए ताज नहीं है साहेब, चौदह सौ साल से हज को जाता है मुसलमान, तेरी सब्सिडी का मोेहताज नहीं है साहेब।’ मेहमान शायर डा. नदीम शाकिर का अंदाज़ भी क़ाबिल-ए-तारीफ़ रहा। उन्होंने पढ़ा कि-‘तेरी तलब में तेरी आरज़ू में काट दिए, न जाने कितने ही दिन एक वज़ू में काट दिए, वो जिन दिनों में खुदा को तलाश करना था, वो दिन तो हमने तेरी जुस्तजू में काट दिए।’ उनका यह कलाम सुनने वालों को झकझोर गया कि-‘मेरी तौबा उधर जाना पड़ेगा, जिधर रस्ते में मयखाना पड़ेगा, हवा आदी नहीं है मशवरों की, चराग़ों को ही समझाना पड़ेगा।’
आम आदमी के दर्द की जु़बां बनने वाले नामी शायर फख़री मेरठी को हर कलाम पर दाद मिली। उन्होंने कहा कि-‘मुनाफे की तमन्ना थी मगर घाटा खरीदा है, लहू को बेचकर मज़दूर ने आटा ख़रीदा है।’ उनका कलाम- ‘जिंदगी तेरे जहन्नुम को मैं जन्नत कर दूं, तू यहीं रुक ज़रा मां-बाप की खि़दमत कर लूं, उम्र भर मुझको इसी फिक्र ने रोने न दिया, मेरे सर पर जो ये छप्पर है, इसे छत कर दूं।’
मेहमान शायरा सबा बलरामपुरी का कलाम-‘ये क्या हुआ कि शहर का मंज़र बदल गया, जितने भी थे चराग़ वो बेनूर हो गए, दिन रात हम किसी के तसव्वुर में खोए हैं, दुनिया समझ रही है मग़रूर हो गए’ और उनके शेर-‘रुसवाइयों से ख़ुद को बचाती रही हूं मैं, लिख-लिख के तेरा नाम मिटाती रही हूं मैं’ को भी सराहा गया। मुशायरे को नया मोड़ देते हुए ख़ुर्शीद हैदर मुज़फ्फरनगरी ने पढ़ा कि-‘कभी जो उनसे मुलाक़ात हो गई होती, तो आंखों आंखों में हर बात हो गई होती, मैं बादलों पर तेरा नाम लिख देता तो मेरे गांव में बरसात हो गई होती।’ उनका कलाम-‘अदाकारी है फ़नकारी नहीं है अगर लहजे में ख़ुद्दारी नहीं है यह तेरी ज़िम्मेदारी नहीं है, यह दिल मेरा है सरकारी नहीं है, ये मज़दूरों की बस्ती है, यहां पर किसी को कोई बीमारी नहीं है’ भी बहुत पसंद किया गया।
मेहमान शायर हाशिम फिरोज़ाबादी ने अपने ही अलग तेवर में पढ़ा कि-‘और क्या चाहिए एक बदन के लिए, ये तिरंगा बहुत है कफ़न के लिए, सरहदों पर हमें भेजकर देखिए, जान दे देंगे हम भी वतन के लिए।’ उन्होंने देशद्रोहियों को कुछ यूं ललकारा कि-‘जो मेरे देश के हैं गद्दार नहीं है जिनको इससे प्यार, वो हिंदुस्तान छोड़ दें।’ हाशिम के इस कलाम पर देर तक तालियां गूंजी कि-‘यहां हर बेटी सीता है यहां हर बेटी राधा है, यहां हर बेटी मरियम यहां हर बेटी सलमा है, यहां जो लूटे इनकी लाज, वो मौलाना हो या महाराज, वो हिंदुस्तान छोड़ दे…।’
मुशायरे के आखि़री दौर में मालेगांव से तशरीफ़फरमा मक़बूल शायर अल्ताफ़ जिया ने अपने अलग अंदाज़ में पढ़ा कि-‘हर तरफ़ एक नूर था उसे हवाले थे बहुत, अब से कुछ पहले, चिराग़ों में उजाले थे बहुत।’ उनका कलाम-‘रोशनी बुझ गई महताब ने दम तोड़ दिया, आंखें खुलते ही मेरे ख़्वाब ने दम तोड़ दिया, आप से तुम हुआ, फिर तुम से तू हुआ आखि़र, देखते-देखते आदाब ने दम तोड़ दिया’ भी पसंद किया गया। निज़ामत कर रहे फाखि़र अदीब का कलाम- ‘मेरी हिस तेरे ग़म को ऐसे चश्मे तर रखती है, जैसे मां सयानी बेटी को घर में रखती है’ सराहा गया।
मध्य प्रदेश से आईं जानी-मानी शायरा नुसरत मेहंदी ने नई नस्ल की नब्ज़ टटोलते हुए कुछ यूं पढ़ा कि-‘इश्क में मजनू-ओ-फरहाद नहीं होने के, ये नए लोग हैं बरबाद नहीं होने के, ये जो वादे हैं अभी हैं जानां, और दो-चार बरस बाद नहीं होने के।’ उनका शेर-‘जब उसका कोई दांव मुझपे कारगर न हो सका, तो ये हुआ कि वो मेरी सुपुर्दगी में आ गया’ भी पसंद किया गया। मुकामी शायर आबिद हसन वफ़ा ने तरन्नुम में पढ़ा कि, ‘दिल बहलाने चलते हैं, चल मयखाने चलते हैं, दिल भी शायद मिल जाए, हाथ मिलाने चलते हैं।’ बुजु़र्ग शायर महेंद्र सिंह ‘अश्क’ ने कहा कि-‘ये डालियां पेड़ों की परेशान न हो जाएं, पंछी भी कहीं हिंदू-मुसलमान न हो जाएं…।’
मुशायरे के सबसे अहम और आखि़री मुकाम पर आलमी शायर डा. नवाज़ देवबंदी सुनने वालों के सामने आए तो तालियों की गूंज से उनका ज़ोरदार इस्तकबाल हुआ। उन्होंने ताजातरीन शेर ‘हमारे क़त्ल पे सच्चाई ने दुहाई दी, तेरे खिलाफ़ तेरे भाई ने गवाही दी’ से आग़ाज़ किया तो इसी सिलसिले में ‘ज़्यादा वज़न पर अपने कभी मग़रूर मत होना, तिनका तैरता रहता है पत्थर डूब जाता है’ और ‘झीलों और तालाबों के जो क़ातिल होते हैं, उन शहरों से ज़ालिम बारिश बदला लेती है’ जैसे अशयार सुनाकर भी अलग छाप छोड़ी।
उन्होंने सुनाया कि ‘एक हम हैं जो ग़ैरों को भी कह देते हैं अपना, एक वो हैं जो अपनों को भी अपना नहीं कहते, माना कि मियां हम तो बुरों से भी बुरे हैं, कुछ लोग तो अच्छों को भी अच्छा नहीं कहते, बन जाए अगर बात तो कहते हैं क्या-क्या, और बात बिगड़ जाए तो क्या-क्या नहीं कहते…।’ उनकी मकबूल ग़जल ‘खुशक नदी में उतरे क्यों, उतरे थे तो डूबे क्यों’ के शेर बेहद पसंद किए गए।
उन्होंने कहा कि ‘सूरज की हुकूमत में उजाला भी तो होता, जब धूप थी दीवार थी साया भी तो होता, ये क्या कि हमेशा रहा बीमार का बीमार, बीमार-ए-मुहब्बत कभी अच्छा भी तो होता…।’ आयोजन में, सीडीओ संजीव रंजन, एसडीएम डीपी सिंह, एसडीएम देवबंद, सरदार अनवर, डाॅ. शाहिद जुबैरी, शीतल टंडन, शमीम तहजीबी, साबिर अली खां, शमीम फारुक़ी, अवनीत कौर, सत्या शर्मा, अल्पना तलवार, पवन शर्मा, विक्रांत जैन, विजेंद्र त्रिपाठी, करुणा प्रकाश, प्रतिभा श्रीवास्तव, वर्तिका, पारस रंधावा, नीरज चौधरी, शानू सिद्दीकी, हैफ, मुज्तबा, यासर, अभिनव आदि मौजूद रहे। मुशायरे के संयोजक जावेद खान सरोहा ने सबका आभार जताया।
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