alok paradkar : हम नहीं हैं आदमी, हम झुनझुने हैं… मनोज श्रीवास्तव जी को पहले भी जब याद करता था, उनके द्वारा दोहरायी जाने वाली दुष्यन्त कुमार की पंक्ति ‘जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में, हम नहीं हैं आदमी, हम झुनझुने हैं’ की याद हो आती। पत्रकारों, खासकर अपने से जूनियर पत्रकारों, की आपसी भेंट-मुलाकातों में वे इसे अक्सर कहा करते थे और जब कभी नहीं कहते तो हम उन्हें इसकी याद दिला देते। फिर अपनी पीड़ा की इस अभिव्यक्ति पर हम सभी ठहाका लगाते। यह उस सामूहिक पीड़ा की अभिव्यक्ति थी जो किसी मीडिया संस्थान में प्रशिक्षु उपसम्पादक से लेकर विशेष संवाददाता तक की होती है।
( File Photo Alok Paradkar )
मनोज जी के भीतर जो फक्कड़पन था उसके कारण वे इसे कहीं भी कह सकते थे और कहा भी करते थे। पत्रकार के तौर पर मीडिया संस्थानों में आदमी से झुनझुने बनते जाने की नियति और उसके प्रतिरोध का द्वंद्व उनके चेहरे से जाहिर नहीं होता था, तो क्या उनकी दिमाग की नसों ने फटकर इसे जाहिर किया है? कुछ समय पूर्व कोई भी इस बात को सहजता से स्वीकार नहीं कर पा रहा था कि आखिर बनारस जाने की उनकी वास्तविक वजह पारिवारिक ही थी? वे एक बड़े समाचार पत्र के विशेष संवाददाता थे और समाजवादी पार्टी जैसी महत्वपूर्ण बीट देखते थे। प्रदेश में सपा का शासन था। राजधानी की राजनीतिक चकाचौंध छोड़कर बनारस बस जाने का उनका फैसला एक पत्रकार और उसके कैरियर के तौर पर निश्चय ही बड़ा फैसला था लेकिन वह उस मन:स्थिति में पहुंच चुके थे जहां उन्होंने अपने ढंग से जीवन को कैरियर पर तरजीह देनी चाही। बनारस का माहौल उन्हें रास भी आया। वे संगीत समारोहों में नजर आने लगे। कलाकारों-साहित्यकारों के बनारस से किए गये उनके साक्षात्कार अक्सर दिख जाते थे। कुछेक कलाकारों के बारे में उन्होंने मुझसे पूछताछ भी की थी।
वास्तव में वे आज उन दुर्लभ होते जाते पत्रकारों में थे जिसे राजनीतिक और प्रशासनिक मामलों के साथ ही साहित्य और कला भी अच्छी समझ थी। इनका मिलाप उनकी पत्रकारिता को धार देता था। सस्ती सनसनी की जगह संवेदना उनकी रिपोर्टों की आधार होती थी। चुनावों की रिपोर्टों में भी वे गली-मोहल्ले की चकल्लस और मानवीय पहलुओं से जान डाल देते। उनके साप्ताहिक साक्षात्कारों में सवालों में विविधता होती थी। वे मुलायम सिंह यादव या शिवपाल यादव से विस्तार से बातचीत कर सकते थे तो गिरिजा देवी और काशीनाथ सिंह से भी। श्रीलाल शुक्ल जी को मृत्यु के पूर्व जब कई पुरस्कार मिले थे तो उन्होंने एक लम्बा साक्षात्कार किया था।
मेरा उनसे परिचय बहुत कम अवधि का रहा। हालांकि मैं उन्हें पत्रकार के तौर पर पहले से जानता था लेकिन भेंट 2011 में अमर उजाला आने पर ही हुई। बाद में अमर उजाला छोड़ने से पहले जब मैंने लम्बी छुट्टी ली तो वे कार्यालय के उन थोड़े से लोगों में थे जो फोन से हालचाल लिया करते थे। वे जब बनारस रहने लगे तो मेरे बनारस बराबर आने- जाने के कारण उनसे मुलाकात हो ही जाती थी। अमर उजाला में काम के दौरान वे मेरी रिपोर्टिंग के बारे में अक्सर राय दिया करते थे। मुझे अच्छी तरह याद है कि एक बार मजाज पर लिखे मेरे आलेख पर उन्होंने यह कहते हुए नाराजगी जाहिर की थी कि मजाज पर इतना ही काफी नहीं है! और जब वे ऐसा कह रहे थे मैंने महसूस किया कि मजाज के प्रति उनके मन में कितना स्नेह और सम्मान है। उनके मित्र बताते हैं कि लम्बे समय तक उनके व्यक्तित्व में एक आवारापन रहा, जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरने का आवारापन। मजाज की तरह वे भी अल्पायु हुए। कोई भी नहीं जानता था कि वे मजाज की इन पंक्तियों को भी भीतर ही भीतर कहीं गुनगुना रहे थे-‘जिन्दगी साज दे रही है मुझे, सहरो-एजाज दे रही है मुझे, और बहुत दूर आसमानों से, मौत आवाज दे रही है मुझे..!’
(पत्रकार आलोक पराड़कर की फेसबुक वाल से)