Sanjay Kumar Singh : सीबीआई जज बीएच लोया की मौत के मामले की स्वतंत्र जांच कराने की याचिका पर जब सुनवाई हो रही है तो क्या भारतीय जनता पार्टी का यह नैतिक दायित्व नहीं है कि वह अपने अध्यक्ष अमित शाह से इस्तीफा मांग ले। जैसा कि कहा जाता है न्याय होना ही नहीं चाहिए, होता हुआ दिखना भी चाहिए। इसी तरह जनता की सेवा का दावा करने वाली पार्टी को क्या न्यूनतम आदर्शों का पालन नहीं करना चाहिए उसपर अमल करते हुए नजर भी आना चाहिए।
मंत्री होना और सरकारी नौकरी में रहना एक बात है और सत्तारूढ़ राजनीतिक दल का अध्यक्ष होना बिल्कुल अलग बात है। पूर्व भाजपा अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण खुफिया कैमरे में एक फर्जी हथियार डीलर से पैसे लेते पकड़े गए थे तो उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था। अबके अध्यक्ष पर हत्या कराने के आरोप हैं, गवाहों को डराने-धमकाने के परिस्थिति जन्य साक्ष्य हैं और सुप्रीम कोर्ट के पांच वरिष्ठतम जजों में से चार ने तकरीबन इसी मामले में ऐसी कार्रवाई की जो देश में अभी तक अनूठा और अकेला है।
दूसरी ओर अमित शाह से संबंधित मामले में राहत देने वाले जज को रिटायरमेंट के बाद राज्यपाल बनाने से लेकर जज लोया से पहले के आदेश और बाद की स्थितियां तथा इतना बड़ा बवाल होने के बाद जज लोया के बेटे का प्रेस कांफ्रेंस कर कहना कि उसे हत्या के मामले में कोई शक नहीं है अमित शाह की ताकत भी बताता है। यही नहीं, जज लोया के बेटे ने पहले भी बांबे हाईकोर्ट में यह बात कही थी फिर प्रेस कांफ्रेंस की जरूरत और उसका समय बहुत कुछ कहता है।
इस मामले में कारवां की खबर जज लोया की बहन और पिता के बयान पर आधारित है। उनकी सुरक्षा का भी सवाल है। इन सारी परिस्थितियों में अगर अमित शाह का कानूनन इस्तीफा देना जरूरी न हो तो क्या नैतिकता का तकाजा नहीं है कि वे स्वयं इस्तीफा दें। और अगर नहीं देते हैं तो क्या पार्टी को पार्टी के आम कार्यकर्ता को यह मांग नहीं करना चाहिए कि निष्पक्ष और बाहरी प्रभाव तथा गवाहों की सुरक्षा के लिए उनका सत्तारूढ़ दल के अध्यक्ष पद से अलग होना जरूरी है।
अमित शाह का अध्यक्ष बने रहना इस समय उनके लिए महत्वपूर्ण हो सकता है। पार्टी के लिए नहीं है। दूसरी तरफ अगर पार्टी कानून और देश की न्याय व्यवस्था पर विश्वास करती है तो उसे चाहिए कि वह अपने अध्यक्ष को अपने ऊपर लगे आरोपों से मुक्त होने के लिए कहे।
वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार सिंह की एफबी वॉल से.