पांच राज्यों में विधान सभा चुनाव की खबर वैसे तो सभी अखबारों में है। इंडियन एक्सप्रेस, टाइम्स ऑफ इंडिया, हिन्दुस्तान टाइम्स सबमें यह पहले पेज पर प्रमुखता से है। पर जो बात कोलकाता के ‘द टेलीग्राफ’ के शीर्षक में है वह किसी और में नहीं है। इस खबर के साथ खास बात यह रही, और शायद पहली बार, कि प्रेस कांफ्रेंस का समय बदला गया। वैसे तो यह सूचना भी अखबारों में है ही और सोशल मीडिया पर कल से ही है। पर प्रस्तुति की बात करें तो टेलीग्राफ हमेशा बाजी मार ले जाता है। सूचना तो कल मिल गई थी – पर आज अखबार में कुछ नया अनोखा न हो तो अखबार किसलिए खरीदा जाए?
खबर तो यह भी है कि बलात्कार के एक मामले के बाद गुजरात में ऐसा माहौल बन गया है कि हजारों की संख्या में बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के लोग गुजरात छोड़ रहे हैं। इंडियन एक्सप्रेस में पहले पेज पर प्रकाशित फोटो या अखबार में खबर देखें। यह अजीब स्थिति बन रही है और कोशिश होनी चाहिए कि किसी एक की गलती के लिए उस जाति, धर्म या राज्य के लोगों पर गुस्सा न निकाला जाए पर यहां तो हिन्दी भाषियों पर ही संकट आया लगता है। अगर गुजरात से हिन्दी भाषियों को भगा दिया जाए या भागने को मजबूर किया जाए तो कल को दूसरे राज्यों, दूसरी भाषा बोलने वालों को भी भागना पड़ सकता है और यही हाल रहा तो “एक देश, एक जीएसटी” ही रहेगा।
भारत के लोग गुजराती, बिहारी और मराठी में बंट जाएंगे। कहने की जरूरत नहीं है कि यह पहले भी होता था पर अब कुछ ज्यादा हो रहा है और अब जब कई हिन्दी भाषी राज्यों में चुनाव की घोषणा हो गई है तो इस पलायन के राजनीतिक मायने भी हैं। इसपर नजर रखने का काम किसका है? सूचना देने का काम तो मीडिया का है ही। पर लाभ हानि का उसका अपना गणित है। मुझे लगता है कि सोशल मीडिया के जमाने में किसी खबर को पूरी तरह गायब कर देना तो संभव नहीं है पर उसकी प्रस्तुति उसे हल्का और गंभीर बना सकती है और यह काम मीडिया बखूबी कर रहा है। समझने वाले समझ भी रहे हैं पर ज्यादातर लोग नहीं समझ रहे हैं।
अब कल की ही घटना को टेलीग्राफ ने एक तरह से छापा है और नवोदय टाइम्स ने इस पर चुनाव आयुक्त की इस टिप्पणी को प्रमुखता से छापा है जिसमें असल में कुछ नहीं है। पत्रकारिता का सिद्धांत है कि जिसके खिलाफ खबर हो उसका भी पक्ष लिया जाना चाहिए। पर वह कब लिया जाता है और कब नहीं, किससे लिया जाता है और किससे नहीं, यह समझना आम पाठक के वश का नहीं है और खेल यहीं होता है। कई बार गलती से, अनजाने में और कभी-कभी जानबूझकर। राज्यों में चुनाव की घोषणा को नवोदय टाइम्स ने, “महासंग्राम से पहले महादंगल” शीर्षक से छापा है और दूसरा शीर्षक है, पांच राज्यों में चुनाव की तिथि घोषित सभी परिणाम 11 दिसंबर को। इस खबर के साथ एक बॉक्स है, 12 की बजाय तीन बजे हुई तिथियों की घोषणा। इसके साथ एक छोटा बॉक्स है, कांग्रेस ने उठाए सवाल; रावत बोले – नेताओं को हर चीज में दिखती है राजनीति।
आइए अब टेलीग्राफ में प्रकाशित घटनाक्रम और खबर देंखें। टेलीग्राफ की खबर का शीर्षक है, “पोल पैनल पॉजेज, टीम मोदी प्लेज”। व्यापक संदर्भ में इसका मतलब यही है कि चुनाव आयोग ने अपना काम रोककर टीम मोदी को अपना खेल खेलने दिया और फिर आगे बढ़ा। सच पूछिए तो कल यही हुआ और इसे शब्दों में इससे बेहतर नहीं व्यक्त किया जा सकता है। हिन्दी अखबारों में तो ऐसा प्रयोग नहीं ही होता है, अंग्रेजी में भी कम ही दिखता है जबकि ट्रेलीग्राफ अक्सर ऐसा करता है और मुझे इसीलिए पसंद है। टेलीग्राफ की यह खासियत शुरू से है और 30 साल से तो मैं देख ही रहा हूं। इस बीच दूसरे अखबार संपादक बदलने से ही रंग बदलने लगते हैं।
टेलीग्राफ की इस लीड खबर के शीर्षक के साथ-साथ खबर के बीच में लगा बॉक्स भी प्रशंसनीय है। इस बॉक्स का शीर्षक है, “टाइलाइन स्पीक्स फॉर इटसेल्फ” (टाइमलाइन अपनी बात खुद कहती है)। इसमें बताया गया है कि सबरे पौन दस बजे चुनाव आयोग ने पत्रकारों को सूचना दी कि 12:30 बजे प्रेस कांफ्रेंस है। 10:46 पर चुनाव आयोग समय बदल देता है। 10:59 पर कांग्रेस बताती है कि प्रधानमंत्री चुनाव वाले राज्य राजस्थान में एक बजे रैली करने वाले हैं। 1 से 2:30 बजे तक प्रधानमंत्री और राजस्थान की मुख्यमंत्री अजमेर में रेली को संबोधित करते हैं। मुख्यमंत्री किसानों के लिए मुफ्त बिजली की योजना की घोषणा करती हैं। दोपहर बाद 3:00 बजे चुनाव आयोग चुनाव की तारीखों की घोषणा करता है। चुनाव आचार संहिता लागू हो जाती है।
अंग्रेजी अखबार, टेलीग्राफ ने अपनी खबर में लिखा है, चुनाव आचार संहिता ऐसी घोषणाएं करने से रोकती है जिसे मतदाताओं को लुभाना माना जा सकता है और इसकी शुरुआत चुनाव आयोग द्वारा तारीखों की घोषणा करते ही हो जाती है। हिन्दी वाले अपने पाठकों को इसकी याद दिलाना जरूरी नहीं समझते। टेलीग्राफ ने इस खबर के साथ और अलग भी, चुनाव आयोग के स्पष्टीकरण उसपर टिप्पणी और प्रतिक्रिया आदि को प्रकाशित किया है जो किसी भी दैनिक अखबार में अलग तरह की चीज है और ना सोशल मीडिया पर एक साथ उपलब्ध है ना टेलीविजन चैनलों के लिए। इसलिए टेलीग्राफ अब भी पढ़ने लायक होता है।
वरिष्ठ पत्रकार और अनुवादक संजय कुमार सिंह की रिपोर्ट। संपर्क : [email protected]