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सुख-दुख

अतीक की असली कहानी (5) : बदलते समय के साथ बदल रहे समाज को भांप न पाए, अशिक्षित होने के कारण अपनी अकड़ में लगातार गलती करते गए!

मोहम्मद ज़ाहिद-

ऐसा भी कहा जाता है कि मदरसा कांड इसलिए अंजाम दिया गया क्योंकि अतीक अहमद के ड्रीम प्रोजेक्ट अलीना सिटी और अहमद सिटी को जोड़ने के लिए जो रास्ता था मदरसा उसके बीच में आ रहा था।

मदरसे की नाबालिग बच्चियों के साथ बलात्कार मदरसा प्रबंधकों को सबक सिखाने और डराने के लिए किया गया जिससे वह मदरसे को कहीं और‌ शिफ्ट कर दें।

खैर , यह सब लोगों के बीच बना परसेप्शन है। सच जांच में ही कहीं खो गया।

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अतीक अहमद और अशरफ राजूपाल हत्याकांड में गिरफ्तार हो चुके थे और 2009 के लोकसभा चुनावों के पहले तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती से अपने संबंधों को सुधारने के लिए समाजवादी पार्टी के‌ व्हिप का उल्लंघन करके 22 जुलाई, 2008 को तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह की ओर से पेश किए गए विश्वास प्रस्ताव के ख़िलाफ़ अतीक अहमद ने वोटिंग की थी। संसद में वोटिंग के लिए अतीक अहमद को विशेष रूप से जेल से संसद लाने की व्यवस्था की गई।

मगर तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती नहीं पसीजीं हालांकि इससे अतीक अहमद के संबंध समाजवादी पार्टी से ज़रूर खराब हो गये। राजू पाल हत्याकांड और मदरसा कांड की बदनामी सर पर ढो रहे अतीक अहमद से समाजवादी पार्टी भी किनारा करने लगी।

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मदरसा कांड के बाद अतीक अहमद और उनके परिवार का कोई भी सदस्य कभी कोई चुनाव नहीं जीता और खुद अतीक अहमद जो लगातार 6 चुनाव जीते हों वह मदरसा कांड के बाद लगातार 4 चुनाव हार गए।

अतीक अहमद ललितपुर की जेल में बंद थे और 2009 का लोकसभा चुनाव आ गया , फूलपुर लोकसभा क्षेत्र से समाजवादी पार्टी के सांसद रहे अतीक अहमद फिर से अपना दल में शामिल हो गए और इस बार वह ललितपुर जेल से ही प्रतापगढ़ लोकसभा क्षेत्र में किस्मत आजमाने के लिए उतरे मगर वहां वह चौथे स्थान पर रहे।

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फिर आ गया उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव 2012 और अतीक अहमद अपनी परंपरागत सीट इलाहाबाद शहर पश्चिमी से विधानसभा का चुनाव अपना दल से लड़े मगर अपनी जिस अजेय सीट पर वह 5 बार लगातार शान से जीतते रहें पर वहां से भी वह राजू पाल की विधवा पूजा पाल के मुकाबले 8885 वोटों से हार गए।

यह उनके विधानसभा क्षेत्र का परिसीमन और मदरसा कांड का असर था , कभी उनके लिए दिवाने रहने वाले मुसलमान उन्हें वोट देने ही नहीं गये।

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2012 में उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की सरकार बनी और अतीक अहमद ज़मानत पर छूट कर जेल से बाहर आ गए।

मगर उनके ऊपर मदरसा कांड का इतना बड़ा कलंक लग चुका था कि वह सार्वजनिक जीवन में कम ही दिखाई देते। उनके पड़ोसियों के अनुसार वह चकिया के अपने घर में अपने बच्चों के साथ ही ज़्यादातर रहते‌।

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अतीक अहमद कई मौकों पर अपने अनपढ़ होने की बात कर चुके थे , अपने पढ़े‌ लिखे ना होने के कारण तमाम जगहों पर अपमानित होने की बात भी सार्वजनिक रूप से बोल चुके थे।

अपने बेटों को वह पढ़ाना चाहते थे , उन्होंने सभी को इलाहाबाद के प्रतिष्ठित इंग्लिश मीडियम के स्कूल कालेज में पढ़ाया मगर नियति को कुछ और ही मंजूर था।

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अतीक अहमद फिर समाजवादी पार्टी से श्रावस्ती से 2014 का चुनाव लड़े जहां से उन्हें फिर हार मिली।

2017 के पहले तक अतीक अहमद और तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के संबंध बहुत मधुर नहीं रहे और कौशांबी में हुई एक सभा में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अतीक अहमद को सार्वजनिक रूप से धक्का देकर किनारे कर दिया।

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अतीक अहमद की जो ट्युनिंग मुलायम सिंह यादव से थी उसके उलट अखिलेश यादव से वह रिश्ते नहीं रहे। संभवतः इसका कारण बाहुबलियों से संबंधों को लेकर भाजपा द्वारा अखिलेश यादव पर आक्रमण था जिसके कारण अखिलेश यादव बचाव की ही मुद्रा में रहे।

हालांकि उनके पिता मुलायम सिंह यादव ने इन्हीं बाहुबलियों के सहारे राजनीति की और समाजवादी पार्टी खड़ी की जिसमें अतीक अहमद प्रमुख थे।

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दरअसल अतीक अहमद बदलते समाज और वातावरण को कभी भांप नहीं पाए और अपनी अकड़ या अपने अशिक्षित होने के कारण लगातार गलती करते चले गए।

2017 के विधानसभा चुनाव के पूर्व दो घटनाएं हुईं।

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पहली यह कि कानपुर कैंट से समाजवादी पार्टी ने अतीक अहमद की उम्मीदवारी घोषित की मगर भारी दबाव में अखिलेश यादव को अतीक अहमद का टिकट वापस लेना पड़ा।

और दूसरे यह कि इलाहाबाद के नैनी स्थित सैम सिंगिंगबाटम युनिवर्सिटी में उनके सिफारिश करने के बावजूद मैनेजमेंट ने किसी का एडमिशन करने से मना कर दिया तो अतीक अहमद घर से गुस्से में सीधे युनिवर्सिटी के वाइसचांसलर के आफिस में जाकर मारपीट की।

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सारी घटनाएं सीसीटीवी फुटेज में आईं जिसे लेकर प्रबंधन इसके खिलाफ इलाहाबाद उच्च न्यायालय चला गया और तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डीबी भोंसले और न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा ने अतीक अहमद की सारी ज़मानत रद्द करके गिरफ्तार करने का आदेश दिया।

2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत हुई और योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बने और उन्होंने अतीक अहमद, मुख्तार अंसारी और आज़म खान के खिलाफ कार्रवाई को अपनी सरकार के प्रमुख एजेंडे में रखा।

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अतीक अहमद तब से अपने जीवन के अंत तक जेल में ही रहे , हालांकि फूलपुर के तत्कालीन सांसद केशव प्रसाद मौर्य के उपमुख्यमंत्री पद ग्रहण करने के बाद दिए इस्तीफे के बाद 2018 में हुए उपचुनाव में अतीक अहमद देवरिया जेल से ही निर्दलीय उम्मीदवार थे।

यहां से भी उन्हें हार का सामना करना पड़ा।

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उसके बाद जो कुछ हुआ सब आप सभी को पता है , पुलिस की जांच जारी है और इस संबंध में कुछ भी कहना उचित नहीं। जांच के बाद मामला अदालत में जाएगा , न्यायालय के आदेश के बाद ही कुछ कहना उचित होगा।

मगर जहां इसी उत्तर प्रदेश के आधे से अधिक विधायक दाग़ी हैं , जिन पर गंभीर अपराध के तमाम मुकदमे दर्ज हैं, सांसदों का भी यही हाल है। बिहार में गोपालगंज जिले के जिलाधिकारी की हत्या करने के कारण आजीवन कैद के सजायाफ्ता हत्यारे आनंद मोहन सिंह को 16 साल कैद के बाद रिहा किया जा रहा है।

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वहीं अतीक अहमद की जब हत्या हुई तब वह 61 वर्ष के थे और इस 61 वर्ष में वह लगभग 20 साल जेल में ही रह चुके थे , वह परिस्थितियों को भांपने में असफल रहे। अपने भाई अशरफ को नियंत्रित ना कर सके, खुद को बदल‌ नहीं सके और अपराध पर अपराध करते चले गए, तब कि जबकि परिस्थितियां उनके प्रतिकूल थीं।

आज के समय में जहां हर फोन में रिकार्डर हो , वहां उनपर ऐसे आरोप लगें कि फोन करके किसी को जेल से ही घमकी देना ,जहां हर जगह सीसीटीवी हो वहां उनपर ऐसे आरोप लगें कि जेल में बुला कर किसी के साथ मारपीट करना ,उन पर ऐसे आरोप लगें कि बेटे असद द्वारा सीसीटीवी कैमरे के सामने उमेश पाल की हत्या कराना, बेवकूफी भरा काम ही था जो यदि सच है तो अतीक अहमद अपने स्वभाव के कारण लगातार गलती करते चले गए। यह भी समझ नहीं पाए कि उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार है जो अपराध और अपराधी को लेकर बेहद सख्त है।

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परिणाम सामने है‌। सबकुछ खत्म हो गया, मिट्टी में मिल गये।

मगर अतीक अहमद जिस सांप्रदायिकता से जीवन भर लड़ते रहे लगता है कि उसी की बेदी पर कत्ल कर दिए गए। उनके सभी विश्वसनीय लोग हिंदू थे। अतीक़ अहमद की लीगल टीम में सभी ब्राह्मण ही थे। वो चाहे दयाशंकर मिश्रा हों या राधेश्याम पांडे। इसके अलावा सतीश त्रिवेदी, हिमांशु जी और विजय मिश्र। अतीक़ अहमद के अकाउंटेंट सीताराम शुक्ला भी ब्राह्मण ही थे। अतीक़ अहमद के साथ हिंदू ज़्यादा रहे हैं और उनके हिंदू विश्वासपात्रों की संख्या बड़ी संख्या में रही है।

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बाकी जिनकी उन्होंने मदद की वह उनके लिए मददगार थे , जिन पर ज़ुल्म किया उनके लिए वह ज़ालिम थे।

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डिस्क्लेमर:- इस सीरिज के सभी तथ्य और बातें अतीक अहमद के विधानसभा क्षेत्र शहर पश्चिमी में पब्लिक डोमेन और विभिन्न मीडिया रिपोर्ट से लेकर संकलित किए गए हैं।

समाप्त

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लेखक मोहम्मद ज़ाहिद इलाहाबाद के सामाजिक कार्यकर्ता हैं। उनसे संपर्क [email protected] के ज़रिए किया जा सकता है।

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1 Comment

1 Comment

  1. मित्रसेन सिंह

    May 2, 2023 at 11:35 pm

    अद्भुत लिखा है ज़ाहिद जी ने, ऐसा लग रहा है जैसे आँखों के सामने सब कुछ हो रहा हो। आपके लिखे कुछ लेखों का मैं बहुत कटु आलोचक रह चूका हूँ , पर यह सच है कि अब इस तरह की किस्सागोई कम मिलती है। कम इसलिए कि इस तरह के जीवंत चरित्रों पर लिखना मतलब घटिया यूट्यूब चैनलों से अपनी रेस कराना। पढ़ना लिखना तो आज कल पत्रकार भी नहीं करते तो फिर आमफ़हम दिमाग से क्या उम्मीद रखना।
    दूसरा कटु सत्य यह भी है कि तहज़ीब के मामले में इस भयानक गंदे समय में कुछ भी निष्प्रेक्ष्य नहीं लिखा जा सकता, लेकिन आपने बाक़माल सब किया। आपको सुधारने का कोई इरादा नहीं है, पर चूँकि बातें पब्लिक डोमेन की हैं तो दो बातें पूछना चाहूंगा : राजू पाल बमुश्किल ५ महीने विधायक रहा, क्या ही चैलेंज किया होगा अतीक को। हाँ दुर्दांत वो भी था तो दुश्मनी तो निकल आती है। दूसरा मदरसा कांड में लोग सीधे सीधे अशरफ का शामिल होना बताते हैं। कितना सच है ये सब?

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