मनोज श्रीवास्तव के साथ गाजीपुर में अजित वडनेरकर
हमारे प्रिय मनोज जी का आज जन्म दिन है। 15 अक्तूबर 1963 की तारीख ही उनके दस्तावेज़ों में लिखी है। मित्रगण उनकी याद को स्थायी और सार्थक बनाने के लिए सोच रहे हैं। हम भी चाहते हैं। इल्तिज़ा यही है कि ठोस योजना बनाएँगे, चाहे वक्त लगे।
अलमस्त मिज़ाज पाया था। पिछले दिनों में पढ़ने की ललक खूब बढ़ी थी। राजेन्द्र माथुर को भूलती जा रही पत्रकारिता पर बतियाते हुए हम उनके नेहरूवादी रूमान की चर्चा करते हुए अक्सर हाथ मिला लेते थे। हाल ही में उन्होंने बाशम की किताब भी खऱीदी थी जिसकी चर्चा माथुर साब के लेखन में अनेक बार आती है। कोई भी नया पत्रकार अगर किसी साहित्यकार का नाम भर लेता तो वे उसके बारे में अच्छी राय बना लेते थे।
उनकी आखिरी तस्वीरें हमारे ही कैमरे से खींची गई थी जिसके लिए हमें फोटोग्राफर की तरह कहना पड़ा था “स्माइल प्लीज” !!! 24 सितम्बर को मैं गाजीपुर के दौरे पर था। अक्सर इस तरह के मौकों पर मनोज जी मेरे साथ होते थे। हम ने ज़रूरी काम निपटाए और फिर वापसी से पहले लॉर्ड कार्नवालिस के मकबरे पर जा पहुँचे।
उपकरणों से मनोज जी का दोस्ताना नहीं था। अब आईटी के दौर वाले आज के गैजेट्स! उन्हें मोबाइल भी पुराना ही पसंद था। मूलतः उन्हें मशीन से ही चिढ़ थी। कार होते हुए भी कार सीखने की सहज ललक कभी उन्होंने नहीं दिखाई। इसी तरह उनकी हर खबर फाईल होने के बाद उनके लैपटॉप में गुम हो जाती थी जिसे बड़ी जद्दोजहद के बाद आईटी वाले आकर बरामद करते थे।
यह जिक्र इसलिए कि उन्हें जब कभी तस्वीर खींचने के लिए मोबाईल पकड़ाया, हमेशा सिवाय उनकी अपनी उंगलियों के, जो लैंस के सामने से वे हटाना भूल जाते थे, कभी और कुछ कैप्चर नहीं हुआ। कार्नवालिस के मकबरे पर कई बार आगाह करने के बाद वे पहली बार दो तस्वीरें ले पाए जिसमें उनकी उंगलियाँ नहीं, कोई मनुष्य नजर आ रहा था। ऐसे ही थे मनोज जी।
अमर उजाला, वाराणसी के संपादक अजित वडनेरकर के फेसबुक वाल राग भोपाली से साभार.
puneet srivastava
November 2, 2014 at 9:17 am
we never forget him……