डॉ अमिता नीरव-
कार्ल मार्क्स की रेंज हमेशा चकित करती है। किसी भी चीज पर सोचो, उसके आखिरी सिरे पर वे अपने निष्कर्षों के साथ खड़े मिलते हैं।
बात थोड़ी पुरानी है। एक पत्रिका में मेरी एक कहानी छपी थी। कहानी एकदम सादी थी, पति-पत्नी और एक बेटे का एक सुखी औऱ संतुष्ट परिवार है। पति-पत्नी दोनों कामकाजी हैं। दोनों के ही जीवन में व्यस्तता रहती है।
एक शनिवार की रात जबकि पति टूर पर गया होता है और बच्चा थककर सो चुका होता है, पत्नी को सोचने का अवकाश रहता है। अपनी व्यस्तता औऱ उसमें जीवन की छोटी, नाजुक, मासूम चीजों के छूटते चले जाने का अफसोस औऱ दुख उभरता है। बस, इतनी ही कहानी थी।
उसी कहानी के सिलसिले में मुझे एक मशहूर शायर, टीवी सीरियल औऱ फिल्म लेखक का फोन आया था। जैसा कि होता है, कोई भी पाठक आपको तभी फोन करता है जब उसे कहानी पसंद आती है। तो उन्होंने कहानी की भाषा और कहने के तरीके की तारीफ की, लेकिन उनकी जिस बात ने मुझे बहुत चौंकाया वह एकदम अलग थी।
कहानी के सिलसिले में उन्होंने कहा कि, ‘पूँजीवादी व्यवस्था ऐसे ही इंसान से उसकी रचनात्मकता और सोचने-महसूस करने की क्षमता छीन लेती है।’
वे घनघोर कम्युनिस्ट हैं, कई बार अलग-अलग मौकों पर हमारी बहुत लंबी और तीखी बहसें हुई हैं, इतनी कि गुस्से में फोन तक कट कर दिए और महीनों फिर बात नहीं की। इसलिए कहानी की उनकी साम्यवादी व्याख्या ने जहाँ एक तरफ मुझे चौंकाया, वहीं उस व्याख्या ने मुझे हँसने को भी मजबूर कर दिया था।
बाद के वक्त में यूनिवर्सिटी में पढ़ी मार्क्स की एलिएनेशन थ्योरी को उनकी टिप्पणी के संदर्भ में याद किया तो फिर से लगा कि मार्क्स के बिना, उनके सिवा अपना कोई आश्रय नहीं है।
एलिएनेशन थ्योरी के तहत मार्क्स कहते हैं कि उत्पादन की पूँजीवादी पद्धति मजदूरों से इतना औऱ इतने वक्त तक काम करवाती है कि वह अपने जीवन, अपने काम, अपने उत्पाद, अपने रिश्ते, भविष्य औऱ अंततः खुद पर विचार करने का औऱ सृजन करने का समय भी नहीं जुटा पाता है। इसकी परिणिति होती है मजदूर के चौतरफा अलगाव में।
वह अपने काम, अपने रिश्तों, अपने परिवेश औऱ अंततः खुद से भी अलगाव का अनुभव करने लगता है और फिर वह उस पूँजीवादी पद्धति का पुर्जा बन जाता है, जिसमें उसके सोचने, कहने, विचार करने और रचने की न तो गुंजाइश है और न ही जरूरत।
बहुत सारे मौकों पर, या यूँ कहूँ कि व्यस्तता भरे दिनों में हमेशा ही समय का अभाव खीझ से भर देता है। ऑफिस में बढ़े हुए काम के घंटे हमें दुनिया-जहान की जानकारियों से काट कर तो रखते ही हैं, हमारी रचनात्मकता और कल्पनाशीलता का समय भी छीन लेती हैं।
पिछले साल डिपार्टमेंट के साथी के काम छोड़ दिए जाने की वजह से एकाएक काम का दबाव बहुत बढ़ गया था। दफ्तर में काम का दबाव होने का असर निजी जिंदगी पर पड़ने लगा था। पढ़ना, लिखना, सोचना छूटने लगा था और अजीब चिड़चिड़ाहट स्वभाव में घर करने लगी थी। स्वास्थ्य पर असर पड़ रहा था, वो अलग।
उस पूरे वक्त में लगातार लगने लगा था कि बस हो गया। जीने की कोई वजह बची नहीं है, क्योंकि न कुछ पढ़ना है, न जानना, न कुछ सीखना है और न ही कुछ और करने की गुंजाइश ही बची थी। हम मार्क्स की मनोवैज्ञानिक थ्योरी को न भी जाने/समझें, फिर भी यह मोटी बात हमें समझ आने लगती है कि पूँजीपतियों की लाभ कमाने की हवस के चलते कर्मचारियों की जिंदगियों से विचार, रचनात्मकता और रस गायब होता जा रहा है।
यह सही है कि इस वक्त प्रोफेशनल्स को कंपनियाँ बहुत पैसा दे रही हैं, लेकिन बात वहीं आकर ठहर जाती है कि क्या वो पैसा उनसे उनकी रचनात्मकता और विचारशीलता नहीं छीन रहा है औऱ यह भी कि क्या उस कीमत के एवज में इन चीजों का सौदा बहुत महँगा नहीं है?
यहाँ यह याद रखने की जरूरत है कि पैसे के एवज में वे प्रोफेशनल्स को एक तरह से बंधक बना रहे हैं। आप कुछ जान, सोच नहीं पाएँगे तो आप न तो अपनी परिस्थिति के प्रति जागरूक रहेंगे औऱ न ही दूसरों की। आप समाज की स्थितियों को लेकर अनजान रहेंगे तो व्यवस्था के लिए बहुत निरापद रहेंगे। वह आपका जितना औऱ जैसे चाहे इस्तेमाल कर सकती है।
दुनिया जहान से काटकर अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करती व्यवस्था आपको अपने लिए जरा भी नहीं छोड़ती है। असल में तभी तो आप उसके लिए उपयोगी हो सकते हैं। यदि आप जानेंगे तो आप सवाल करने लगेंगे औऱ सवाल होते ही व्यवस्था पर संकट आने लगेंगे। दूसरे आपकी रचनात्मकता संक्रामक होकर दूसरों को भी सोचने पर मजबूर कर सकती है। यदि आप सोचेंगे नही, रचेंगे नहीं तो आप व्यवस्था के लिए निरापद बने रहेंगे। इस तरह से आप न सिर्फ व्यवस्था के लिए उपयोगी होंगे बल्कि उत्पादक भी होंगे। साथ ही पूँजीवादियों के मुनाफे को बढ़ाने वाले यंत्र भी…।
अजीब बात यह है कि व्यवस्था हमें अपनी जरूरत औऱ उपयोग के हिसाब से ट्रैंड और टोन्ड करती है औऱ हमारा तब तक इस्तेमाल करती है, जब तक कि हम उसके लिए उपयोगी होते हैं। जैसे ही हम उसके लिए अनुपयोगी होते हैं, चाहे शारीरिक, मानसिक अवस्था से या फिर बौद्धिक अवस्था से, वह हमें अपनी मशीन से बाहर कर देती है। इससे ज्यादा आश्चर्य यह है कि हम उसके उपयोग के इतने आदी हो जाते हैं कि जैसे ही हम उसके लिए अनुपयोगी हुए हम खुद को अनुपयोगी मानने लगते हैं।
ये सारा खेल ही हमें दुनिया से काटकर रखने के लिए रचा गया है। खुद को जब भी गौर से देखेंगे, पाएंगे कि थोड़ा अवकाश मिलते ही हम सोचने लगते हैं। हमें समस्याएं दिखती है, अभाव, विसंगतियां, विद्रूप नजर आने लगते हैं।
बस इसी सोचने – देखने से व्यवस्था हमें बचाए रखना चाहती है। ये हमारा स्पेस है, जिसे कृत्रिम उपायों से भरे जाने की कोशिशें की जाती है। क्योंकि इसी से व्यवस्था का अस्तित्व खतरे में जाने की आशंका बनी रहती है।
इसी स्पेस के लिए हमें सजग रहना होगा। यही हमें लड़ना सिखाएगा, यही हममें इंसान होने और हो पाने की जरूरत, शिद्दत और शऊर पैदा करेगा। इसी को बचाने की लड़ाई हमें लड़नी पड़ेगी।
आदित्य
August 2, 2021 at 1:06 pm
मार्क्स से गुफ्तगू करते हुए अकसर ये प्रश्न आता रहता है मन में कि अगला कदम क्या हो।
लेख का शीर्षक है ‘ऑफिस मे बहुत ज्यादा काम करने वाले इसे जरूर पढ़ें’,
समस्या यहां भी है। यह शीर्षक केवल एक ही पहलू से काम को देख रहा है।
बल्कि मार्क्स की तरह सोचने का मतलब ही है दुनिया को हर लेंस से समझने कि कोशिश करना।
जो मजदूर ऑफिस में देर तक काम कर रहा है उस मजदूर के काम करने के कारण कई सारे हैं। केवल पूंजीवादी व्यवस्था का खून चूस कारण नही।
केवल अलवाग वाद के विचार को सामने ला देने से कुछ बात आगे नहीं बढ़ती। मार्क्स के विचार के समरी तक रह जाती है।
लेखन इसपर जरूरी है कि कैसे वार्कस्पेस को मानवतावादी बनाया जाए।
कई बार जीवन में केवल दो ऑप्शन होते हैं: आपमें से कुछ लोगों ने इस दुविधा को महसूस भी किया होगा।
एक तरह होती है निरंकुशता/टीरेनी, और दूसरी तरफ होती है भुखमरी/कठिन संघर्ष। क्या हम साहस के साथ दूसरे ऑप्शन को चुनते हैं?
वर्कस्पेस को मानवतावादी बनाने के लिए कई बार सब कुछ दांव पर लगाना पड़ता है।
एक और समस्या है विशफुल थिंकिग की। क्रांति, पूंजीवाद के अंत का विचार एक विशफुल थिंकिंग की तरह भी है। व्यवहार में हम अपने छोटे से दायरे में मौजूद वार्कस्पेस, घर, दोस्ती, निजी या प्रेम संबंधों को किस हद तक, मानवतावादी या साम्यवादी बना पाए?
यह सब सुधारना इसलिए जरूरी है क्योंकि उस वर्कर का वजूद केवल पूंजीवाद से नहीं बल्कि उसके अस्तित्व में चल रहे कई जद्दोजहदो से उभर रहा है।
देर तक काम करके कई लोग अपनी जिंदगी को वापस खड़ा कर रहे हैं और पूंजीवादी व्यवस्था, ताज्जुब होता है, परंतु, स्पेस दे रही है रचनात्मक होने का भी और जीने का।
शायद हमे मार्क्स की थियरी से आगे बढ़कर, मार्क्स की तरह नए सिरे से सोचने की जरूरत कहीं अधिक है।