बरखा दत्त ने अरनब गोस्वामी पर फिर हमला बोला है। एक लेख में बरखा ने लिखा कि अरनब उन्हें डरा न पाएंगे। उन्होंने अपनी फेसबुक पोस्ट का जिक्र करते हुए कहा कि कई लोगों ने इस पर सवाल उठाए। कई लोगों ने जानना चाहा कि मैंने ऐसा क्यों कहा। कई लोगों ने साहस दिखाते हुए समर्थन दिया। वहीं ऐसे भी लोग थे जो जिन्होंने निराशाजनक रूप से चुप्पी ओढ़ ली। बरखा ने लिखा, ”ईमानदारी और आजादी से रिपोर्ट करना हमारा संवैधानिक अधिकार है। इस दौरान यह भी ध्यान रखता होता है कि न तो हम भारतीय सेना के दुश्मन समझे जाएं और न आतंक के समर्थक। भारत के मीडिया इतिहास में यह अभूतपूर्व समय है जब एक बड़ा पत्रकार सरकार से कह रहा है कि अन्य पत्रकारों को उनकी कश्मीर पर अलग-अलग दृष्टिकोण से की गई रिपोर्टिंग के लिए ट्रायल चलाया जाए।”
बरखा ने अरनब पर आरोप लगाया कि उन्होंने अपने शो में गलत जानकारी दी और निर्लज्ज पाखंड दिखाया। उन्होंने लिखा, ”उन्होंने हमें इस तरह से पेश किया जैसे हम बुरहान वानी के मारे जाने की माफी मांग रहे हैं। उन्होंने हमें सेना के साथ युद्धरत के रूप में भी पेश किया। जो कि झूठ और मक्कारी भरा है।” बरखा ने कहा कि कश्मीर में हिंसा प्रदर्शनकारियों और पुलिस व अर्धसैनिक बलों के बीच हुई। इसमें सेना कहां से बीच में आ गई। सभी तरह की बातों को सामने लाना पत्रकार का कर्त्तव्य है। बरखा ने हमला बोलते हुए लिखा, ”हां, मैं उन पत्रकारों में से एक हूं जिन्होंने घाटी में आतंकवाद का इतिहास पता है। मैंने अस्पतालों से रिपोर्ट किया, जहां पर पैलेट गन से घायल लोग भर्ती थे। मैं सेना के अस्पताल भी गई जहां पुलिस और पैरामिलिट्री के जवान भर्ती थे।”
अरनब को पाखंडी बताते हुए उन्होंने लिखा, ”उन्होंने अपने शो में यह नहीं बताया कि बीजेपी-पीडीपी गठबंधन का जिक्र नहीं किया। जबकि इनका गठबंधन हुआ था तो यह तय हुआ था कि सभी लोगों से बात की जाएगी जिसमें अलगाववादी भी शामिल थे। तनाव के दौरान सरकार ने अलगाववादियों से शांति की अपील करने को कहा था। पाकिस्तान के मामले पर तो पीएम भी चुप हैं। वे उनकी आलोचना नहीं करते। गृह मंत्री राजनाथ सिंह जल्द ही पाकिस्तान जाएंगे। क्या सरकार की आलोचना करने से डर लगता है। सरकार को मीडिया पर लगाम लगाने की बात कहना आसान है।”
बरखा ने लिखा कि पिछले साल जब निर्भया गैंगरेप की डॉक्युमेंटरी बनाई गई थी तब भी गोस्वामी ने इस पर रोक लगाने की बात कही थी। इसी साल के शुरुआत में जब जेएनयू मामले के दौरान हमले के विरोध में पत्रकारों ने मार्च निकाला था तब वे और उनके साथी गायब थे। उनकी इन हरकतों में एक ही पैटर्न नजर आता है। क्या यह लोकतंत्र के लिए खतरा नहीं है। जब उनके पास कुछ नहीं होता तब वे हाफिज सईद के मेरा नाम लेने की बात उठा देते हैं। चिंता की बात यह है कि भारतीय मीडिया का एक बड़ा चेहरा सेंसरशिप की बात कर रहा है।
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devatrisha
July 31, 2016 at 1:01 pm
aranab ko neera radiya se dar lagta hai motarma