उत्तराखण्ड में हरीश रावत सरकार को ‘ढेर’ कर चुके उन्हीं की पार्टी के (तब) नौ विधायकों को अब ऐसी दोहरी वेदना से गुजरना पड़ेगा, जिसका अनुमान केवल वे ही लगा सकते हैं। एक तो भविष्य फ़िलहाल चौपट और उस पर रावत का सरकार बनाना इन लोगों के लिए ऐसी स्थिति होगी, जैसे किसी गरीब आदमी की उधार लायी भैंस मर गई और ऊपर से कर्जदार ने भैंस के पैसे न चुकाने पर मुकदमा दर्ज कर दिया।
दरअसल, षड्यंत्रकारी के सभी यन्त्र-तन्त्र-मन्त्र फेल हो जाना और उसके दुश्मन द्वारा विजय प्राप्त करना उसके लिए किसी यंत्रणा से कम नहीं होता। अपमान और पराजय एक साथ आ जाएं तो आदमी का विचलित होना स्वाभाविक है। इस स्थिति से गुजर रहे नौ विद्रोही विधायक स्वयं ही इसके लिए उत्तरदायी हैं। ‘हरक-बहुगुणा प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी’ ने भ्रष्टाचार, तानाशाही, मनमानी जैसे तीर फेंकते हुए हरीश रावत को ‘छलनी’ करने का प्रयास किया, पर ये बाण उनके लिए सफलता नहीं, निराशा लेकर आए।
कथित तौर पर हरीश रावत की पोल खोलने के लिए किये गए स्टिंग मसले पर हरीश रावत पर उंगलियां उठीं, पर हरक-बहुगुणा ग्रुप भी पवित्रता की दृष्टि से नहीं देखा गया। इसमें जनता ने अपना हित नहीं देखा, बल्कि इसे महज दो जानवरों की लड़ाई का निकृष्टम रूप ही समझा। इन नौ विद्रोहियों में अधिकांश के दामन पर आरोपों के दाग लगे होने के कारण भाजपा इनके लिए अपने गेट नहीं खोलना चाहती है। भाजपा ने इनका इस्तेमाल मात्र इतना किया, जितना कभी गाँवों में सेही(सौला) को मारने के लिए आम की गुठली का इस्तेमाल किया जाता था।
अगर दो बड़े दलों में से किसी में न रहकर ये लोग तीसरा फ्रंट या पार्टी बनाते हैं तो भी फिलहाल सफलता इनसे कोसों दूर ही रहने वाली है। अगर फिर से हरीश रावत सरकार बनती है तो इनके सामने न केवल राजनीतिक बाधाएं पैदा होंगी, बल्कि इनसें भ्रष्टाचार-अनियमितताओं जैसी जांचों के रूप में भी हिसाब चुकता किया जा सकता है। कुल मिलाकर राज्य में कांग्रेस का एक गुट विलुप्त हो जायेगा और हरीश गुट मजबूती से उभरेगा। यहां तक कि धुर विरोधी रहे हरीश-इंदिरा गुट के लोग उत्तराखण्ड के राजनीतिक संगीत में लक्ष्मीकांत-प्यारे लाल भी बन सकते हैं, क्योंकि सियासत के सिद्धांत परिस्थितियों के अनुरूप बदल जाते हैं।
बहरहाल, हरक-बहुगुणा कम्पनी के पास फ़िलहाल विकल्पों और सम्भावनाओं का भारी अकाल है। जनता में उनके प्रति सहानुभूति न थी और न है। उनके पास इस हाल में जीने के सिवा कोई चारा नहीं। वे इसे अपनी करनी मानें,भाग्य की विडम्बना समझें या राजनीति की चरित्रहीनता, यह उन पर निर्भर है।
डॉ. वीरेन्द्र बर्त्वाल
देहरादून