यशवंत सिंह-
बाबा होना एक मूक विद्रोह भी होता है, परिवार देश समाज राजनीति तंत्र सिस्टम धन तन आदि के ख़िलाफ़…
बहुत लोग इसे पलायन भी कहते हैं पर घर में सड़कर पागल हो जाने, सुसाइड कर लेने से तो अच्छा है।
इसलिए मैं इन्हें विद्रोही कहता और मानता हूँ। आदि विद्रोही। ये घुमंतू परंपरा को ज़िंदा रखे हुए हैं। ये प्रकृति से न्यूनतम लेते हैं, प्रकृति का न्यूनतम अहित करते हैं।
ये विद्रोही बहुत मुश्किल, अप्रत्याशित और असहज ज़िंदगी भी जीते हैं। पर उफ़्फ़ नहीं करते। इसे अपनी ट्रेनिंग मानते हैं। इसे ईश्वर की मर्ज़ी मान लेते हैं। वे चल अकेला का राग जपते चले जाते हैं।
ऐसे ही एक बाबा हरिद्वार में सुस्ताते दिखे, थोड़ी उदास दिखे- भोरे भोरे, तो हमने सौ का नोट थमाते हुए कहा- “महराज़ जी काहें टेंशन में दिक्खे हैं… ये लीजिए और बढ़िया पूड़ी सब्ज़ी चाय कर गंगा नहाइये!”
मुझे नहीं पता कब Umesh Srivastava जी ने फ़ोटो खींच ली। आज वाट्सअप साफ़ कर रहा था तो ये तस्वीरें दिखी।
जो न माँगे लेकिन दुखी हैरान परेशान दिखे, ऐसे लोगों को सपोर्ट करना चाहिए।
प्रकृति के प्रेम घृणा चाहना पाना के नियम में 2 प्लस 2 इज इक्वल टू 4 नहीं होता।
आप किसी को मदद देंगे, कोई आपकी मदद करेगा, ये ज़रूरी नहीं। पर कुछ न कुछ तो घटित होगा आपके अंदर बाहर।
इस रूहानी चेन को मैंने महसूस किया है और इसका हिस्सा हूँ।
मदद प्रेम समर्थन स्नेह मुस्कुराहट लुटाने के बहाने खोजिए। ज़िंदगी नेमत लिए आपका पता तलाशेगी…
भड़ास एडिटर यशवंत अब संपादकीय की तर्ज़ पर भड़ासकीय लिख रहे हैं. ये दूसरा पार्ट है!