वाराणसी : अक्सर यही होता है, बड़े शहरों, महानगरों में काम के बहाने टिके रहने के बाद जब हम अपने घर, अपनी जमीन पर अपने होने का एहसास तलाशने के लिए लौटते हैं, तो मिलने वाले हर एक के जुबान पर यही सवाल होता है, कब जायेका बा। इसी दर्द को बयां करती है, मेरी फिल्म ‘नया पता’।
बनारस फिल्म सोसाइटी द्वारा आयोजित चौथा फिल्म महोत्सव में निर्देशक पवन श्रीवास्तव की फिल्म ‘नया पता’ हमे अपना पता खोजने पर विवश कर देती है। मूल रूप से विस्थापन पर बनी इस फिल्म के बहाने पवन हमे कुछ देर के लिए रोक लेते हैं। खुद के अन्दर झांक कर जो छूट गया और छूट रहा है, उसे टटोलने पर विवश कर देते हैं। भोजपुरी में बनी ये फिल्म भोजपुरी में नया सिनेमा के दरवाजे को खोलती नजर आती है, ऐसे समय में, जब भोजपुरी फिल्मों में फूहड़पन सिर चढ़ कर बोल रहा है।
मुंबई नौकरी छोड़ फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कदम रखने वाले पवन पांच साल तक मायानगरी मुबंई में संभावनाएं तलाशते रहे। नितीन चन्द्रा जैसे निर्देशक के साथ फिल्म देशवा में काम करने वाले पवन ने ‘नया पता’ की कहानी खुद ही लिखी। जब इस पर फिल्म बनाने के लिए लोगों से बात की तो लोगों ने कहा, इस पर फिल्म नहीं बन सकती। बकौल पवन, मुझे तो फिल्म बनानी थी, मेरा मानना है कि संभावनाओं के क्षेत्र में कोई निश्चित फामूर्ला नहीं हो सकता। जब तक हम बंधे-बंधाये सूत्र को नहीं छोड़ते, कुछ नया नहीं कर सकते।
मेरा मानना है, फिल्म बनाने के लिए कैमरा-लाइट छोड़ कर सबकुछ अपना होना चाहिए। तीन साल मैं इस नये पते के लिए भटकता रहा। इसे कैमरे में कैद करता रहा। इस फिल्म को बनाने में 575 लोगों से आर्थिक मदद ली। मेरी इस फिल्म को बंगलौर, चेन्नई, लखनऊ के माल्सॅ में लोगों ने पॉपकान खाते हुए देखा और सराहा भी। गलैमर के दौर में करोड़ों में बनने वाली फिल्मों के बीच सिनेमा के इस दूसरे पहलू को लेकर पवन उत्साहित हैं। कहते हैं कि अभी तो बहुत कुछ करना बाकी है। फिल्म का गीत जब-जब बहेला पुरबी बहरिया, निमीया के छईया बुलाबे ला रामा… फिल्म के खत्म होने के बाद भी दूर तक सुनाई देती है।
‘नया पता’ भोजपुरी फिल्मों के लिए नई जमीन बनाती हुई नजर आती है। पवन फिलहाल अपनी नई फिल्म हाशिये के लोग बनाने की तैयारी कर रहे हैं। पूंजी, सत्ता और जाति व्यवस्था के गठजोड़ को बेनकाब करने वाली ये फिल्म हिन्दी में होगी।