सबसे बड़ी अदालत के फरमान ने श्रम विभाग को कितना और किस तरह सक्रिय कर दिया है, यह अब पर्दे में नहीं रह गया है। चहुंओर दिखने, नजर आने लगा है। फरमान जारी होने के बाद महीने भर तक तो सब कुछ शंकाओं-आशंकाओं-अटकलों-अनुमानों, यहां तक कि अफवाहों के गर्दो-गुबार, परतों में दबा-छिपा-ढंका था। कुछ पता ही नहीं लग रहा था, समझ ही नहीं आ रहा था कि होगा क्या? क्या माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अमल होगा? कुछ कार्रवाई-कार्यवाही होगी? प्रदेश सरकारों का तंत्र मुख्य सचिवों के निर्देश-निगरानी-देखरेख में श्रमजीवी पत्रकार कर्मचारियों एवं गैर पत्रकार कर्मचारियों के भले के लिए कुछ करेगा या नहीं? लेबर कमिश्नरों की अगुआई में नोडल अफसरों/लेबर इंस्पेक्टरों/अफसरों का कुनबा, टीम कुछ सार्थक करेगी या नहीं? या फिर यह महकमा श्रमिक हितों के चोले में उनके हितों पर हमेशा की तरह खंजर ही चलाएगा?
हफ्ता-दस दिन से चल रही उसकी सक्रियता ने फिलहाल उक्त सवालों पर विराम लगा दिया है। कमोबेश सभी प्रदेशों के श्रम विभागों एवं लेबर कमिश्नरों से लेकर संबद्ध अफसरों-इंस्पेक्टरों ने अपनी कारगुजारी दिखानी शुरू कर दी है। ये सारे लोग अपने आवंटित काम पर लग गए हैं। उनकी इस अचानक बढ़ गई गतिविधि में शायद उनकी कत्र्तव्यपरायणता नहीं बल्कि उनकी चिंता निहित है। चिंता यह कि आदेश सुप्रीम कोर्ट का है, अगर उस पर मुस्तैदी से अमल नहीं हुआ, सही और सतर्क ढंग से उसे पूरा नहीं किया गया तो उनकी नौकरी, उनकी मजेदार-आरामदेह सर्विस खतरे में पड़ जाएगी। क्यों कि इस हकीकत से वे बावस्ता हैं, परिचित हैं, भिज्ञ हैं कि कंटेम्प्ट खुला हुआ है। सौंपी गई जिम्मेदारी यदि ठीक से नहीं निभाई, पूरी नहीं की तो इसके शिकार वे भी हो सकते हैं।
बहरहाल, लेबर महकमे की सक्रियता ने जहां मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों के हिसाब से वेतन एवं सुविधाएं पाने के लिए सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर सिर नवाने पहुुंचे मीडिया कर्मियों की उम्मीदें और बढ़ा दी हैं वहीं प्रिंट मीडिया के मालिकों को एकदम बे-नींद कर दिया है, चैन छीन लिया है। उनकी सोचने-समझने, साजिशें-तिकड़में-चालबाजियां करने की ताकत एक तरह से छीन ली है। वे आंखें फाड़-फाडक़र देख रहे हैं और माथे पर बल डाल कर समझने की कोशिश कर रहे हैं कि क्या यह वही श्रम विभाग है जो उनके सामने आने की कभी जुर्रत भी नहीं करता था! बावजूद इसके, ये मालिकान, मैनेजमेंट, उनके कारिंदे, उनके टुकडख़ोर-चमचे-खुशामदिए श्रम अफसरों को धमकाने-डांटने-फजीहत करने से बाज नहीं आ रहे हैं।
खासकर उन अखबारों की मैनेजमेंट एवं कारिंदे श्रम अफसरों को चिल्ला-चिल्लाकर बता एवं दिखा रहे हैं कि देखो! ये हैं कागज जिन पर हमारे कर्मचारियों ने लिख कर दिया है कि उन्हें मजीठिया वेज बोर्ड नहीं चाहिए, वे कंपनी प्रदत्त वेतन एवं सुविधाओं से संतुष्ट हैं। कंपनी उनकी सुख-सुविधा का ध्यान रखती है। समय से उन्हें प्रमोशन मिलता है, अच्छा इन्क्रीमेंट लग जाता है, बच्चों (अगर हैं) की पढ़ाई-लिखाई, स्वास्थ्य-चिकित्सा-इलाज , उनकी बेहतरी का पूरा ख्याल कंपनी रखती है। बता दें कि ऐसे बांड फार्मों पर दैनिक भास्कर ग्रुप ने व्यापक पैमाने पर अपने कर्मचारियों से उसी समय साइन-हस्ताक्षर-दस्तखत करा लिए थे जब सुप्रीम कोर्ट में मालिकान मजीठिया के खिलाफ दायर किया अपना केस हार गए थे। और सुप्रीम कोर्ट ने मजीठिया के हिसाब से सेलरी और नवंबर 2011 से एरियर देने का आदेश दे दिया था। इन फार्मों पर कर्मचारियों को तारीख नहीं डालने दिया गया था। उसके पीछे मालिकों की मंशा ये थी कि जरूरत पडऩे पर अपनी मर्जी से तारीख डाल लेंगे।
ऐसा ही, शायद इससे भी ज्यादा ज्यादती भरा, मनमाना, बदमाशीपूर्ण फार्म-कागज पर दैनिक जागरण मैनेजमेंट ने कर्मचारियों से साइन करा लिए थे। राजस्थान पत्रिका एवं दूसरे और अखबारों ने भी इसी से मिलते-जुलते फार्म-करारनामेे पर दस्तखत करा कर अपने पास रख लिए थे, रख लिए हैं। इन फार्मों के बारे में मालिकान का दावा है, या कहें कि इसे जुमले की शक्ल दे दी है कि कर्मचारियों के साथ उनका समझौता हुआ है, कि कर्मचारियों ने खुद ही उनके साथ सहर्ष समझौता किया है और खुशी-खुशी उन्होंने इस पर साइन किए हैं।
सवाल यह है कि ऐसे फार्मों-बांडों-कागजों-करारनामों पर साइन-दस्तखत करा लेने का कोई कानूनी-वैधानिक आधार है? कानून की किताबें तो इसे गैरकानूनी, अवैध, गलत बताती हैं। विशेष रूप से द वर्किंग जर्नलिस्ट्स एंड अदर न्यूजपेपर इंप्लाईज (कंडीशन ऑफ सर्विस) एंड मिस्लेनियस प्रॉविजंस एक्ट 1955 के चैप्टर चार का अनुच्छेद 16, वर्किंग जर्नलिस्ट्स (कंडीशन ऑफ सर्विस) एंड मिस्लेनियस प्रॉविजंस रूल्स 1957 के चैप्टर छह का अनुच्छेद 38 और द पेमेंट ऑफ वेजेज एक्ट 1936 का अनुच्छेद 23 तो यही कहता है। इन कानूनों का निचोड़ यही है कि इनके कोऑर्डिनेशन से हुआ-किया गया कोई भी समझौता अमान्य, निष्प्रभावी, अशक्त, अकृत, शून्य हो जाता है। इन कानूनों-नियमों का प्रारूप निम्रवत है जिस पर उन कर्मचारियों को नजर डालने, समझने की सबसे ज्यादा जरूरत है जिन्होंने ऐसे फार्मों पर दस्तखत किए हैं:-
WORKING JOURNALISTS (CONDITIONS OF SERVICE) AND MISCELLANEOUS PROVISIONS RULES, 1957
CHAPTER VI
Miscellaneous
38. Effect of rules and agreements inconsistent with these rules.—The provisions of these rules shall have effect notwithstanding anything inconsistent therewith contained in any other rule or agreement or contract of service applicable to a working journalist: Provided that where under any such rule, agreement or contract of service or otherwise, a working journalist is entitled to benefits in respect of any matter which are more favourable to him than those to which he would be entitled under these rules, the working journalist shall continue to be entitled to the more favourable benefits in respect of that matter, notwithstanding that he receives benefit in respect of other matters under these rules.
THE WORKING JOURNALISTS AND OTHER NEWSPAPER EMPLOYEES (CONDITIONS OF SERVICE) AND MISCELLANEOUS PROVISIONS ACT, 1955
CHAPTER IV
MISCELLANEOUS
16. Effect of laws and agreements inconsistent with this Act.—(1) The provisions of this Act shall have effect notwithstanding anything inconsistent therewith contained in any other law or in the terms of any award, agreement or contract of service, whether made before or after the commencement of this Act: Provided that where under any such award, agreement, contract of service or otherwise, a newspaper employee is entitled to benefits in respect of any matter which are more favourable to him than those to which he would be entitled under this Act, the newspaper employee shall continue to be entitled to the more favourable benefits in respect of that mater, notwithstanding that he receives benefits in respect of other matters under this Act. (2) Nothing contained in this Act shall be construed to preclude any newspaper employee from entering into an agreement with an employer for granting him rights or privileges in respect of any matter which are more favourable to him than those to which he would be entitled under this Act.
THE PAYMENT OF WAGES ACT, 1936
23. Contracting out.—Any contract or agreement, whether made before or after the commencement of this Act, whereby an employed person relinquishes any right conferred by this Act shall be null and void in so far as it purports to deprive him of such right.
इस संदर्भ में रोचक एवं अहम यह है कि इन कानूनी मुद्दों-पेंचों की ओर ध्यान एक आला श्रम अधिकारी ने उस वक्त दिलाया जब दैनिक भास्कर मैनेजमेंट के लोग उक्त फार्मों को लेकर एक तरह से श्रम अधिकारी पर पिल पड़े थे। कानून के आईने में अपनी विकृत-अरूप-निकृष्ट-नकली-प्रताडक़ इत्यादि छवि देखकर भास्करी मैनेजमेंटियों के होश उड़ गए। काटो तो खून नहीं।
इस तथ्य-सच-हकीकत को उद्धृत करने का एक मात्र मकसद उन मीडिया कर्मियों, मीडिया के साथियों को आगाह करने, सतर्क-सजग करने, जागरूक करने का है जिन्होंने ऐसे फार्मों पर हस्ताक्षर किए हैं। उन्हें इसे लेकर डरने की कोई जरूरत नहीं हैं। ऐसे फार्मों पर साइन करके यदि आपको लगता है कि आपने अपना हाथ कटा लिया है, अब आप मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों के अनुसार वेतन एवं सुविधाएं लेने-पाने का हक-अवसर खो चुके हैं, गवां चुके हैं तो इस सोच-चिंता से बाहर निकलिए। उक्त कानून-एक्ट की पंक्तियों को गौर से पढि़ए-गुनिए। समझ नहीं आता है तो किसी जानकार से इसके बारे में जानिए और हो सके तो इस जानकारी-ज्ञान को साझा करिए, बांटिए। अभी वक्त है अपने हक को हासिल करने, पाने, या कहें छीन लेने का।
लेबर अफसरों को अपनी स्थिति के बारे में खुलकर, बेझिझक बताइए। ऐसा करेंगे तो आपको और उन सबको भी वेज बोर्ड का लाभ जरूर मिलेगा जिन्होंने केस नहीं किए हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने 28-4-2015 के आदेश से सारे प्रिंट मीडिया कर्मियों को अपना हक पाने का एक बेशकीमती, अनमोल अवसर मुहैया करा दिया है।
लेखक एवं पत्रकार भूपेंद्र प्रतिबद्ध से संपर्क 9417556066
bhagwan singh charan
June 21, 2015 at 10:37 am
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