अजय कुमार, लखनऊ
बसपा सुप्रीमों मायावती ने मिशन 2017 के आगाज के साथ ही सियासी एजेंडा भी तय कर दिया हैै। दलितों को लुभाने के लिये बसपा बड़ा दांव चलेगी तो मुसलमानों को मोदी-मुलायम गठजोड़ से बच के रहने को कहा जायेगा। प्रदेश की बिगड़ी कानून व्यवस्था, किसानों की दुर्दशा, बुंदेलखंड की बदहाली को अखिलेश सरकार के विरूद्ध हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जायेगा। एकला चलो की राह पर बीएसपी केन्द्र की सत्ता पर काबिज बीजेपी को नंबर वन का दुश्मन मानकर चलेगी तो प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी को नंबर दो पर रखा गया है। नंबर तीन पर कांग्रेस सहित अन्य वह छोटे-छोटे दल रहेंगे जिनका किसी विशेष क्षेत्र में दबदबा है। बसपा हर ऐसे मुद्दे को हवा देगी जिससे केन्द्र और प्रदेश सरकार को कटघरे में खड़ा किया जा सके। विधान सभा के बजट सत्र और इससे पूर्व के सत्रों मे बसपा नेताओं ने जिस तरह के तीखे तेवर दिखाये उससे यह बात समझने में किसी को संदेह नहीं बसपा सड़क से लेकर विधान सभा तक में अपने लिये राजनैतिक बढ़त तलाश रही है।
बसपा में छोटे-बड़े सभी नेता मिशन 2017 को पूरा करने के लिये जिस तरह से तेजी दिखा रहे हैं उससे भाजपा-सपा भी बेचैन दिख रहे हैं। 2012 के विधान सभा चुनाव में पराजय और 2014 के लोकसभा चुनाव में खाता भी नहीं खोल पाने वाली बहुजन समाज पार्टी की नेत्री मायावती अगर 2017 के विधान सभा चुनाव जीत कर सत्ता में वापसी का सपना देख रही हैं तो इसे माया का आत्मविश्वास या बढ़बोलापन दोनों ही कहा जा सकता हैै, लेकिन राजनैतिक पंडित इसे बसपा का आत्मविश्वास ही बता रहे हैं। बात 2012 और 2014 में बसपा को मिली करारी शिकस्त के बाद मायावती की राजनीति और व्यक्तिग जीवन में आये बदलाव की कि जाये तो दोनों ही मोर्चो पर बसपा सुप्रीमों काफी सजग नजर आती है। इसकी बानगी 15 जनवरी 2016 को देखने को मिली। माया ने अबकी से अपना जन्मदिन सादगीपूर्ण तरीके से मनाया। इस बार हीरों के चमकते आभूषण बहनजी के चेहरे की शोभा भले ही नहीं बढ़ा रहे थे, लेकिन 2017 में सत्ता वापसी की चमक उनके चेहरे पर साफ दिखाई पड़ रही थी, जिसे देखकर बसपाई चकाचौंध हो रहे थे।
विधान सभा चुनाव से एक वर्ष पूर्व बसपा को नंबर वन पर देखा जा रहा है तो इसका कारण उत्तर प्रदेश की केन्द्र की मोदी और यूपी की अखिलेश सरकार की नीतियां हैं। मोदी सरकार को दलित और मुस्लिम विरोधी साबित करने का प्रयास हो रहा है। अयोध्या में भगवान राम का मंदिर निर्माण करने संबंधी बीजेपी नेताओं के बयानों, हैदराबाद में दलित छात्र की आत्महत्या, बीते साल हरियाणा में दो दलितों की जलकर हुई मौत, अखलाक की हत्या आदि तमाम ऐसी घटनाएं हैं जिसके सहारे मोदी सरकार को न केवल दलित बल्कि मुसलमान विरोधी भी साबित किया जा रहा। इसकी बानगी हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी के लखनऊ कार्यक्रम के दौरान तब देखने को मिली, जब इस बात का खुलासा हुआ कि हैदराबाद की घटना को लेकर ‘नरेंद्र मोदी मुर्दाबाद और मोदी वापस जाओ’ के नारा लगाने वाले छात्र बसपा प्रमुख मायावती के समर्थक थे। इस पूरे प्रकरण को बेहद प्लानिंग के साथ अंजाम दिया गया था। इसमें बसपा का हाथ था। मायावती दलित वोटरों को यह बताने का कोई भी मौका नहीं खोती हैं कि आरएसएस, भाजपा व केंद्र सरकार के कट्टरवादी सांसदों, मंत्रियों व उच्च पदों पर बैठे लोग दलितों को नुकसान पहुंचाने के लिये कभी भारतीय संविधान की तो कभी आरक्षण की समीक्षा करने की बात कर रहे हैं। वह कहती हैं कि केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद हर क्षेत्र में दलितों व अति पिछड़ों का उत्पीड़न बढ़ा गया है। इन वर्गों के प्रति उनकी हिंदुत्व आधारित जातिवादी सोच नहीं बदली है।
मायावती जहां दलित वोट बैंक को लेकर चिंतित है, वहीं उन्होंने मुस्लिमों के बीच अपने समर्थन की जमीन तलाशने की कवायद भी शुरू कर दी है। इस क्रम में माया नेे सबसे पहले बसपा के मुस्लिम नेताओं को टिकट देने में दरियादिली दिखाई। इस बार करीब 25 फीसदी टिकट मुस्लिमों को देकर पार्टी अपने लिये बेहद खास अल्पसंख्यक वोटों पर निगाहें टिकाए हुए है। हालांकि यह और बात है कि लोकसभा चुनाव के बाद संगठन में हुए बड़े पैमाने पर बदलाव के बाद भी नए संगठन में मुसलमानों से अधिक दलितों को तवज्जो दी गई थी। मुसलमानों को टिकट देने में दरियादिली दिखाने वाली बसपा सुप्रीमों अयोध्या के बहाने भी मुसलमानों पर डोरे डाल रही हैं। एक तरफ वह अयोध्या में जल्द मंदिर बनने संबंधी बीजेपी नेताओं के ताजा बयानों को हवा दे रही हैं तो वहीं मुलायम के उस बयान को भी मुद्दा बना रही हैं जिसमें मुलायम ने कहा था कि कारसेवकों पर लाठचार्ज करने का उन्हें दुख है। अयोध्या में विश्व हिंदू परिषद द्वारा मंदिर निर्माण के लिए राजस्थान से शिलाएं लाए जाने के सवाल पर बसपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्या तीखी प्रतिक्रिया देते हुए कहते है कि मामला सुर्प्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। जो ऐसा कर रहे है वे देसी आतंकवादी हैं। मौर्य ने कहा, ‘अयोध्या में ट्रकों से लद कर शिलाएं पहुंच गईं। मगर सपा सरकार सोती रही। इससे भी साबित होता है कि सपा भाजपा में सांठगांठ है। उन्होंने कहा यदि समाजवादी पार्टी सरकार सुप्रीम कोर्ट का सम्मान करती तो शिलाएं वहां कतई न पहुंच पातीं। मुस्लिमों का बसपा के प्रति झुकाव की वजह मुस्लिम आरक्षण भी बन सकता है। 2012 में मुसलमानों को लगता था कि समाजवादी सरकार बनेगी तो वह मुसलमानों को नौकरियों में आरक्षण देने के लिये कोई न कोई रास्ता तलाश लेगी, परंतु ऐसा हुआ नहीं।
बसपा दलितों और मुसलमान वोट बैंक के अलावा ऊंची जाति के एक वर्ग के वोटों पर भी नजर रखे हुए है। इसके लिए यह इस समुदाय के गरीब लोगों के लिए बसपा सुप्रीमों नौकरी में आरक्षण की जोरदार वकालत कर रही हैं। याद रखना जरूरी है कि 2007 के चुनावों में दलित-मुस्लिम और ब्राहमण वोटों की गोलाबंदी करके बसपा ने 403 में से 206 सीटें जीतने में सफलता हासिल की थी। पार्टी को मिलने वाले कुल वोटों में 30.43 प्रतिशत हिस्सा इन्हीं का था। जानकर कहते हैं कि केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार का कामकाज ठीकठाक होता तो मायावती के पक्ष में संभावनाएं इतनी प्रबल न होतीं। पर लोकसभा चुनाव में दूसरी तमाम पार्टियों को बौना बना देने वाली भाजपा दिल्ली-बिहार के बाद उत्तर प्रदेश में भी अपना वर्चस्व कायम रखने में विफल होती दिख रही है। लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत का ताना-बाना बुनने वाले पार्टी के मुखिया अमित शाह भले ही दोबारा अध्यक्ष बन गये हों लेकिन उनका रुतबा काफी घटा है।
मिशन 2017 फतह करने के लिये बसपा केन्द्र की भांति ही अखिलेश सरकार के खिलाफ भी जाति, धर्म और समुदाय से इतर कानून-व्यवस्था की बिगड़ी स्थिति को प्रमुख मुद्दा बन सकती है। बसपा का प्रमुख वोट बैंक रहीं जाटव, दलित समूह और अन्य पिछड़ी जातियां, जिनका मायावती से मोहभंग हो गया था, यादवों के वर्चस्व से त्रस्त होकर एक बार फिर उनके पक्ष में एकजुट हो रही हैं। ब्राह्मणों की स्थिति भले उतनी खराब न हो, लेकिन ग्रामीण इलाकों में बंदूक की नोक पर गुंडाराज करने वालों से वे भी आजिज आ चुके हैं। इसी प्रकार राज्य में बढ़ते कृषि संकट और खासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गन्ना किसानों को उनकी समस्याओं से निजात दिलाने में माया की भूमिका को उम्मीद भरी नजरों से देखा जा रहा है। प्रदेश की सपा और केंद्र की भाजपा सरकार से त्रस्त किसान बसपा के शासन को याद करते हैं, जब न केवल चीनी मिलों से समय पर गन्ने का भुगतान हो जाता था, बल्कि कीमत भी वाजिब मिलती थी। सपा सरकार द्वारा पिछले तीन वर्षो से गन्ना मूल्य नहीं बढ़ाया जाना भी गन्ना किसानों को खटक रहा है।
कानून व्यवस्था के अलावा अखिलेश सरकार में प्रमोशन में दलित कोटा खत्म करना, दलितों की जमीन की बिक्री के लिये बनाये गये नियमों में बदलाव ऐसे मुद्दे हैं जिससे दलितों को लगता है कि माया राज में ही उसके हित सुरक्षित रह सकते हैं। यही सोच माया की सत्ता में वापसी की राह आसान कर रही है। वैसे तो समाजवादी सरकार में कानून-व्यवस्था की स्थिति सबके लिये दुखद है, किंतु दलितों के प्रति अधिपत्यशाही समूहों का अन्याय बढ़ा है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव दलित कल्याण के मुद्दे पर या तो उदासीन है या ऐसी नीतियां लागू कर रहे है, जिन्हें दलित हितों के खिलाफ माना जाता है। बीते वर्ष समाजवादी पार्टी सरकार ने अदालत के आदेश की आड़ में नौकरी में प्रमोशन में अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति (एससी – एसटी)कर्मचारियों के लिए नौकरी में निर्धारित किए गए कोटा को समाप्त करने के साथ-साथ ही एक ऑफिस आर्डर के तहत नौकरी में प्रोन्नत किए गए एससी-एसटी कर्मचारियों को पदावनत(डिमोशन) करने का निर्णय लिया था। इस आदेश से लाखों एससी-एसटी कर्मचारी प्रभावित होते दिखे।
इतना ही नहीं उत्तर प्रदेश सरकार के सिंचाई विभाग ने इस ऑफिस आर्डर को ध्यान में रख पूर्व में प्रोन्नत किए गए एससी/एसटी कर्मचारियों को पदावनत करने का आदेश दे दिया। दलित समाज में समाजवादी पार्टी सरकार के इस पहल का काफी विरोध हो रहा है। इसको लेकर दलितों में वर्तमान सरकार के प्रति गुस्सा और नाराजगी बढ़ रही है। दलितों का प्रोन्नति कोटा खत्म किये जाने के अलावा अखिलेश सरकार का एक और निर्णय दलितों के हितचिंतकों को रास नहीं आ रहा है। राज्य सरकार का यह निर्णय भी बसपा को 2017 के लिये संजीवनी दे रहा है। खुद दलितों में भी एक बड़ी संख्या इस निर्णय से खफा है। समाजवादी सरकार ने बीते वर्ष ही दलितों की भूमि खरीद और विक्रय संबंधी कानून में भी एक बड़ा परिवर्तन किया था। गौरतलब हो, 1950 का भूमि कानून गैर दलितों द्वारा दलितों की भूमि के खरीद की इजाजत तो देता था, किंतु 1.26 हेक्टेयर से ज्यादा होने वाली भूमि ही खरीदी-बेची जा सकती थी। दलितों की भूमि 1.26 हेक्टेयर से कम होने पर किसी दलित को ही बेची जा सकती थी, परंतु इसके जिला प्रशासन द्वारा कड़ी छानबीन की जाती थी, लेकिन अखिलेश सरकार ने दलितों के भूमि विक्रय संबंधी इस नियम को खोखला करके फरमान जारी कर दिया कि अगर किसी दलित के पास न्यूनतम 1.26 हेक्टेयर भूमि भी है तो वह भी खरीदी-बेची जा सकती है। कोई गैर-दलित भी उसे खरीद सकता है।
इस नियम परिवर्तन का असर यह हुआ कि भूमि माफियाओं का उत्साह बढ़ गया तो दूसरी ओर दलितों को अपनी जमीन कैसे सुरक्षित रहेगी इसकी चिंता सताने लगी है। अखिलेश सरकार के इस निर्णय पर इस लिये भी सवाल खड़े किये जा रहे हैं, क्योंकि अक्सर खबरें आती रहती हैं कि सपा में भू-माफियाओं का दबदबा है। यह और बात है कि कुछ दलित अपनी जमीन किसी को भी बेचने की छूट में लाभ भी देख रहे हैं, पर इनका प्रतिशत काफी कम है और यह दलितों का प्रतिनिधित्व भी नहीं करते हैं। दलितों का बड़ा तबका इस निर्णय से काफी नाराज हैं। बसपा सुप्रीमो मायावती इन निर्णयों की आलोचना कर चुकी है। मायावती कहती हैं कि दलितों व अन्य पिछड़े वर्गों के मामले में प्रदेश की सपा सरकार की सोच लगभग बीजेपी व आरएसएस की तरह नजर आती है। दलित वर्ग के कर्मचारी व अधिकारी पदोन्नति में आरक्षण को बरकरार रखने के लिए केंद्र व प्रदेश की सपा सरकार के खिलाफ धरना-प्रदर्शन करते रहते हैं। सपा सरकार ने दलित कर्मचारियों व अधिकारियों को काफी ज्यादा नुकसान पहुंचा दिया है।
बसपा नेता और प्रदेश अध्यक्ष स्वामी प्रसाद मौर्या कहते हैं कि सपा राज में दलितों की जमीन सुरक्षित नहीं रह गई है। काूनन बनाकर दलितों का हक छीनने का मार्ग अखिलेश सरकार ने प्रशस्त कर दिया है। इसी तरह मौर्या प्रोन्नति में आरक्षण के मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की आड़ में अनुसूचित जाति जनजाति के अधिकारियों कर्मचारियों की जिस मनमाने तरीके से पदावनति की जा रही है उससे भी खफा है। मौर्यां के अनुसार प्रोन्नति में आरक्षण वापस लिये जाने से दलित समाज के आठ लाख से अधिक कर्मचारियों में उपेक्षा और पक्षपात का शिकार होने का भाव पैदा हो रहा है।
दलित समाज को अखिलेश सरकार की एक और बात भी कचोटती रहती है। सपा राज में दलित महापुरूषों के नाम पर बने स्मारकों, पार्कोे आदि के रखरखाव पर लाफी लापरवाही बरती जाती है, जबकि समाजवादी नेताओं के नाम पर बने पार्कों आदि पर पानी की तरह पैसा बहाया जाता है। शायद इस बात का अहसास अखिलेश सरकार को भी हो गया होगा, इसी लिये हाल ही में अखिलेश सरकार ने लखनऊ में स्थापित किए जा रहे अत्याधुनिक हाईटेक सीजी सिटी परिसर में बाबा साहब डॉ0 भीमराव अंबेडकर का स्मारक बनाने के लिए अंबेडकर महासभा को भूमि उपलब्ध कराने का एलान किया है। सीजी सिटी में अंबेडकर स्मारक के लिए जमीन देने का एलान कर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने जहां बसपा सुप्रीमो मायावती के दलित एजेंडे में सेंध लगाने की कोशिश की है, वहीं डॉ. अंबेडकर के सहारे चुनावी वैतरणी पार लगाने की भाजपा की मुहिम को भी कुंद करने का दांव चला है।
बहरहाल, बसपा सुप्रीमों मायावती और उनके समर्थक 2017 में अपना भविष्य जरूर तलाश कर रहे हैं, तो 2012 में मिली करारी हार से सबक लेते हुए पिछले कार्यकाल की गलतियों से भी बचा जा रहा है। मायावती के तानाशाही रवैये और ब्राहमणों के प्रति बढ़ते उनके रूझान से नाराज होकर ही दलितों के एक बड़े धड़े ने 2014 में हाथी की जगह कमल खिला दिया था। ब्राहमण नेताओं के वर्चस्व के कारण बीएसपी की पिछली सरकार में दलितों के अलावा पिछड़ा वर्ग भी अपने आप को उपेक्षा का शिकार समझ रहा था। माया की कैबिनेट से लेकर शासन तक में गैर दलितों का दबदबा देखने को मिला था। रामवीर उपाध्याय, बाबू सिंह कुशवाह, स्वामी प्रसाद मौर्या, अंनत कुमार मिश्रा उर्फ अंटू, बादशाह सिंह, नसीमुद्दीन सिद्दीकी जैसे नेताओं का माया कैबिनेट में रूतबा था तो अफसर शाही की कमान शंशाक शेखर ने संभाल रखी थी जिसने के सामने किसी की एक नहीं चलती थी। मायावती कभी किसी शादी समारोह में नहीं जाती है, परंतु सतीश मिश्र के वहां जब वह पहुंची तो यह बात उन दलित नेताओं को भी रास नहीं आई जो माया के काफी करीबी हुआ करते थे। 2012 में समाजवादी पार्टी माया के तानाशाही रवैये और पिछड़ों की उपेक्षा के मुद्दे को भुना कर जीत हासिल करने में सफल रही तो 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी दलितों को अपने पाले में खींच ले गये।
बात 2017 की करें तो माया ने भले ही अपना एजेंडा तय कर दिया हो लेकिन उन्हें इस बात का भी अहसास है कि बीजेपी और समाजवादी नेता प्रदेश में सांप्रदायिक हिंसा को बढ़ावा देकर कानून-व्यवस्था और कृषि संकट जैसे मुद्दों को हाशिये पर धकेल सकते है। विश्व हिन्दू परिषद का राम मंदिर राग अलाप। सपा में आजम खान जैसे नेताओं की उकसाने वाली बयानबाजी सांप्रदायिक माहौल बिगड़ने की आशंका को हवा देने का काम कर रही है। इसी बात को ध्यान में रखकर बसपा नेता भाजपा को दंगा वाली पार्टी का तमगा देने में जुट गये हैं। बसपा सुप्रीमों मायावती तय एजेंडे पर ही आगे बढ़ रही हैं, इसी लिये वह न तो इस बात से चिंतित होती हैं कि फेसबुक पर उनके साथ फोटो खिंचाने वाली बसपा उम्मीदवार का टिकट काटने पर विरोधियों के बीच क्या प्रतिक्रिया होती है और न ही इस बात को लेकर फिक्रमंद हैं कि कौन उनका साथ छोड़ रहा है। बसपा नेत्री किसी भी तरह 2017 में अपनी बादशाहत कायम रखना चाहती है।
लेखक अजय कुमार उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं.