कुछ कहानियां, वाकये, अनुभव ऐसे होते हैं जो जीवन को बदल कर रख देते हैं. वाकये और अनुभव तो आप खुद जीते हैं, खुद जिएंगे. लेकिन कहानियां तो कोई सुना सकता है. खासकर उन लोगों के लिए कहानियां बहुत जरूरी हैं जो मन से तन से मस्त हो चुके हैं. संन्यस्त होने की ओर छलांग लगाने को तैयाार हो चुके हैं. ऐसे लोगों के लिए एक वक्त ऐसा आता है जब अकेलापन और मौन इन्हें बहुत भा जाता है… ये लोग पाते हैं कि वे दिल की बात अनसुनी नहीं कर पा रहे… वैसे यह भी सच है कि एक से एक उम्दा संत किस्म के लोग घर-परिवार के चूल्हा जुटान चक्कर में अंततः डिप्रेशन, सिस्टम, रुटीन, दायरे के हिस्से होकर रह जाते हैं… उन्हें धरती को, सभ्यता को जो कुछ अदभुत देना / पाना था, उससे वंचित रह जाते हैं…
सच यही है अनुभव, विचार, क्रिया, कर्म, गति आदि की चरम उदात्तता कुनबा, परिवार, घर, दोस्त, अपने, पराए की धारणाओं-खोलों-दायरों-सोचों से आगे बढ़ जाती है… वह वहां तक पहुंचती है जहां तक पिछला संत पहुंच गया था… फिर इस नए को उसके आगे यात्रा शुरू करनी होती है… उसे आगे पड़े ज्ञान, मोक्ष, आनंद के नए सूत्र को चूमना, सहेजना होता है. फिर वह सभ्यता को सौंप देता है, मुक्ति के लिए. नई सीमाओं को छूने वाला रचना प्रकृति के मूल स्वभाव में है… जो आज हम आप नया करेंगे, कल उसके आगे नया करने वाले आएंगे.. इसी में प्रकृति को आनंद है, प्रकृति का आनंद है…
कलाकार, खिलाड़ी, साहित्यकार, कर्मचारी, शासक सबमें कोई न कोई खास गुण, खास बल, खास क्षमता होती है. संत की क्षमता या खासियत या विशेषता उसके विचारों की परम चरम उदात्तता में निहित है. जिसने इस संसार में रह सीख लड़ जान झेल कर जितनी उदात्तता जितनी समझ जितनी सहजता हासिल की, उसके उतने आगे (आध्यात्मिक यात्रा के संदर्भ में) जाने, पाने (वो ज्ञान जो सकालीन समाज को मुक्ति की राह दिखा सके) और रचने (वो फार्मूले तरीके रास्ते जिससे मनुष्य खुद को री-लांच कर नया बना ले) की संभावना है..
मन न रंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा… कबीर कह गए हैं.. इसलिए मन अगर किसी अलग जगह अटका है और तन कहीं तो फिर मन की सुनो… यानि पहले सहज बनिए… हिप्पोक्रिसी रुकावट है, बाधा है… बिंदास रहिए… ओरीजनल रहिए… जबरन न ओढिए चीजों को… पाखंडी बनकर जीने की जरूरत नहीं है. सहजता से ही कोई रास्ता मिलेगा, कोई तरीका निकलेगा…. और, न बुरा मानो, न भला मानो.. आनंदित तटस्थता पाइए साधो…
एक पुरानी कहानी इसी मन तन को साधे जाने से संबंधित है… संभव है ये कहानी आपकी जिंदगानी बदल दे… कहानी यूं है… गौतम बुद्ध जिन दिनों वाराणसी के पास प्रवास कर रहे थे और उनका जीवन उनके कुछ साथियों के साथ भिक्षा पर चल रहा था, उन दिनों उनके एक अति प्रिय शिष्य को एकबार कहीं भीख नहीं मिली। उदास भाव से वो लौट रहा था कि अचानक उसके कटोरे में मांस का एक टुकड़ा आ गिरा। शिष्य बहुत हैरान हुआ कि ये कहां से आया? उसने उपर देखा तो पाया कि एक चील अपने पंजे में इसे ले जा रही थी, और वही उसके पंजे से छूट कर कटोरे में आ गिरा है। शिष्य बहुत हैरान परेशान रहने के बाद आखिर में बुद्ध के सामने गया और उसने सारी कथा उन्हें कह सुनाई कि प्रभु आज कुछ नहीं मिला, बस ये मांस का एक टुकड़ा मेरे पात्र में आ गिरा।
बुद्ध ने उसे समझाया कि अब जो मिला वही तुम्हारी किस्मत। तो तुम उसका अनादर मत करो, और उसे ही पका कर खा लो।
शिष्य ने ऐसा ही किया।
मांस बहुत स्वादिष्ट पका।
बुद्ध के तमाम शिष्य इस पूरी घटना को देख रहे थे। पहले तो मन ही मन सोच रहे थे कि आज मांस लाने की वजह से उस अति प्रिय शिष्य को डांट पड़ेगी, लेकिन यहां तो मामला ही उल्टा हो गया था। कहां बाकी शिष्य वही सादा भोजन ग्रहण कर रहे थे, और वो मांसाहारी भोजन कर रहा था। इस घटना को देख कर बाकी शिष्यों ने भी धीरे-धीरे कहीं से मांस उठा कर लाना शुरू कर दिया और आकर बुद्ध से कहने लगे कि प्रभु आज कुछ नहीं मिला बस यही मांस का टुकड़ा मिला है।
बुद्ध उसे देख मुस्कुराते और कहते जो मिला उसे ही स्वीकार करो।
एक दिन एक शिष्य ने बुद्ध से पूछा कि भगनव आप जानते हैं कि ये झूठ बोल कर मांस पका कर खा रहे हैं, फिर आप इन्हें रोकते क्यों नहीं?
बुद्ध ने कहा कि रोकने से कोई नहीं रुकता। जिसे रुकना होता है वो खुद रुकता है। और वो रुकना भी क्या रुकना जिसमें मन न रुके? और अगर मन ही न रुके तो तन के रुकने का कोई अर्थ नहीं होता। ऐसे में जिसे जिसे जो अच्छा लगता है उसे करने दो। जब मन की मुराद पूरी हो जाती है, चाहे जब हो, तभी आदमी अध्यात्म की ओर मुड़ता है।
(यशवंत सिंह और संजय सिन्हा के एफबी वॉल से.)
यशवंत
October 18, 2016 at 1:14 am
कभी कभी स्मार्टफोन लैपटॉप मन को भाते नही है बस शांत रहने का मन रहता हैं।
स्वामी विवेकानंद नन्द जी कि किताब पड़ते वक्त जिस तरह का महसूस होता ह उसी तरह का आनन्द है इस में भी बहुत खूब