अजय कुमार, लखनऊ
मकड़जाल जैसी यूपी की सियासत : उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव की सरगर्मी लगातार बढ़ती जा रही है। सबके अपनी-अपनी जीत के दावे हैं। दावों को मजबूती प्रदान करने के लिये तमाम तरह के तर्क भी दिये जा रहे हैं। इन तर्को के पीछे मतदाताओं को अपनी तरफ खींचने का ‘खाका’ छिपा हुआ है। आरोप-प्रत्यारोप को चुनावी सीढ़ी की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। आज स्थिति यह है कि सभी दलों के नेताओं के पास विरोधियों के लिये तो कहने को बहुत कुछ है,लेकिन अपने बारे में बोलते समय कहीं न कहीं इनकी जुबान अटक जाती है। कोई भी दल ऐसा नहीं है जिसे पाक-साफ करार दिया जा सकता हो।
समाजवादी पार्टी कुनबे के झगड़े में उलझी हुई है तो बसपा में नेताओं की भगदड़ मची हुई है। बीजेपी मोदी के सहारे अपनी नैया पार करने की कोशिश में है। उसको कोई ऐसा चेहरा नहीं मिल रहा है,जिसे वह प्रदेश में मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट कर सके। कांग्रेस के लिये समस्या यह है कि उसके युवराज राहुल गांधी अपने भाषणों से सिर्फ अपने भीतर ही उर्जा और जोश भर पाते है। न तो उनकी बातों से वोटर प्रभावित होते हैं,न ही कार्यकर्ताओं में किसी तरह का जोश देखने को मिलता है। कहने को कांग्रेस ने ब्राहमण नेता और दिल्ली की पूर्व सीएम शीला दीक्षित को यूपी का भावी सीएम प्रोजेक्ट कर दिया है,लेकिन शीला जी को यही नहीं पता है कि अगर कांग्रेस का सपा से चुनावी तालमेल हो जायेगा तो चुनाव में उनकी क्या हैसियत रहेगी।
बात सबसे पहले सपा की। सपा नेता और सीएम अखिलेश यादव का अपना दामन तो पाक-साफ है,लेकिन उनकी सरकार के कई दंबग,बदजुबान और माफिया टाइप के मंत्री और पार्टी के नेता उनके लिये सिरदर्द बने हुए हैं। सपा नेताओं/कार्यकर्ताओं की गुंडागर्दी और अखिलेश सरकार के समानांतर चलता गुंडाराज विरोधियों के सिर चढ़कर बोल रहा है। सपा राज में गुंडागर्दी पर लगाम लगाया जाना मुश्किल है, इसका ताजा उदाहरण है बाहुबली अतीक अहमद के गुर्गो द्वारा इलाहाबाद के एक शिक्षण संस्थान में जाकर सुरक्षा कर्मियों के साथ मारपीट और शिक्षको साथ अभद्रता किया जाना है। अतीक के गुर्गे उत्पात मचाते रहे और पुलिस घटना स्थल पर तब पहुंची जब अतीक अपने समर्थकों के साथ चला गया। अखिलेश को अतीक पंसद नहीं हैं, लेकिन वह चचा के चलते मजबूर हैं। चचा को अतीक और मुख्तार जैसे दंबग ही पसंद आते हैं। अखिलेश के हाथ बांध दिये गये है तो पार्टी का शीर्ष नेतृत्व पार्टी नेताओं की दबंगई के मसले में चुपी साधे रहता है।
पार्टी ही नहीं परिवार का भी बुरा हाल है। सपा में अंकल, चाचा-भतीजे की जंग कभी थमती दिखाई देती है तो कभी यह ‘आग का दरिया’ बन आती हैं। सपा परिवार में टिकट वितरण के साथ फिर से मनमुटाव सामने आने लगा है। हाल ही में आया अखिलेश का बयान,‘ चाचा-अंकल हो न हों,जनता हमारे साथ है।’ काफी कुछ कहता है। उधर, नेताजी मुलायम सिंह यादव को समझ में ही नहीं आ रहा है कि वह करें तो क्या करें। अखिलेश को मनाते हैं तो शिवपाल नाराज हो जाते हैं और शिवपाल को मनाते हैं तो अखिलेश खेमा आंख दिखाने लगता है। अमर सिंह एक बार फिर नेताजी की ‘नाक का बाल’ बन गये हैं। मुलायम सिंह और पार्टी नोटबंदी के खिलाफ मोर्चा खोले हैं,वहीं अमर सिंह नोटबंदी को सही ठहराने में जुटे हैं। अखिलेश की नाराजगी की परवाह न करते हुए मुलायम ने अमर सिंह को पार्टी का स्टार प्रचारक का दर्जा तक दे दिया है। चंद दिनों के निष्कासन के बाद सपा में वापस आने के बाद प्रोफेसर रामगोपाल यादव नये सिरे से अपनी जड़े मजबूत करने में लगे हैं। सपा दो फाड़ों में बंटी हुई नजर आ रही है। पार्टी का एक धड़ा पुरानी परिपाटी पर चलते हुए मुस्लिम,पिछड़ा,यादव कार्ड खेल रहा है,वहीं सीएम अखिलेश यादव विकास के सहारे चुनाव जीतना चाहते हैं,लेकिन जब उनका विश्वास हिचकोले खाता है तो 17 पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति के आरक्षण कोटे में डालने का कारनामा (प्रस्ताव) भी कर डालते हैं। विकासवादी छवि बनाने के चक्कर में अखिलेश कई आधे-अछूरी योजनाओं का भी उद्घाटन करते जा रहे हैं। लखनऊ में मेट्रो टेªन और विधान भवन के सामने बने लोक भवन का मामला हो या फिर यमुना एक्सप्रेस वे के उद्घाटन इसी से जुड़ा मसला है। लोकभवन में तो फिर भी कामकाज शुरू हो गया है, लेकिन मेट्रो शुरू होने में तो अभी तीन माह का समय बाकी है और यमुना एक्सप्रेस वे कब आवागमन के लिये खुलेगा कोई नहीं जानता है। इसी लिये अखिलेश, ‘बुआ’ और बसपा सुप्रीमों मायावती के निशाने पर भी हैं। वह अखिलेश के तीन सौ सीटें जीतने के दावे पर तंज कसते हुए कहती हैं कि यह बबुआ द्वारा कही गई ‘बबुआ’ जैसी बाते हैं। आचार संहिता लागू होने की आहट के बीच सीएम ने अरबों करोड़ की हजारों नई योजनाओं का उद्घाटन कर डाला।
तमाम किन्तु-परंतुओं के बीच आश्चर्य होता है कि एक तरफ अखिलेश यादव को सपा का मुख्य ‘ब्रांड’ बताती है और दूसरी तरफ टिकट बंटवारें में अखिलेश को तवज्जो नहीं मिलती है। सपा में जिस तरह से प्रत्याशियों की घोषणा और उनमें बदलाव हो रहा है, उससे तो यही लगता है कि पार्टी के भीतर शह-मात का खेल रूकने वाला नहीं है। इसी वजह से चुनाव की घोषणा के बाद तक प्रत्याशियों में व्यापक फेरबदल से इन्कार नहीं किया जा सकता है। संघर्ष टिकट बंटवारे के अधिकार को लेकर है,इसी लिये दागियों को टिकट से असंतुष्ट अखिलेश यह कहकर कि ‘टिकट तो अंतिम समय तक बदलते रहते हैं’ भविष्य में बदलावों को संकेत दे रहे हैं।
सपा की आपसी कलह से सबसे अधिक मुस्लिम वोटर चिंतित है,जिन्होंने 2012 में सपा को सत्ता तक पहुंचाया था। कहने को तो मुसलमनों के पास बसपा का भी विकल्प मौजूद है, लेकिन बसपा राज में मुस्लिमों के उतने हित नहीं सध पाते हैं जितने सपा राज में सध जाते हैं। सपा एक तरफ आपसी कलह से जूझ रही है तो दूसरी तरफ कांग्रेस के साथ गठबंधन को लेकर कोई फैसला नहीं किये जाने से भी सपा के मुस्लिम वोटर परेशान हैं। उन्हें डर सता रहा है कि कहीं 2014 के लोकसभा चुनाव जैसे हालात न पैदा हो जायें। 2014 के चुनाव में एक भी मुस्लिम नेता चुनाव नहीं जीत पाया था। किसी गलतफहमी की वजह से मुस्लिम वोट अगर सपा-बसपा के बीच बंटता हैं तो इसका कांग्रेस को तो कोई खास नुकसान नहीं होगा,क्योंकि उसके पास यूपी में खोने के लिये कुछ ज्यादा नहीं है, लेकिन सपा की सियासी जमीन खिसक सकती है।
उधर, मौके की नजाकत को भांप कर बसपा सुप्रीमों मायावती मुस्लिमों पर खूब डोरे डाल रही हैं। वह मुस्ालमानों को अपने काम गिनवाने के साथ-साथ मुस्लिम भाईचारा सम्मेलन के द्वारा भी लुभा रही हैं। बसपा ने विधानसभा चुनावों में मुसलमानों पर बड़ा दांव लगाते हुए करीब सवा सौ टिकट मुस्लिम उम्मीदवारों को दिए है। बसपा सुप्रीमों का गणित बिल्कुल साफ है। उन्हें लगत है कि 18-19 फीसदी मुसलमान और 22-23 फीसदी दलित वोट बसपा की झोली में पड़ जाएं तो उसका बेड़ा पार हो जाएगा। मायावती के अलावा बसपा महासचिव नसीमुद्दीन और प्रदेश अध्यक्ष राम अचल राजभर भी ‘मुस्लिमों को सपा से आगाह कर रहे हैं। बसपा द्वारा जगह-जगह तमाम माध्यमों से बताया जा रहा है कि माया राज में उनके लिए क्या-क्या काम किए गये थे। तीन तलाक के मसले पर बसपा ने मुस्लिमों की भावना का आदर किया है। बसपा मुस्लिमों को यह भी बता रही है कि भाजपा और सपा में कितनी नजदीकियां हैं। भाजपा शासन में दलितों और मुसलमानों पर हुए अत्याचार को भी गिनाया जा रहा है। ताकि लोग भाजपा, सपा और बसपा में से अपने लिए बेहतर विकल्प चुन सकें।
गौरतलब हो करीब 150 विधानसभा सीटों पर मुस्लिम वोट निर्णायक होता हैं। मायावती मुसलमानों से कह रही हैं कि सपा में चल रही जंग के कारण उसके नेता दो खेमों में बंटे हुए हैं। अखिलेश के लोग शिवपाल के और शिवपाल के लोग अखिलेश के लोगों को हराने में लगे हैं। ऐसे में मुसलमानों ने सपा को वोट करा तो उनका वोट खराब हो जाएगा और इसका फायदा बीजेपी को मिलेगा। इसलिए यूपी में भाजपा को रोकना है तो मुस्लिम उनकी पार्टी को वोट दें।
पूरे देश में लगातार हार का मुंह देख रही कांग्रेस यूपी को लेकर एक बार फिर आशावान है। कांग्रेस की कोशिश अपने परंपरागत ब्राहमण, दलित,मुस्लिम और किसान वोटरों को साधने की है। कांग्रेस की खाट पंचायत, दलित स्वाभिमान यात्रा, राहुल संदेश यात्रा इसी का हिस्सा है। देश के सबसे बड़े सूबे यूपी पर सियासी कब्जे की लड़ाई को कांग्रेस 2019 की रिहर्सल मानकर चल रही है। बसपा की तरह कांग्रेस भी 23 फीसदी दलित वोट बैंक और 19 फीसदी मुस्लिम वोटों पर सबसे तगड़ी नजर लगाए हुए है। मुस्लिमों को बताया जा रहा है कि पूदे देश में अगर बीजेपी को कोई रोक सकता है तो कांग्रेस ही है। इसी तरह कांग्रेस अपनी तमाम यात्राओं के सहारे दलितों को भी कई वायदे गिना रही है। इसमें मुख्य रूप से दलितों की शिक्षा, सुरक्षा और उनके स्वाभिमान से जुड़े मसलों के अलावा हर दलित खेतिहर मजदूर के परिवार को आवास। दलित युवाओं को रोजगार के लिए बिना गारंटी तीन लाख का लोन। जवाहर नवोदय विद्यालय की तरह हर ब्लॉक में दलितों के लिए आवासीय विद्यालय। दलितों को उनके अधिकारों की सुरक्षा व उत्पीड़न की दशा में न्याय व पुनर्वास के लिए प्रदेश के सभी 1388 थानों में ‘सुरक्षा मित्र’ की नियुक्ति होगी। दलित परिवारों को उनसे संबंधित योजनाओं का पूरा लाभ दिलाने के लिए सभी 821 ब्लाकों में ‘विकास मित्र’ की नियुक्ति होगी। अंबेडकर ‘आरोग्य श्री’ योजना के तहत हर दलित परिवार को सरकारी या निजी अस्पताल में दो लाख रुपये तक फ्री चिकित्सा सहायता। हर दलित छात्र को 10वीं के बाद हॉस्टल के लिए प्रतिमाह 1000 रुपये की छात्रवृत्ित जैसे लोकलुभावन वादे शामिल हैं।
दलित वोट बैंक पर नजर लगाये कांग्रेस आलाकमान कहता है उसकी दलित स्वाभिमान यात्रा 100 गांवों में जाएगी। करीब 80 दिन में यह प्रदेश का भ्रमण करेगी। एक दिन एक गांव में रहेगी। यात्रा को लीड करने वाले नेता आलाकमान को हर रोज की गतिविधि का ब्योरा भेजेंगे। उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी अनुसूचित जाति विभाग की ओर से रवाना की गई इस स्वाभिमान यात्रा का खास चेहरा दलित नेता और पूर्व नौकरशाह पीएल पूनिया हैं तो ब्राहमणों को लुभाने के लिये दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को लगाया गया है। सियासी चाल में फिल्म अभिनेता और यूपी कांग्रेस के अध्यक्ष राजब्बर भी अपनी पिछड़ी जाति का बखान करने लगे हैं। गुलाम नबी आजाद के सहारे कांग्रेस मुसलमानों को अपने पाले में खींचना चाहती है। राजनैतिक जानकार यह मान कर चल रहे हैं कि इस बार यूपी का विधानसभा चुनाव राहुल गांधी की अग्नि परीक्षा लेकर रहेगा। अगर यूपी की सत्ता में भी बीजेपी की वापसी हो गई तो फिर कांग्रेस का मिशन 2019 शायद ही सफल हो पायेगा। सोनिया गांधी की गिरती सेहत और राहुल गांधी के पार्टी अध्यक्ष की कुर्सी की ओर बढ़ रहे कदम भी यूपी की हार-जीत का फासला तय करेंगे। इसीलिए राहुल ने यूपी चुनाव की रणनीति बनाने लिए प्रशांत किशोर जैसे रणनीतिकार को जिम्मेदारी सौंपी है। प्रशांत लगातार इस कोशिश में लगे हैं कि कांग्रेस-सपा के बीच गठजोड़ हो जाये।
उत्तर प्रदेश में सत्ता का सियासी वनवास खत्म करने के लिये सबसे अधिक बेचैन भारतीय जनता पार्टी नजर आ रही है। बसपा, सपा और कांग्रेस भाजपा के प्रचार तंत्र के सामने कहीं नहीं टिक रहे। सबसे ज्यादा रैलियां भाजपा ने ही की हैं। भाजपा यूपी में करो या मरो के हिसाब से काम कर रहा है। उसे पता है कि यूपी में अगर बीजेपी का विजयी रथ अगर ठहर गया तो 2019 में दिल्ली के लिए उसकी राह काफी मुश्किल हो जाएगी। बीजेपी की परिवर्तन यात्रा, पिछड़ा वर्ग सम्मेलन, युवा सम्मेलन और महिला सम्मेलन से लोगों को जोड़ने की कोशिश जारी है। महिला विंग की कमान मायावती पर विवादित टिप्पणी करने वाले निष्कासित बीजेपी नेता दयाशंकर सिंह की पत्नी स्वाती सिंह संभाल रही हैं जो मायावती-दयाशंकर प्रकरण से उभरीं हैं। पार्टी की कोशिश की है लगभग हर जिले में महिला, युवा और पिछड़ा वर्ग सम्मेलन करके ज्यादा से ज्यादा लोगों तक अपनी बात पहुंचाई जाए। हालांकि अभी तक पार्टी ने एक भी टिकट घोषित नहीं किया है। वैसे कहा यह भी जा रहा है कि यूपी सहित पांच राज्यों में होने वाले विधान सभा चुनाव में नोटबंदी के पक्ष और विपक्ष में वहां की जनता अपना फैसला सुना सकती है। कुल मिलाकर यूपी की सियासत मकड़जाल जैसी उलझी नजर आ रही है।
परिवारवाद भी चर्चा में..
उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव में प्रत्याशियों को लेकर इस बार भी कोई बड़ा बदलाव देखने को नहीं मिल रहा है। हमेशा की तरह इस बार भी बागी, दागी और परिवारवाद का बोलबाला दिखने लगा है। चुनाव तारीखों के ऐलान के बीच भाजपा, सपा, कांग्रेस और बसपा में टिकट के लिए मारामारी तेज हो गई है। बसपा ने अघोषित रूप से अपने प्रत्याशी तय कर लिये हैं। सपा में भी टिकट बंटवारे का काम तेजी से चल रहा है,लेकिन राष्ट्रीय पार्टी कहलाने वाली कांग्रेस और बीजेपी में अभी मामला ठंडा पड़ा हुआ है। बीजेपी तो मकर संक्रांति के बाद टिकट घोषित करने की बात कह रही है,लेकिन कांग्रेस का ध्यान टिकट बांटने से अधिक सपा के साथ गठबंधन पर लगा है। कांग्रेस बिहार की तरह यूपी में भी 70-80 सीटें मिलने पर भी सपा के सामने समपर्ण कर सकती है। बात परिवारवाद की कि जाये तो बसपा में जहां रिश्तेदारों की संख्या सीमित है, वहीं भाजपा और सपा में दिग्गज नेता अपने परिवार और रिश्तेदारों के लिए विधानसभा के टिकट का जुगाड़ करने के लिये तन-मन-धन सेें जुटे हुए हैं।
यूपी विधानसभा को लेकर भाजपा में इस बार सबसे अधिक टिकट के लिए मारामारी चल रही है। नोटबंदी के पश्चात कुछ राज्यों में हुए निकाय और विधान सभा तथा लोकसभा के उप-चुनावों में बीजेपी जिस तरह से उभर कर आई है,उससे उसके हौसले बढ़े हुए हैं। बीजेपी में सर्वे और इंटरव्यू के सहारे पार्टी दिग्गजों के रिश्तेदारों को एडजस्ट करने की कवायद चल रही है। पुराने दिग्गज नेता और राजस्थान के राज्यपाल से लेकर केंद्रीय मंत्री कलराज मिश्र और पूर्व मुख्यमंत्री जगदम्बिका पाल अपने-अपने रिश्तेदारों के लिये हाथ-पैर मार रहे हैं। दूसरी ओर बाहरी नेताओं ने भी अपने- अपने चहेतों की सूची पार्टी आलाकमान को सौंप रखी है। अगर सब कुछ ठीकठाक रहा तो कल्याण सिंह के पोते और राजबीर सिंह राजू भईया के पुत्र एटा विधानसभा से चुनाव लड़ सकते हैं। इसके अलावा फतेहपुर सीकरी से कल्याण के एक और रिश्तेदार हेमवीर सिंह ने भी चुनाव लड़ने के लिए कमर कस ली है। वह लोध समाज के वोटों को भाजपा के पाले में ला सकते हैं। केंद्रीय मंत्री कलराज मिश्र केंद्र में अपनी आखिरी पारी खेल रहे हैं। वह अपने सुपुत्र अमित मिश्र को समय रहते पार्टी में एडजस्ट करना चाहते हैं। अमित के लिए लखनऊ की सीट उपलब्ध कराई जा सकती है। इसके अलावा जगदम्बिका पाल भी बस्ती सदर से अपने रिश्तेदार को चुनावी मैदान में उतारने की कवायद में हैं। पूर्व केंद्रीय मंत्री और आगरा के सांसद राम शंकर कठेरिया की धर्मपत्नी को इटावा से टिकट मिलना लगभग तय है। पूर्व मंत्री उदय भान करवरिया की धर्मपत्नी नीलम करवरिया भी इलाहाबाद के मेजा से टिकट की होड़ में हैं। भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और पुराने दिग्गज नेता ओमप्रकाश सिंह के सुपुत्र मिर्जापुर से टिकट के लिए कतार में हैं। इसके अलावा बसपा से भाजपा में शामिल हुए दिग्गज नेता स्वामी प्रसाद मौर्य और बृजेश पाठक भी अपने चहेतों के लिए टिकट चाहते हैं। स्वामी प्रसाद मौर्य के सुपुत्र उत्कृष्ट मौर्य रायबरेली से चुनाव लड़ सकते हैं जबकि ब्राह्मण चेहरे के तौर चर्चित बृजेश पाठक की धर्मपत्नी को भी टिकट मिल सकता है। कांग्रेस से नाराज होकर भाजपा में आईं वरिष्ठ नेता रीता बहुगुणा जोशी अपने पुत्र मयंक जोशी के लिए टिकट चाहती हैं। हालांकि भाजपा रीता बहुगुणा जोशी को इलाहाबाद से चुनाव लड़ाना चाहती है। वरिष्ठ नेता लालजी टंडन के सुपुत्र गोपालजी टंडन लखनऊ से विधायक हैं। उनका टिकट पक्का माना जा रहा है। भाजपा सरकार बनने की स्थिति में सत्ता में महत्वपूर्ण भागीदारी मिल सकती है। गृहमंत्री राजनाथ सिंह के सुपुत्र पंकज सिंह बीजेपी के प्रदेश स्तरीय नेता हैं। चुनाव में उनकी भूमिका महत्वहपूर्ण होगी,उनको चुनाव लड़ाने का फैसला हाईकमान को लेना है। सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी में बाहुबली से लेकर पार्टी दिग्गजों के रिश्तेदारों तक के टिकट पक्के माने जा रहे हैं। सपा सु्प्रीमो मुलायम सिंह यादव के परिवार के दो से तीन नए चेहरे आगामी विधानसभा चुनाव में अपना भाग्य आजमा सकते हैं। मुलायम सिंह की बहू अपर्णा यादव को लखनऊ विधानसभा से टिकट मिल चुका है। शिवपाल यादव के सुपुत्र आदित्य यादव अपने पिता की विधानसभा जसवंत नगर के प्रभारी हैं। इस बार वो भी चुनाव में अपना भाग्य आजमाएंगे। सपा ने अब तक लगभग करीब 210 उम्मीदवारों की सूची जारी कर दी है। इनमें आजम खान के बेटे औबेदुल्ला आजम को रामपुर के स्वार से टिकट मिला है। इससे पहले सूची में शाही इमाम अहमद बुखारी के दामाद उमर अली खान को भी बेहट, सहारनपुर से टिकट मिल चुका है। सपा में बाहुबलियों को भी दिल खोलकर टिकट दिया गया है। इनमें सिगबतुल्ला अंसारी को गाजीपुर के मोहम्दाबाद सीट, अतीक अहमद को कानपुर कैंट और नसीमुद्दीन सिद्दीकी के भाई हसीमुद्दीन सिद्दीकी को टिकट दिया गया है। अंसारी बंधुओं का टिकट भी पक्का है जबकि मधुमिता हत्याकांड मामले में उम्रकैद की सजा काट रहे पूर्व विधायक अमरमणि त्रिपाठी के पुत्र अमनमणि को भी टिकट मिल चुका है। उन पर भी अपनी पत्नी की हत्या का आरोप का है,लेकिन सीबीआई द्वारा उनकी गिरफ्तारी के बाद अब अमनमणि का टिकट कट भी सकता है। सपा ने कांग्रेस के बागी विधायक मुकेश श्रीवास्तव को भी टिकट दिया है। मुकेश एनएचआरएम घोटाले में आरोपी हैं। ये हालात सभी राजनीतिक दलों में हैं।
यूपी में आधे विधायक दागी
उत्तर प्रदेश के कुल 403 विधायकों में से 47 प्रतिशत यानी 189 विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनमें से 98 ऐसे हैं जिनके ऊपर हत्या, बलात्कार जैसी संगीन धाराओं में रिपोर्ट दर्ज है। विधायकों के हलफनामों के आधार पर तैयार यूपी इलेक्शन वॉच की रिपोर्ट के मुताबिक सपा के 224 विधायकों में से 111 पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनमें से 56 के खिलाफ गंभीर मामले हैं। सपा के बाद दूसरा नंबर बसपा का है। उसके 80 विधायकों में से 29 के खिलाफ आपराधिक मुकदमे हैं, जिसमें से 14 माननीयों पर तो गंभीर मामले हैं। इस मामले में भाजपा का ट्रैक रिकार्ड भी अच्छा नहीं। उसके 47 में से 25 विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले हैं जबकि इनमें 14 पर गंभीर आरोप हैं। कांग्रेस के 28 में से 13 विधायकों पर आपराधिक मामले हैं।
यूपी के छह विस चुनावों में कांग्रेस की परफार्मेंस
वर्ष सीट
2012 28
2007 22
2002 25
1996 33
1993 28
1991 46
यूपी 2012 चुनाव में रही पार्टियों की स्थिति
पार्टी/निर्दलीय सीट वोट प्रतिशत
समाजवादी पार्टी 224 29.13 प्रतिशत
बहुजन समाजवादी पार्टी 80 25.91
भारती जनता पार्टी 47 15.00
कांग्रेस पार्टी 28 11.65
राष्ट्रीय लोकदल 09 2.33
निर्दलीय 06 4.13
पीस पार्टी 04 2.35
कौमी एकता दल 02 0.55
अपना दल 01 0.90
राष्ट्रवादी कांग्रेस 01 0.33
इत्ततहाद-ए-मिल्लत का. 01 0.55
लेखक अजय कुमार लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं.