उत्तराखण्ड में चकबंदी के चंद पैरोकार राष्ट्रीय परिदृश्य में खेती-किसानी की दुर्दशा के कारणों के साथ-साथ वैश्विक स्तर पर अमेरिकी नेतृत्व में पूंजीवादी देशों द्वारा तीसरी दुनिया के देशों पर किये जा रहे बहुकोणीय हमलों पर विचार किये बिना यहाँ भी चकबंदी अनिवार्यतः लागू करने के अभियान में जुटे हुए हैं। वे समय तथा पारिस्थितिजन्य वास्तविकताओं की अनदेखी कर अपनी जिद मनवाने पर तुले हुए हैं।
प्रति वर्ष 23 दिसंबर को किसान दिवस मनाने वाले इस कृषि प्रधान देश में आज कृषि-कर्म अनार्थिक बन गया है। देश के कर्णधार विगत 67 वर्षों में अपने किसान को अपनी उपज का मूल्य निर्धारित करने की व्यवस्था नहीं बना सके। नतीजतन बाजार के रहम-ओ-करम पर निर्भर भारतीय किसान को जितना भी मूल्य मिल जाता है, उसे मन मार कर उतने पर ही संतोष करना पड़ता है। दुनिया के किसी भी व्यवसाय में शायद ऐसी स्थिति नहीं होगी। जबकि बीज, खाद, सिंचाई, ढुलाई, कृषि उपकरण व यंत्र, कीट व खरपतवार नाशक, मजदूरी आदि के व्यय में बेतहाशा वृद्धि होने से खेती का लागत मूल्य अधिक होता जा रहा है। देश में कृषि आर्थिकी के विशेषज्ञ जानते हैं कि किसान की मेहनत का 80 प्रतिशत लाभ ट्रेडर्स नैक्सस हथिया लेता है।
देश के कृषि विशेषज्ञों तथा भारत सरकार के आंकड़ों से बात जरूर साफ हो जायेगी। भारत सरकार के नैशनल सेम्पल सर्वेक्षण दफ्तर के आंकड़े बताते हैं कि आज देश में सिर्फ 68 फीसदी लोग ही खेती के व्यवसाय से जुड़े हुए हैं। जबकि पिछली सदी में 60 के दशक तक यहाँ 82 प्रतिशत लोग खेती-बाड़ी के पेशे में लगे हुए थे। इससे साफ जाहिर है कि इस बीच देश के 14 प्रतिशत लोग कृषि क्षेत्र से पलायन कर गये। नैशनल सेंपल सर्वे के ही आंकड़े गवाह हैं–2011 की जनगणना के अनुसार देश में प्रतिदिन 2,035 लोग खेती छोड़ कर अन्य व्यवसाय अपना रहे हैं। देश में सन् 1991 में 11 करोड़ से अधिक किसान थे। अगले दस वर्षों के भीतर यह संख्या घटकर 10 करोड़ 30 लाख रह गई और 2011 में सिर्फ 9 करोड़ 58 लाख। स्पष्ट है कृषि-कर्म नुकसानदायक होने से ही किसान खेती छोड़ रहे हैं।
नैशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2001 में प्रति वर्ष एक लाख किसानों में 15.7 किसानों ने आत्महत्या की, जो 2011 में बढ़ कर 16.3 हो गई। अकेले वर्ष 2010 में ही 15,964 कृषक मौत को गले लगाने को विवश हुए। यह वह दौर था, जब देश के कृषि क्षेत्र को चैपट करने वाला नीति निर्माता वर्ग और उसका साथी मीडिया भी ऋण के बोझ से दबे शराब उद्योगपति विजय माल्या की किंगफिशर एअरलाइन को बेलआउट पैकेज देने पर लंबी-चैड़ी बहस में मुब्तिला थे और देश के बहुसंख्यक किसानों से जुड़ा कोई मुद्दा उनके लिए बहस का आधार नहीं था। कभी देश में सर्वाधिक कृषि उत्पादन से समृद्ध रहा पंजाब का किसान आज भारी ऋणग्रस्त है। पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के अनुसार वहाँ के 89 प्रतिशत किसान ऋण-बोझ से दबे हुए हैं। प्रत्येक कृषि परिवार पर औसतन 1.75 लाख रुपये से भी अधिक का कर्जा है, अर्थात् वहाँ प्रति हैक्टेअर 50,140 रुपये का ऋणभार है।
हमने वैश्विक उदारीकरण की चकाचैंध से प्रभावित होकर 1991 के बाद जिस अर्थव्यवस्था को अपनाया, उसने यहाँ सर्वाधिक कबाड़ा खेती का किया। इसी कारण देश के निराश किसान आत्महत्या को मजबूर हुए। एक कृषि प्रधान देश के रूप में यदि भारत के शासकों तथा नीति निर्माताओं व योजनाकारों ने यहाँ की खेती-बाड़ी को बढ़ावा और प्रश्रय दिया होता तो आज हमारे किसानों को आत्महत्या जैसा जघन्य महापाप करने को विवश नहीं होना पड़ता। कभी लहलहाती भरपूर फसलों के लिए मशहूर रहे पंजाब, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, मप्र, छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडीसा तथा उप्र के बुंदेलखंड में विगत दस वर्षों के भीतर भारी कर्ज में डूबे लगभग पाँच लाख किसानों का बेबसी में खुदकुशी कर लेना अत्यंत लज्जाजनक है।
उल्लेखनीय है कि अठारहवीं शताब्दी में यूरोप तथा अमेरिका में हुए भारी औद्योगीकरण ने शेष दुनिया को भले ही इस ओर आकृष्ट किया, परंतु देखा जाये तो भारत जैसे कमजोर देश के लिए इसके परिणाम आशानुकूल नहीं आये। यहाँ की सरकारों का ध्यान सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि के लिए केवल उद्योगों को बढ़ावा देने की ओर रहा। इससे न केवल सरकार बल्कि अर्थशास्त्रियों तथा विशेषज्ञों को भी अल्प समय में ही उद्योग, संचार, यातायात, उच्च तकनीक, उपभोक्ता वस्तुओं की खपत आदि में ही विकास की अपार संभावनाएं दिखने लगीं। इसका दुष्परिणाम कृषि क्षेत्र को भोगना पड़ा। वह उद्योगों के बरक्स लगातार पिछड़ता गया और अंततोगत्वा आज वह गंभीर रूप से न केवल बीमार है, बल्कि मरणासन्न हालत में पहुँच गया है।
भारतीय कृषि इतिहास के भयानक दौर से गुजर रही है। छोटे और सीमांत किसान कृषि से पलायन कर भूमिहीन मजदूर बन गये हैं। यदि हमने खेती-किसानी की ओर जरा भी ध्यान दिया होता तो उजड़ रहे गाँवों में न तो मातम पसरा होता, न महानगरों की झोपड़ पट्टियों से अटी मलिन बस्तियों में जिंदगियां सिसक रही होतीं। देश के नगर-महानगरों में आबादी का ज्वार भी साल-दर-साल इस कदर नहीं उफनता और न तज्जनित समस्याएं ही मुँह बाये खड़ी होतीं।
पिछली लगभग सभी केन्द्रीय सरकारों ने कृषि की लगातार उपेक्षा की। यदि लालबहादुर शास्त्री तथा इंदिरा गांधी के पहले कार्यकाल को छोड़ दें तो शेष सभी सरकारों ने देश की आर्थिकी का आधार कृषि को माना ही नहीं। जबकि देश का बहुसंख्यक समाज इससे जुड़ा हुआ था और आज भी है। देश के किसानों के दुर्भाग्य की इबारत लिखने वाला देश का कतई गैर-जिम्मेदार तबका है नई दिल्ली के वातानुकूलित कक्षों में बैठकर देश की आर्थिकी को ‘मजबूती’ प्रदान करने के सपने दिखाने वाला शासक वर्ग। पिछले लगभग डेढ़ दशक में खेती-किसानी में लगे परिवार तबाह हो गये, गाँव निराशा के भँवर में फँस गये, गाँवों में भुखमरी के कारण मौत का तांडव चलता रहा, खेती मौत की फसल में तब्दील होती गई, किसान और उपभोक्ता के बीच चट्टान की तरह अडिग बिचैलिये जबरदस्त मुनाफा बटोरते रहे। मगर निर्णायक शक्तियां हाथ पर हाथ धरे मूकदर्शक की तरह बैठी रहीं।
1991-92 के दौर में पीवी. नरसिंह राव के समय अमेरिका तथा यूरोपीय धनाढ्य देशों के प्रभुत्व वाले विश्व व्यापार संगठन के दबाव में संधि पर हस्ताक्षर करना भारत के बहुसंख्यक छोटी जोत के किसानों के लिए मौत का फरमान साबित हुआ। इसी समझौते के कारण देश में भरपूर फसल उत्पादन के बावजूद खाद्यान्न का आयात जरूरी हो गया। यही नहीं देश के किसान अपने परंपरागत बीजों को अपने खेतों में बोने से ही महरूम कर दिये गये। अधिक पैदावार के बहाने बीजों की संकर किस्मों ने पौष्टिकता तथा रोग व मौसम प्रतिरोधी क्षमता से भरपूर स्थानीय बीजों को बाजार तथा चलन से बाहर कर दिया। किसानों की विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अत्यंत महंगे बीजों तथा कीटनाशकों पर निर्भरता बढ़ती गई और भारी मात्रा में उर्वरकों के इस्तेमाल से खेतों की उर्वरा शक्ति कम होती गई। जबकि दूसरी ओर उर्वरकों पर अनुदान (सब्सिडी) धीरे-धीरे खत्म कर दी गई और डीजल के दाम पिछले दस वर्षों में तिगुने हो गये।
इसके अतिरिक्त काश्तकारी के लगातार घाटे का सौदा बनते चले जाने का एक सबसे बड़ा कारण है देश के किसानों को आजादी के 67 वर्षों के बाद भी उन्हें अपनी उपज के मूल्य निर्धारण का अधिकार देने से महरूम रखा जाना। यह कैसी विडंबना है कि कमरतोड़ मेहनत से फसल पैदा करने वाले किसानों को अपने उत्पाद की कीमत निर्धारित करने की कोई व्यवस्था हम नहीं बना पाये। फलस्वरूप बाजार की शक्तियों के आगे बेबस किसान को अपनी फसल औने-पौने दामों बेचनी पड़ती है। यहाँ यह विचारणीय प्रश्न है कि जिस देश की 82 प्रतिशत जनता के हित-लाभ को दरकिनार कर योजनाएं बनाई जाती हों, क्या वह कभी तरक्की कर सकेगा?
देश के नीति-नियंताओं ने दुनिया के अमीर देशों से औद्योगीकरण तो सीखा, परंतु वे अपने किसानों के हित में कैसे और क्या-क्या उपाय करते हैं, यह देखना जरूरी नहीं समझा। केवल ऑस्ट्रेलिया का उदाहरण ही काफी होगा। अपने गेहूं की जबरदस्त पैदावार को गरीब तथा विकासशील देशों में खपाने के लिए ऑस्ट्रेलियन ह्वीट बोर्ड तमाम तरह के हथकंडे अपनाता है। यही नहीं वहाँ का कृषि मंत्रालय हर साल भारत के मेहनती किसानों को ऑस्ट्रेलिया आमंत्रित कर उन्हें आसान शर्तों पर बड़े-बड़े कृषि फार्म अलॉट करने के अलावा अन्य सुविधाएं भी देता है। ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, कनाडा, जर्मनी जैसे देश जिनमें अधिकांशतः मशीनों द्वारा खेती करने से उत्पादन लागत बहुत कम आती है, अपने किसानों को भारी अनुदान (सब्सिडी) देते हैं और भारत जैसे शारीरिक श्रम पर आधारित काश्तकारी वाले मुल्कों पर अपने किसानों को सरकारी अनुदानों से वंचित करने का दबाव बनाते हैं। ताकि विश्व-बाजार में उनके मुकाबले हमारे कृषि उत्पाद स्वतः महंगे हो जायें।
इसके विपरीत जब हम अपने कृषि मंत्रालय की तरफ देखते हैं तो देश के पिछले कृषि मंत्री को खेती-किसानी से अधिक क्रिकेट में व्यस्त पाते हैं। यहाँ तक कि उनके अपने गृह राज्य के विदर्भ क्षेत्र में ही काश्तकारी का ऐसा बंटाढार हुआ कि देश में सर्वाधिक लाचार किसानों ने खुदकुशी वहीं की। सही मायने में जब देश की आजादी से अब तक खेती-किसानी के विकास की दिशा में सोचा ही नहीं गया, तो निश्चय ही देश के अन्नदाता किसान ही के भूखों मरने की नौबत आयेगी। अतः देश के नीति निर्माताओं, अर्थशास्त्रियों, वैज्ञानिकों, बुद्धिजीवियें तथा जनसामान्य के लिए अब भी समय है सोचने, विचारने और इस दिशा में सकारात्मक कदम उठाकर कृषि क्षेत्र को बर्बाद होने से बचाने का।
इसके लिए खेती को उद्योग का दर्जा देकर उसे देश के ग्रोथ इंजन के तौर पर लाना होगा। अब तक का अनुभव यह बताता है कि राष्ट्रीय स्तर पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी.) का स्तर ऊँचा करने के लिए जब देश की पहली निर्वाचित सरकार से लेकर नरेन्द्र मोदी तक किसी ने भी बहुसंख्यक किसानों को आधार माना ही नहीं तो देश में कृषि क्षेत्र तो चैपट होगा ही। उसे बर्बाद होने से कोई नहीं रोक सकता। देश के असहाय किसान इसीलिए आत्महत्या जैसा जघन्य पापकर्म करने को विवश होते रहे हैं।
यह बड़े दुख तथा आश्चर्य की बात है कि उत्तराखण्ड में चकबंदी के पैरोकार राष्ट्रीय स्तर पर खेती किसानी की क्या हालत बना दी गई है, इस पर जरा भी नहीं सोचना चाहते। क्या उत्तराखण्ड में चकबंदी हो जाने से खेतों की मिट्टी सोने में बदल जायेगी? क्या चकबंदी कराकर ये लोग पहाड़ के किसानों को भी आत्महत्या के रास्ते पर नहीं धकेल रहे हैं? बेहतर होगा यदि यहाँ चकबंदी लागू करने से पहले देश के किसानों, सरकारी नीतियों तथा वैश्विक परिदृश्य का अध्ययन जरूर कर लिया जाये। अन्यथा उत्तराखण्ड में चकबंदी की वकालत करना जानबूझ कर अन्धे कुएं में छलांग लगाने और आत्महत्या करने की तैयारी जैसा है।
उत्तराखण्ड में भी देश के अन्य भागों की तरह श्रम का मूल्य व महत्व बहुत तेजी से क्षीण हुआ है और खेती-किसानी पूरी तरह घाटे का सौदा बन गयी है। इसके अतिरिक्त विविध कारणों से पूरा हिमालयी क्षेत्र निरंतर ठंडे रेगिस्तान में बदलता जा रहा है, पर्वतीय क्षेत्र में वर्षा का औसत निरंतर घट रहा है, जलस्रोत लगातार सूखते जा रहे हैं, खेतों में जंगल उग आये हैं, वन्य जंतुओं की संख्या में दिन दूनी और रात चैगुनी वृद्धि होती जा रही है, वैश्विक स्तर पर संस्कार, परंपरा, पारस्परिक सद्भाव, अपनी मिट्टी से लगाव-जुड़ाव आदि पर धन का आकर्षण लगातार घनीभूत होता जा रहा है, भोगवाद चरमसीमा को छू रहा है, जनप्रतिनिधि गैर जिम्मेदार हो गये हैं, भ्रष्टाचार का भस्मासुर समाज को लीलता जा रहा है…, अब कहाँ तक गिनाया जाये, ऐसे ही विविध कारणों से पहाड़ के लोग अपने पुश्तैनी घर-जमीन को छोड़ने को विवश हो गये हैं।
इसके अलावा दरकते आपसी रिश्तों के इस दौर में पर्वतांचल के युवक बूढ़े माता-पिता की सेवा करने की अपेक्षा उन्हें उनके गाँवों में एकाकी जीवन काटने को छोड़ कर स्वयं बीवी-बच्चों के साथ अन्यत्र चले जाते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में छोटी-छोटी नौकरियों में कार्यरत नौजवानों में भी ऐसी प्रवृत्ति बढ़ रही है। उन्हें अपने गाँव में रहने की अपेक्षा वैसी ही दूसरी जगहों पर रहना अच्छा लगता है। उनकी मामूली पढ़ी-लिखी पत्नी गाँव में रह कर खेती-किसानी व मवेशी पालने में हाथ बँटाने की बजाय केवल अपने पति व बच्चों तक ही सीमित रहना पसंद करती है। इसीलिए शादी-विवाह से पहले लोग कन्यार्थियों को प्राथमिक वार्तालाप में ही चेता देते हैं कि उनकी कन्या खेतीबाड़ी के काम नहीं जानती या यह उसके बस का रोग नहीं है।
यह भी एक कारण है वर्तमान पहाड़ी गाँवों के जनशून्य होने तथा वहाँ बूढ़ों की संख्या में लगातार वृद्धि और कभी गुलजार रहे बहुमूल्य आवासीय भवन खंडहरों में तब्दील होने का।
ऐसी स्थिति में यहाँ के पर्वतांचल के लिए चकबंदी की सिफारिश करना आत्मघाती होगा क्योंकि इससे लोगों के पूर्ण पलायन अर्थात् उनकी पुनर्वापसी की संभावना एकदम असंभव हो जायेगी और जो यहाँ थोड़े से बचेखुचे लोग रहेंगे वे अपनी ही पुश्तैनी जगह पर शरणार्थियों जैसा जीवन जीने को विवश होंगे।
चाहे आज उत्तराखण्ड में चकबंदी समर्थक कितने ही कुतर्क दे लें, मगर यह दिन के उजाले की तरह एकदम स्पष्ट है कि यहाँ चकबंदी होने से पहाड़ी समाज बड़ी तेजी से अपनी जमीन खो बैठेगा और इससे उसे कोई रोक नहीं सकेगा। जिसका नमूना अनेक पर्वतीय स्थानों में देखा जा सकता है। जहाँ भोलेभाले गरीब साधनहीन किसानों की बेशकीमती जमीनें कौडि़यों के दाम खरीद कर एक से एक महंगे होटल, रिसॉर्ट, गैस्ट हाउस, पब्लिक स्कूल आदि बाहरी लोगों द्वारा खोले गये हैं। यही नहीं उन्होंने स्थानीय लोगों की पुरखों के जमाने से संरक्षित गौचर-पनघट, रास्ते, जलस्रोत, गाड़, गधेरे आदि पर भी वैध-अवैध कब्जे व निर्माण कर लिए हैं।
क्या इन तथ्यों को अनदेखा करने से पहाड़ के किसानों का भला हो जायेगा? यदि चकबंदी के इन पैरोकारों का मकसद वास्तव में राज्य के किसानों की भलाई है तो फिर ये इन तथ्यों के आलोक में कोई विचार क्यों नहीं करते। केवल अपनी तरफ से एकतरफा ढपली बजाने से तो कृषि आधारित पहाड़ के लोगों का अहित ही होगा, यह निश्चित है। सस्ती लोकप्रियता बटोरने के लिए चकबंदी को माध्यम बनाना कहाँ की बुद्धिमानी है? यदि ये लोग वास्तव में पहाड़ के किसानों के हितैषी हैं तो–
(1)-यहाँ की कृषि आधारित आर्थिकी का ब्लू प्रिण्ट प्रस्तुत करें।
(2)-किसानों को उनकी उपज के मूल्य निर्धारण का अधिकार दिलायें।
(3)-किसानों की मेहनत के कुल लाभ का 80 प्रतिशत तक लूट लेने वाले बिचैलियों (ट्रेडर्स नैक्सस) को समाप्त करायें।
(4)-देश की जलवायु का नियमन करने वाले हिमालय को लेकर राष्ट्रीय नीतियां बनवायें।
(5)-कृषि को उद्योग का दर्जा दिलायें।
(6)-कृषि को आयकर के दायरे में शामिल करायें।
(7)-किसानों के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों के संकर बीजों को बोने की अनिवार्यता समाप्त कराने और देसी तथा परंपरागत बीजों को बोने की छूट दिलायें।
(8)-उत्तराखण्ड को भी संविधान के अनुच्छेद-371 के अन्तर्गत सम्यक तथा सुसंगत प्रावधानों की छतरी के दायरे में लायें।
(9)-विश्व व्यापार संगठन समझौते के उस अनुच्छेद को हटवायें जिसके अनुसार किसी देश में अनाज के पर्याप्त भंडार होने के बावजूद उसे खाद्यान्न आयात भी करना पड़ता है, भले ही उसके पास भण्डारण के साधन न होवें और उसका अपना घरेलू उत्पादन सड़ रहा हो, जैसा कि भारत में हो रहा है।
ऐसे बहुत से सकारात्मक कार्य हैं जिनके द्वारा उत्तराखण्ड ही नहीं, बल्कि देश के बहुसंख्यक किसानों की दयनीय दशा को सुधारा जा सकता है। ऊपरोक्त बिन्दुओं पर गंभीरतापूर्वक विचार करने के साथ-साथ सोचना पड़ेगा कि जब, लहलहाती भरपूर फसलों के लिए मशहूर रहे पंजाब, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, मप्र, छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडीशा तथा उप्र के बुंदेलखंड में विगत दस वर्षों के भीतर भारी कर्ज में डूबे लगभग पाँच लाख किसान बेबसी में खुदकुशी करने को मजबूर हो गये तो फिर पूर्णतया वर्षा पर आधारित उत्तराखण्ड के किसान किस प्रकार अपने खेतों से सोना उपजा सकेंगे? पर्वतीय क्षेत्र की खेती-बाड़ी को किस तरह आर्थिक दृष्टि से लाभदायक बनाया जा सकेगा, इस पर पहले बात होनी चाहिये।
उत्तराखण्ड में चकबंदी कानून लागू होने पर भू-माफिया काफी सक्रिय व सशक्त हो जायेगा
उत्तराखण्ड में चकबंदी कानून लागू होने पर अभी यह अनुमान लगाना अत्यंत कठिन है कि यहाँ चकबंदी से आगे कितनी हानि होगी, परंतु आज यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि प्रदेश में तब भू-माफिया काफी सक्रिय और सशक्त हो जायेगा। कारण, अन्य हिमालयी राज्यों में बाहरी लोगों के जमीन खरीदने पर संवैधानिक रोक लगी है, परंतु इसके उलट उत्तराखण्ड में जमीनों की खरीद-फरोख्त में पाबंदी की बजाय सुविधा तथा आसानी है। आगे चकबंदी से तो पर्याप्त मात्रा में यहाँ एकमुश्त जमीन चाहने वालों के लिए और भी सुविधाजनक हो जायेगा। जबकि रसूखदार, अधिकार संपन्न और दबंग लोग बेशकीमती जमीनें अपने नाम पहले ही दर्ज करवा चुके होंगे। ऐसा 1956-60 के बीच उत्तराखण्ड में हुई भू-पैमाइश के दौरान देखने में आया था। तब यहाँ के प्रभावशाली लोगों द्वारा सरकारी अमले से सांठ-गांठ कर सरकारी अभिलेखों में की जाने वाली हेराफेरी आमजन के बीच ‘दिन में हैंछा खानापूरी, रात में रबड़ घुस’ के द्वारा अभिव्यक्त होती थी।
ऐसी दशा में चकबंदी से पहाड़ में मुकदमेबाजी की एक नयी शुरुआत होगी, यह निश्चित है। जैसी कि मैदानी इलाकों में हुई थी। वहाँ लोग चकबंदी दफ्तर के चक्कर वर्षों से काट रहे हैं, जिसका अंदाजा पहाड़ के लागों को नहीं है। प्रभावशाली और दबंग लोगों ने वहाँ अपने मन-मुताबिक जमीनें अपने नाम दर्ज करवा लीं और कमजोर देखता ही रह गया था। इसलिए चकबंदी पर बात करने से पहले वहाँ जाकर देखा जाना चाहिए, जहाँ के किसानों पर यह जबरन लाद दी गयी थी। इसके पीडि़तों का दुख जाने बिना उत्तराखण्ड में चकबंदी की वकालत करना बहुत बड़ी गलती होगी।
वैसे भी ऐसे राज्य में जहाँ के एक पहाड़ी शहर में अन्तर्जातीय विवाह करने के कारण अपने परिवार से अलग 10‘ गुणा 12’ के एक सीलन भरे कमरे में किसी तरह दिन गुजार रहा व्यक्ति बमुश्किल एक दशक के भीतर न केवल मुख्यमंत्री बन जाता है, बल्कि वह करोड़ों की सम्पत्ति का मालिक भी हो जाता है, वहाँ बिल्डर तथा रिसॉर्ट लॉबी क्या गुल नहीं खिलायेगी। इसी संदर्भ में उत्तराखण्ड के लोग स्टुर्जिया प्रकरण को भूले नहीं हैं जिसके लिए कानून में संशोधन तक कर दिये गये थे।
दरअसल, यह एक अत्यंत गंभीर विषय है और इस पर प्रदेश के जनप्रतिनिधियों, प्रशासनिक अधिकारियों, मनीषियों, चिंतकों तथा आमजन को सोचना चाहिए। यह स्पष्ट है कि उत्तराखण्ड के लिए भी अन्य हिमालयी राज्यों की तरह संविधान के अनुच्छेद-371 के अन्तर्गत सुसंगत प्रावधान कर उन्हें लागू किये बिना चकबंदी यहाँ के लिए विकास नहीं विनाश का कारण बनेगी। इससे पलायन कम होने की अपेक्षा और भी तेजी से होगा। गाँव के गाँव रातों रात थोक में बिक जायेंगे।
जमीनों की लूट का एक ऐसा ही प्रयोग ‘चमचों के विकास पुरुष’ की अगुवाई में प्रदेश के रहनुमा कर चुके हैं, जब प्रदेश की नजूल भूमि को फ्री-होल्ड करने का अध्यादेश पारित किया गया था और केवल तीन दिन के बाद उसे वापस भी ले लिया गया था। सिर्फ उन तीन दिनों के भीतर प्रदेश की एक ताकतवर और मुख्यमंत्री की अत्यधिक मुँहलगी मंत्री ने नैनीताल जिले के भाबर क्षेत्र में 85 बीघा नजूल भूमि अपने परिजनों के नाम दर्ज करवा ली। उस लूट के विरुद्ध आज तक किसी ने मुँह नहीं खोल। इस तरह के हालात जिस प्रदेश के हों वहाँ बिना अनुच्छेद-371 की मदद के चकबंदी लागू करना आत्महत्या करने जैसा होगा, यह निश्चित है।
चकबंदी को लेकर कुछ लोग पड़ोसी राज्य हिमाचल का उदाहरण देते हैं, परंतु वे यह भूल जाते हैं कि जब उसे राज्य का दर्जा मिला था तब वहाँ ‘चमचों का विकास पुरुष’ नहीं बल्कि डॉ. यशवंत सिंह परमार जैसा दूरदर्शी व वैज्ञानिक सोच वाला नेता मुख्यमंत्री था। और तब वन संरक्षण अधिनियम जैसा अवरोधक कानून भी अस्तित्व में नहीं था। तभी उन्होंने बिना चकबंदी किये ही चक बाँट कर हजारों हेक्टेअर जमीन पर सफलतापूर्वक बाग-बगीचे लगवाये। इसके अलावा एक खास बात यह भी है कि हिमाचली आम आदमी उत्तराखण्ड के लोगों की तरह लापरवाह, बतरस, आलसी और कामचोर न तब था और न आज है। कामचोरों को चकबन्दी अपने ही घर में शरणार्थी बना देगी, यह निश्चित है क्योंकि इससे पहाड़ के चकों की एकमुश्त खरीद बड़े-बड़े बिल्डरों और रियल एस्टेट के धंधेबाजों के लिए बहुत आसान हो जायेगी।
इसलिए अनुच्छेद-371 के अंतर्गत संवैधानिक प्रावधानों के बिना उत्तराखण्ड में चकबंदी लागू करना पहाड़ी समाज के लिए अभिशाप से कम नहीं होगा। यह बंदर के हाथ में उस्तरा देने जैसा ही होगा। जिसका अंदाजा इसके पैरोकार आज नहीं लगा पा रहे हैं। इसलिए आज उत्तराखण्ड को चकबंदी से अधिक और पहली जरूरत संविधान के अनुच्छेद-371 के अंतर्गत सम्यक तथा सुसंगत प्रावधानों की है। इसके बिना पृथक राज्य निर्माण ही व्यर्थ हो गया है।
उत्तराखण्ड में चकबंदी के चंद पैरोकार अपने भोथरे कुतर्कों द्वारा समाज को गुमराह कर उसका अहित करने पर क्यों आमादा हैं, यह किसी की समझ में नहीं आ रहा है। लगता है कि वे अपनी जिद और पूर्वाग्रहों के अंधे कुएं से बाहर निकलने को बिल्कुल भी तैयार नहीं हैं। यदि वे देश-दुनिया व समाज का अध्ययन, मनन, चिंतन करते हुए उपरोक्त तथ्यों पर गौर करने का कष्ट करें तो वे यहाँ के पर्वतीय समाज को व्यापक विनाश की ओर धकेलने का अपना प्रयास छोड़ देंगे। कहीं यह न हो कि चैबे जी छब्बे बनने गये, दूबे होकर लौटे। या फिर आप तो डूबे बामना, ले डूबे जजमान। यह मात्र एक विनम्र सुझाव है।
आइये, प्रार्थना करें कि प्रदेश में चकबंदी के इन पैरोकारों को ईश्वर सद्बुद्धि प्रदान करें।
श्यामसिंह रावत
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