बुधवार (03 अक्तूबर) की घटनाओं और आज के अखबारों में छपी खबरों के लिहाज से सबसे महत्वपूर्ण खबर है – मुख्य न्यायाधीश के रूप में न्यायमूर्ति रंजन गोगोई का शपथ लेना और शाम में उनके सम्मान में आयोजित समारोह में कही उनकी बातें। एक और खबर, बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती द्वारा इस साल के आखिर में राजस्थान और मध्य प्रदेश में होने वाले चुनावों के सिलसिले में कांग्रेस को कथित रूप से झटका दिए जाने की खबर का राजनीतिक महत्व है। और यह सभी अखबारों में पहले पेज पर है। ज्यादातर लीड।
पर अगर किसी अखबार को खबर में मेहनत करना था, संदर्भ याद रखने की जरूरत थी तो वह निश्चित रूप से न्यायमूर्ति गोगोई का मुख्य न्यायाधीश के रूप में शपथ लेना है। वैसे तो मुख्य न्यायाधीश का चुनाव पूर्व घोषित होता है पर श्री रंजन गोगई का मामला इस लिहाज से अलग और गौरतलब है कि इस साल 12 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट के उस समय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्र के खिलाफ जिन चार जजों ने पहली बार प्रेस कांफ्रेंस की थी उनमें से एक, न्यायमूर्ति रंजन गोगोई भी हैं।
इस खबर का महत्व इस बात से भी पता चलता है कि द टेलीग्राफ ने आज कलकत्ता मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पीटल की फार्मैसी में आग लगने और उसके बाद मरीजों तथा तीमारदारों की परेशानी की स्थानीय खबर को लीड बनाया है और तस्वीर के साथ प्रमुखता से छापा है। फिर भी न्यायमूर्ति रंजन गोगोई की खबर पहले पन्ने पर बॉटम है। हिन्दी अखबारों में दैनिक हिन्दुस्तान ने न्यायमूर्ति गोगोई की खबर का शीर्षक लगाया है, फांसी जैसे मामलों में ही तत्काल सुनवाई होगी। अंग्रेजी में इस बारे में कहा गया है कि अर्जेन्ट सुनवाई के लिए वही मामले लिए जाएंगे – अगर कोई मारा जा रहा हो, फांसी चढ़ाया जा रहा हो या बेदखल किया जा रहा हो। अंग्रेजी में इसके लिए उपयोग किए गए शब्द क्रम से ‘किल्ड’, ‘हैंग्ड’ और ‘एविक्टेड’ हैं। इसे सिर्फ फांसी कहना अधूरा है। हिन्दी में ‘किल्ड’ और ‘हैंग्ड’ को एक कर दिया गया है। और इसके मुकाबले बेदखल किए जाने की क्या औकात? बहरहाल, यह संपादन में तथ्यों की अधूरी प्रस्तुति है।
दैनिक भास्कर ने आज इस खबर को काफी विस्तार से और पृष्ठभूमि की पूरी जानकारी के साथ छापा है। अखबार ने पांच कॉलम के टॉप बॉक्स में 12 जनवरी की कहानी याद दिलाई है और टीवी या फिल्मों के फ्लैशबैक की तरह श्वेत-श्याम तस्वीरों के साथ 8 महीने 22 दिन पुरानी ऐतिहासिक तस्वीर के चार जजों में से एक, न्यायमूर्ति जस्टिस जे चेलमेश्वर के बारे में बताया है कि वे रिटायर हो चुके हैं। अखबार के मुताबिक वे अपने विदाई समारोह में शामिल नहीं हुए थे और बाद में कहा था, “मुझे प्रेस कांफेंस करने का पछतावा नहीं है। इससे जागरूकता बढ़ी है।” दूसरे न्यायमूर्ति रंजन गोगोई मुख्य न्यायाधीश हो गए हैं जबकि न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर अब सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठता क्रम में दूसरे नंबर पर हैं और न्यायामूर्ति कुरियन जोसेफ तीसरे नंबर पर हैं। अखबार ने लिखा है कि पद संभालने के बाद उन्होंने पहला फैसला वही लिया जिसके कारण उन्हें तीन साथियों के साथ मीडिया में जाना पड़ा था।
न्यायमूर्ति गोगोई ने जनवरी की अपनी प्रेस कांफ्रेंस में सुप्रीम कोर्ट के रोस्टर सिस्टम पर सवाल उठाया था और कल, पहले ही दिन उसमें बदलाव कर दिया तो निश्चत रूप से यह बड़ी बात है और भले आम पाठकों को याद नहीं हो, पर सूचना देना तो अखबार का काम है ही। और यह क्यों मान लिया जाए कि न्यायमूर्ति गोगोई के मुख्य न्यायाधीश बनने पर भी पाठकों को उत्सुकता नहीं होगी। इस लिहाज से भास्कर का काम प्रशंसनीय है। हालांकि, भास्कर में भी दूसरे अखबारों की तरह ‘किल्ड’ और ‘हैंग्ड’ को एक मान लिया है। अखबार ने इससे संबंधित बॉक्स खबर का शीर्षक लगाया है, इमरजेंसी वाले केस की तत्काल सुनवाई होगी। कम जगह या शब्दों में खबर देने की कोशिश में लिखा गया है, कोई फांसी पर चढ़ने वाला है या किसी को उसके घर से बेदखल कर दिया गया हो तो ऐसे ही मामलों में तत्काल कार्रवाई होगी। मुझे लगता है कि इससे वह भाव व्यक्त नहीं हो रहा है जो मुख्य न्यायाधीश की बात में है। और हिन्दी के ज्यादातर अखबारों में ऐसा ही है क्योंकि सबने हिन्दी की कॉपी या अनुवाद ही हैंडल किया होगा, मूल अंग्रेजी की कॉपी देखी ही नहीं होगी। कायदे से टीवी पर मुख्य न्यायाधीश का भाषण सुना होता तो यह चूक नहीं होती।
अमर उजाला ने भी शीर्षक लगाया है, फांसी, घर से बेदखल मामलों में ही तत्काल सुनवाई। लेकिन मुख्य न्यायाधीश ने जिन तीन मामलों को प्राथमिकता देने की बात कही है उसमें कोई मर रहा हो को यहां भी हटा दिया गया है और उसे फांसी में शामिल मान लिया गया है। जो मेरे ख्याल से मुख्य न्यायाधीश के कहे का भाव पूरी तरह व्यक्त नहीं करता है। असल में आम मान्यता है कि किसी को फांसी चढ़ाकर ही मारा जा सकता है जिसे सुप्रीम कोर्ट में अपील करके रुकवाया जा सकता है। इस बारे में मुख्य न्यायाधीश की क्या कल्पना है, मैं नहीं जानता पर कई बार किसी को अवैध रूप से गिरफ्तार कर लिया जाए और उसकी हत्या का डर हो तो निश्चित रूप से यह आवश्यक मामला है और फांसी से अलग है। मुख्य न्यायाधीश ने जो कहा है उससे ऐसे मामलों को भी प्राथमिकता मिलेगी। कोई अस्पताल में हो किसी कारण से लग रहा हो कि उसका इलाज संतोषजनक नहीं हो रहा है या नहीं हो रहा है और देर होने से उसकी मौत हो सकती है तो पर्याप्त आधार होने पर ऐसे मामले भी सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में लाए जा सकते हैं जबकि फांसी में यह सब शामिल नहीं है। हालांकि भास्कर ने इस खबर को विस्तार से छापा है। वैसे भी भास्कर का पहला पेज खबरों के लिहाज से समृद्ध लगता है। सबसे ज्यादा खबरें सर्वश्रेष्ठ अंदाज में प्रस्तुत की गई हैं।
पत्रकार और अनुवादक संजय कुमार सिंह की टिप्पणी। संपर्क [email protected]