चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की 19 वीं कांग्रेस के बारे में कामरेड अखिलेन्द्र प्रताप सिंह का विश्लेषण : टाइम्स आफ इण्डिया ने अपने सम्पादकीय में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के दूसरी बार चुने गए महासचिव शी जिनपिंग को नया माओ कहा है। माओ जी दोंग की जब बात होती है तो चीन ही नहीं एशिया यहां तक की विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन में स्टालिन के बाद उसके प्रमुख प्रेणता के रूप में लोग उन्हें जानते है। दाशर्निक स्तर पर लेनिन के बाद उनकी प्रकृति, समाज, ज्ञान और वर्ग संघर्ष के बारे में द्वंद्वात्मक समझ को स्टालिन से परिपक्व और उन्नत माना जाता है। जबकि स्टालिन की द्वंद्वात्मक समझ को अधिभूतवाद से प्रभावित माना जाता है।
बहरहाल माओं के बाद देंग जिआओं पिंग चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के नेता बनकर उभरे और चीन में जो सुधार कार्यक्रम उन्होंने शुरू किया तो उन्हें ढ़ेर सारी आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा और उन्हें चीन का ख्रुश्चेव भी कुछ लोगों ने घोषित किया। माओ निर्विवाद रूप से एक महान नेता थे और देंग की भी भूमिका चीन को खड़ा करने में बहुत महत्वपूर्ण रही है। देंग भी चीन में माओ के बाद महान नेता की ही श्रेणी में आते है और उनकी भी विचारधारा को चीनी दस्तावेज में जगह मिली हालांकि थ्येन मैन चैक में नागरिक अधिकार आंदोलन पर जिस तरह का दमन हुआ वह चीनी इतिहास में काले धब्बे के रूप में ही जाना जायेगा।
शी जिनपिंग की 19 वीं कांग्रेस के बाद जिस तरह से चर्चा हो रही है और उनके नए युग के चीनी विशिष्टता के समाजवाद को चीन के संविधान में जो जगह मिली है उससे लोग उन्हें माओ जी दोंग के बाद देंग से भी अधिक ताकतवर मान रहे है। माओ जहां वर्ग संघर्ष को ही मुख्य कड़ी के रूप में लेते हुए उत्पादन पर जोर बढ़ा रहे थे वहीं देंग ने उत्पादक शक्तियों को बढ़ाने और तद्नुरूप आर्थिक-सामाजिक संरचना को बदलने पर जोर दिया लेकिन एक समाजवादी राज्य के निर्देशन व नियत्रंण में ही चीन ने चैतरफा विकास किया। वैश्विक वित्तीय पूंजी की आक्रामकता के बाबजूद चीनी राज्य ने मौद्रिक और वित्तीय नीतियों पर अपना नियंत्रण बनाएं रखा। देंग ने चीन को अंदर से मजबूत करने, अपना उत्पादन बढ़ाने, दुनिया भर में व्यापार को विकसित करने पर जोर दिया लेकिन जिस तरह अंर्तराष्ट्रीय स्तर पर अपनी राजनीतिक भूमिका को बेहद सीमित कर दिया और अमरीका के मनमाने ढ़ग से सम्प्रभु राष्ट्रों पर की गयी कार्यवाहियों पर चुप्पी साध ली उसे लोकतांत्रिक शक्तियों में अच्छा नहीं माना गया और चीन की आलोचना भी हुई।
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव शी जिनपिंग के जिस नए युग की बात हो रही है उसमें चीन आने वाले दिनों में देंग के बरक्स अंर्तराष्ट्रीय स्तर पर अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाना चाहता है और इसे चीन की एक साम्राज्यी महत्वकांक्षा की चाल कहकर इसकी आलोचना करना और इससे भारत के सम्भावित खतरों पर बात करना सरासर गलत है। चीन एक ध्रुवीय दुनिया को लोकतांत्रिक दुनिया बनाने की पहल करता है तो भारत को उससे लाभ होगा। बराबरी और न्यायपूर्ण अंर्तराष्ट्रीय व्यवस्था भारत के लिए बेहद जरूरी है। चीन की व्यापारिक नीति और ओबीओआर (वन बेल्ट वन रोड) की पहलकदमी को किसी भी स्तर पर साम्राज्यवादी पहलकदमी कहना पूरी तौर पर गलत है। ओबीओआर से आंखे चुराना या उसका विरोध करना उचित नहीं है।
भारत का राष्ट्रीय हित अमरीका की आंचलिक शक्ति बनने में कतई नहीं है। उत्पादन, तकनीक और व्यापार के क्षेत्र में अमेरीका जैसी ताकतें हमें कभी भी स्वावलम्बी नहीं होने देंगी। नवउदारवादी नीतियों के इन पच्चीस सालों में इससे बड़ा प्रमाण और क्या मिल सकता है कि अमरीका फस्र्ट की घोषणा जो बार-बार ट्रम्प करते है उसकी चोट हमारे ऊपर पड़ने लगी है। आईटी से लेकर ढ़ेर सारे सेवा क्षेत्र उससे प्रभावित होने लगे है, यह बताने की जरूरत नहीं है। भारत भी चीन की तरह वित्तीय, मौद्रिक और व्यापार नीतियों पर अपना नियंत्रण बनाए रखता तो हम भी हो रहे गहरे आर्थिक संकट की मार से बच सकते थे। भारत को अमरीका, जापान की धुरी से बंधने से बेहतर होता कि हम अन्य उभर रहे विकल्पों पर भी विचार करते। बराबरी की हैसियत से चीन, रूस, मध्य एशिया, ईरान जैसे देशों के साथ अपना बेहतर रणनीतिक रिश्ता कायम करना कहीं से गलत नहीं होता। खैर चाहे जो भी हो, शी जिनपिंग चीन के लिए नए युग के प्रेणता बने इसके लिए उन्हें चीन में भी एक ऐसी बहुआयामी गतिशील राजनीतिक व्यवस्था कायम करनी होगी जिसमें थ्येन मैन चैक की घटना की पुर्नरावृत्ति नहीं होगी और हर हाल में मानव मर्यादा की रक्षा होगी।
अखिलेन्द्र प्रताप सिंह
स्वराज अभियान