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सियासत

कांग्रेस के लिए वक्त है आत्मावलोकन और बदलाव का

जब लगातार नेतृत्व की अस्वीकार्यता उभर कर आ रही हो, जब सम्पूर्ण राजनैतिक हलके में साख गिरती नज़र आ रही हो, जब परिवार के कारण पार्टी की फजीहत हो रही हो, जब संगठन की विफलता मुँह बाहे खड़ी हो, जब सार्वभौमिक रूप से नकारा जा रहा हो, जब अपने ही सैनिक मैदान से भाग रहे हो, कार्यकर्ताओं के मनोबल में क्षीणता दिखने लगे, जब सेनापति विहीन सेना मैदान छोड़ने लगे, जब गुटबाजी चरम पर हो, एक दूसरे की टांग खींचना परंपरा बनने लगे, जब संगठित शक्तियाँ स्वयं कमजोर सिद्ध होने लगे तब ऐसे समय में राजनैतिक दल के के मुखिया को आत्मावलोकन का मार्ग जरूर अपनाना चाहिए।

आम चुनाव २०१९ में जनादेश आ गया, और मोदी के नेतृत्व में भाजपा एवं सहयोगी देश की जनता की पहली पसंद बनें। किन्तु इसी के साथ कांग्रेस का बतौर श्रेष्ठ विपक्ष बनकर भी न उभर पाना दुर्भाग्य ही रहा। भाजपा देश की सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी के तौर पर दूसरी बार काबिज होने में सफल रही वही कांग्रेस फिर दूसरी बार जनता की दहाई अंकों की परिभाषा में सिमट-सी गई। इसके पीछे की राजनैतिक मंशाओं और कांग्रेस का सशक्त नेतृत्व विहीन होना तो उत्तरदायी है ही इसके साथ भी अन्य कई कारक है जो लगातार कांग्रेस को पीछे धकेलने में अपनी सफलता बनाए हुए है। यह समय कांग्रेस के लिए पुनरावलोकन का है, ऐसे समय में जब लगातार दूसरी बार देश के मतदाताओं ने मोदीजी, भाजपा व सहयोगियों को जनादेश सौंपा है, तब आंकलन करना, विवेचना करना अधिक आवश्यक और भविष्य की रणनीति के लिए जरूरी भी हो जाता है। सत्य तो यह भी है कि बिना स्वयं को जांचे, परिक्षित किए, अवलोकित किए, हार के कारणों का विश्लेषण किए सत्ता सुंदरी को हासिल कर पाना दूर की कोड़ी है।

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शुरूआती दौर में यदि कांग्रेस के मध्यप्रदेश के चरित्र की तरफ नज़र डाले तो सूबे के सभी कांग्रेसी दिग्गज अपने संसदीय क्षेत्र में डटे तो रहें किन्तु मतदाताओं के मन को भाँप कर उपचार करने में असफल भी रहें। मंत्रियों ने जनसंपर्क में कमी नहीं की होगी, किन्तु इस परिणाम से एक तस्वीर तो साफ हो गई कि कांग्रेस विधानसभा की तर्ज पर एकजुट हो कर नहीं लड़ी थी। वैसे ईवीएम का रोना रोने के कार्य में दक्ष कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को ठीकरा फोड़ने की बजाए आत्म अवलोकन करना चाहिए कि आखिर विधानसभा की जीत के बाद ऐसा क्या हुआ कि कांग्रेस मतदाताओं का विश्वास पुनः प्राप्त करने में असमर्थ रही। मालवा-निमाड़ जो मतदान के पूर्व तक कांग्रेसी नेताओं द्वारा गढ़ बताया जा रहा था, वो किला भी हवाई किला साबित हुआ। कर्ज माँफी में हुई धांधली या कहें बिना सर–पैर दुरुस्त किए, हवाई मार्ग से वचन निभाने के दम्भ ने भी कांग्रेस का बेड़ा गर्क किया है। जहाँ एक और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों ने प्रत्येक बूथ पर मैदान सम्भाल और घर-घर पहुंचकर भाजपा प्रत्याशियों के समर्थन में हस्तपत्र देकर उन्हें मतदान विषयक, पार्टी विषयक समझाया, वैसा कांग्रेस के सहयोगी दलों ने अपनी इस भूमिका को नहीं निभाया। टिकट वितरण को लेकर जो दीपक बावरिया के समय नाराज़गी आई थी, वैसे ही इस चुनाव में भी देखने को मिली। वैसे तो यह चुनाव लहर का नहीं बल्कि जनता द्वारा प्रधानमंत्री मोदी को परखकर व समझकर प्रचंड जनाधार प्रदान करने यानी भाजपा को 2024 तक अभेद किले में काबिज होने के आदेश के अनुपालन करने वाला व देश की बड़ी पार्टी को किनारे करना था। कई बार अचार में कच्चे आम के कड़वे रह जाने को नज़र अंदाज़ करके दोष राई की दाल या तेल के पुराने होने को दे दिया जाता है, उसी तरह मध्यप्रदेश में कांग्रेस की हार का आंकलन न कारण भी कांग्रेस के लिए दुखदायीं है।

देश में कांग्रेस आज जिस समस्या से जूझ रही है उसे बनाया भी कांग्रेस ने ही है। कांग्रेस को शीर्ष नेतृत्वविहीन पार्टी बना कर जो हाल वर्तमान कांग्रेस नेताओं ने किया है, यदि ऐसा ही चलता रहा तो सच में एक दिन ‘कांग्रेस एक खोज’ बन कर रह जाएगी। क्योंकि वर्तमान समय अंध भक्ति का नहीं बल्कि जागरूकता के बलबूते स्थापित होने और जनादेश प्राप्त करने का है। चमत्कार की उम्मीद तो है, किन्तु संशय के साथ, जिसमें यदि मूल पर पार्टी नहीं लौटी तो विचारधारा के सत्यानाश के साथ ही अस्मिता खत्म हो जाएगी।

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बहरहाल हार के मूल कारणों की बात करें तो सबसे अहम कारक नेतृत्व का लचर या कहें लाचार होना है। देशवासी कांग्रेस नेतृत्व में राष्ट्र का नेतृत्व देखता है, और जब वह असंतुष्ट होता है तब ही राजनीति में आपसे व आपकी पार्टी से दूर भागता है। कांग्रेस को बुद्धिमान और दूरगामी चिंतक नेतृत्व की आवश्यकता है जो अपने प्रखर प्रकाश से जनता को तरक्की का विश्वास दिला सकें, अन्यथा ढाक के तीन पात।

आज देश को मजबूत, कर्मठ, और क्रियाशील प्रधानमंत्री तो मिल गया किन्तु दुर्भाग्य से मजबूत विपक्ष नहीं मिल पाया। जबकि लोकतंत्र की मांग होती है क्रिया की प्रतिक्रिया, पक्ष का विपक्ष। परन्तु राहुल गाँधी के नेतृत्व में विगत पांच वर्षो में भी कांग्रेस यह कार्य नहीं कर पाई। अब तो लगता है कि गाँधी परिवार मुक्त कांग्रेस ही देश की मांग हो सकती है? यदि हाँ तो कांग्रेस को यह भी करना चाहिए, वर्ना कांग्रेस का भविष्य खतरे में है। इसी के साथ नेतृत्व की समझदारी, नियोजन और सक्षम सलाहकारों की भी आवश्यकता है, कुछ तो सलाहकार ले डूबे है।

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एक तो कांग्रेस वैसे भी पूरे पांच साल मोदी सरकार को मुद्दों पर घेरने में नाकामयाब रही, न वित्तनीति, न रक्षा नीति, न कृषिनीति और न ही आतंरिक विकास की परियोजनाओं पर सरकार से सवाल कर पाई, न ही सत्ता को कही घेर पाई, उसके बाद भी केवल नकारात्मक प्रचार के सहारे ही वो सत्ता में आने के दिवास्वप्न भी देखने लग गई।राफेल के मामले को बूथ स्तर तक मतदाताओं को बताने में नाकामयाब रही कांग्रेस भी टेलीविजन और सोशल मीडिया के सहारे यदि सत्ता हस्तांतरण का सपना देखती है तो यक़ीनन यह दिन में तारे देखने जैसा ही है। चुनाव के दौर में सेम पित्रोदा जैसे सलाहकार का का अंतिम समय में दिया ‘हुआ तो हुआ’ सिख विरोधी बयान भी कांग्रेस पर भारी पड़ गया। जबान का सही इस्तेमाल और भाषा पर सही पकड़ से दिल जीता जाता है, और उसी से हारा भी जाता है। इसी के साथ नकारात्मक प्रचार भी कांग्रेस की फजीहत करवा गया, जैसे चौकीदार चोर, केदारनाथ के ध्यान को नौटंकी साबित करने में समय लगाना, राफेल को भुना न पाना आदि। इसकी बजाय यदि कांग्रेस सरकार को मुद्दों पर घेरती, वित्त नीति, भाषा नीति, विदेश नीति आदि पर कुंडली बनाती तो शायद कांग्रेस का यह परिणाम नहीं होता।

कांग्रेस ने अपनी पूरी ऊर्जा चौकीदार को चोर सिद्ध करने में लगाई और देश हितार्थ मुद्दों पर चुप्पी पकड़ ली, जिससे वो उम्मीद का दिया नहीं बन पाई।

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न्याय नाम का फितूर भी फेल हो गया इससे यह सिद्ध हो गया कि हर जगह एक ही औजार काम नहीं आता है, जो दाँव मध्यप्रदेश में कर्ज माफी के रूप में चला और उसमें भी गड्ढे पड़ गए ऐसे में कांग्रेस को देश व्यापी ये गलती नहीं दोहरानी चाहिए थी। इसी के साथ कांग्रेस में कुशल रणनीतिकारों की कमी भी खली, जिसके अभाव में देश दमदार विपक्ष विहीन भी हो गया।

कांग्रेस के पास सेवा दल, यूथ कांग्रेस, एनएसयूआई, महिला कांग्रेस, प्रोफेशनल कांग्रेस, सब तो है फिर भी कांग्रेस का बूथ मैनेजमेंट नहीं है। कांग्रेस का कोई भी घटक मतदाताओं तक पहुँचने में असमर्थ ही है, वैसे कांग्रेस में प्रशिक्षण का चलन भी न के बराबर ही है, न कार्यकर्ताओं को बौद्धिक सत्र में प्रशिक्षित किया जाता है न ही उनके मनोबल को बढ़ाने का प्रबंधन। यदि कांग्रेस अपनी इन गलतियों से कुछ सीखे और फिर देश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तर्ज पर मतदाताओं से जुड़ा जा सके ऐसी प्रणाली विकसित करे, कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करने पर ध्यान दे, शीर्ष नेतृत्व को दुरुस्त करें, मजबूत संवैधानिक ढाँचा तैयार करने में कामयाब हो पाए, संसदीय प्रणाली को परिवारवाद, राजसी ठाठ से बाहर निकाल कर लोकतंत्रीय बनाने में सफल हो पाए तभी किसी चमत्कार की उम्मीद होगी। भाजपा का चुनावी प्रबंधन कांग्रेस और अन्य राजनैतिक दलों के लिए सीखने का विषय है, जिस पर अब भी गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया तो कांग्रेस को इतिहास के पन्नों में सिमटने से कोई रोक नहीं सकता।

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डॉ अर्पण जैन ‘अविचल’

पत्रकार एवं स्तंभकार

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संपर्क: ०७०६७४५५४५५

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