सुनील संवेदी
बांग्लादेश की राजधानी ढाका के सबसे सुरक्षित इलाके में आतंकी हमले के बाद दुनिया को आतंकवाद से बचाने और दोषी कौन पर बहस फिर शुरू हो गई। अब भारत की बारी पर भी चर्चायें हो रही हैं। इन सबमें शायद एक चीज पहली बार हुई है कि प्रिंट मीडिया से लेकर इलेक्ट्रानिक मीडिया, समाजशास्त्रियों से लेकर राजनीतिज्ञों ने इन आतंवादियों के ठाट-बाट पर कई दिनों तक अच्छी खासी चर्चा की। ढाका हमले में लिप्त आतंकवादी काफी धनिक परिवारों से थे। मतलब उन्होंने पैसे के लिए मानवता की हत्या कर खुद को मौत के मुंह में नहीं धकेला। इससे एक बात और साबित हुई कि गरीबी और अशिक्षा के चलते लोग आतंकवाद के रास्ते पर चल रहे हैं, ये सिद्धांत झूठा था। सिर्फ मुद्दे की दिशा बदलने के लिए इस सिद्धांत को गढ़ा गया था।
इससे एक बात और साबित हुई कि आतंकवाद का संबन्ध सिर्फ धार्मिक कट्टरता से है। जिसे जितना अधिक धार्मिक रूप से कट्टर बनाया जा सकता है उसे दूसरे की जान लेने और अपनी जान देने के लिए उतनी ही आसानी से तैयार किया जा सकता है। पिछले कुछ सालों से दुनिया के सभी आतंकी संगठनों में धनिक वर्गों के युवाओं और अच्छे भले पढ़े लिखे मसलन आईटी, कैमिकल इंजीनियर्स, प्रोफेसर्स, डॉक्टर्स आदि प्रोफेसनल्स का दखल तेजी से बढ़ा है। दुनिया के सबसे क्रूर आतंकी सरगनाओं में एक अल कायदा का सरगना ओसामा बिन लादेन इंजीनियर था। हाफिज सईद अच्छा भला पढ़ा लिखा है।
यूरोपीय और अमेरिकी देशों में बेहद खुलेपन वाले कल्चर और आधुनिकतम शिक्षा ग्रहण करने वाले तमाम युवा दुर्दांत आतंकी संगठन आईएस में शामिल होकर कत्लेआम कर रहे हैं। इन युवाओं के पास न पैसे की कमी है, न बेहतरीन जीवन यापन के लिए अवसरों का अकाल लेकिन सिर्फ धार्मिक कट्टरता से प्रभावित होकर ये युवा आतंकवाद का रास्ता चुन रहे हैं। ये सब देखकर ये बहस बहुत पीछे छूट गई है कि गरीबी के चलते युवा आतंकवाद की ओर कदम बढ़ा रहे हैं।
कहा जा रहा है कि ढाका हमले का एक आतंकवादी इस्लाम की बहावी शाखा के मुंबई निवासी एक उपदेशक के विचारों से बेहद प्रभावित था। इस उपदेशक पर बैन लगाने की भी मांग हो रही है। तो क्या इस्लाम के अन्य उदार धर्मोपदेशकों के विचार प्रभावहीन होने लगे हैं या उन विचारों को वक्त के खांचे में न ढालने की कोशिशों का खामियाजा पूरी कौम और दुनिया भुगत रही है। कुछ दिनों पहले अभिनेता सलमान खान के पिता सलीम खान ने बेहद दुःखी होकर कहा था कि अगर ढाका में हमला करने वाले आतंकवादी मुसलमान थे तो मैं मुसलमान नहीं हूं।
अभिनेता इरफान खान ने भी धर्मोपदेशकों को अपने विचारों का तरीका बदल लेने का सुझाव दिया था। इन दोनों ही जाने-माने लोगों का साफ मतलब है कि युवाओं को बेहद सरल, सौम्य, लचीले और आधुनिक विचारों की जरूरत है न कि छल्लेदार चासनी में लिपटे हुये धार्मिक मुहावरों की। असल में इन धार्मिक मुहावरों को या तो युवा समझ नहीं पाते या फिर जिंदगी की भागदौड़ में समझना नहीं चाहते। ऐसे में उदार विचारों के मुकाबले कट्टर विचार उन तक अधिक तेजी और आसानी से पहुंचते हैं।
दूसरी बात ये भी हुई कि इस्लाम को दुनिया के अन्य धर्मो के मुकाबले खड़ा कर दिया गया है न कि समानांतर। इस्लाम के अंदर भी दो धर्म खड़े हो गये। हालांकि अन्य धर्मों के अंदर भी कई धर्म हो सकते हैं लेकिन वे उदारता को लेकर एक दूसरे का मुकाबला करते दिखते हैं धार्मिक अंधता को लेकर नहीं। कुछ सालों पहले तक आतंकवाद से प्रभावित युवा आर्थिक निराशा और धार्मिक कट्टरता से संचालित हो रहे थे लेकिन अब ऐसा कहना वास्तविकता से मुंह चुराना होगा। अब सिर्फ धार्मिक कट्टरता प्रभावी तत्व है, वरना इंजीनियर्स, प्रोफेसर्स, डॉक्टर्स और उद्योगपति आतंकवादी नहीं होते।
ये मान लेना बेहद जरूरी है कि धार्मिक उपदेशक अपने विचारों के प्रस्तुतिकरण, शब्दों के चयन और वक्त की मांग में एकरूपता लाएं। आधुनिकतम शिक्षा भी अप्रभावी हो जाएगी अगर धार्मिक उदारता के संस्कार न हों। अथाह धन भी युवाओं को आंतकवाद की राह पर चलने से नहीं रोक सकेगा अगर उनका धर्म अन्य धर्मो के लिए मित्रता के दरवाजे नहीं खोलेगा।
लेखक सुनील संवेदी से संपर्क उनके मोबाइल नंबर 9897459072 के जरिए किया जा सकता है.