मेरे महबूब शायर वसीम बरेलवी से कल अरसे बाद मुलाकात हुई। वह् खुश हो गए और मैं झूम गया। मैं ने उन्हें उन की पुरानी यादों का ज़िक्र करते हुए उन के ही एक गीत का एक मिसरा जब सुनाया कि, ये खत तो जला डालिए, तहरीर तो जलती ही नहीं! और कहा कि आप भले भूल जाएं, हम कहां और कैसे भूल सकते हैं आप को भला? हमारी यादों की तहरीर तो नहीं ही जलने वाली। और उन के ही एक गीत की फिर याद दिलाई कि, इक तो गोरी नदी के जल में दूजे भरी जवानी में, जैसे कंवल खिला हो पानी में।
तो यह सुन कर वह मगन हो गए। मुझे गले लगा लिया। कहने लगे कि आप की यही मुहब्बत तो हम शायरों को ज़िंदा रखती है। राम स्वरूप सिंदूर की चौरासवीं जयंती पर आयोजित कार्यक्रम में शिरकत करने कल वह लखनऊ आए थे। मैं ने उन से एक शिकायत भी कि अब वह शेर पढ़ने से ज़्यादा तकरीर करने लगे हैं इस से सुनने में रसाघात होता है, यह गुड बात नहीं है। इस से हम जैसे आप के आशिकों को तकलीफ होती है। लेकिन वह तमाम सफाई देते रहे कि सब को समझाना भी जरूरी है। मैंने कहा कि अपने चाहने वालों को इतना जाहिल भी मत समझिए। लेकिन वह आधा सहमत हुए इस बात से आधा नहीं। पर कहा कि ज़रूर आप की बात पर गौर करूंगा। मैंने फिर उन्हें उन के ही दो शेर सुना दिए :
हर शख्स दौड़ता है यहां भीड़ की तरफ
और चाहता है कि उसे रास्ता मिले
इस दौरे मुंसिफी में जरूरी नहीं वसीम
जिस शख्स की खता हो उसी को सजा मिले
फिर तय हुआ कि उन की अगली लखनऊ यात्रा में इत्मीनान से बैठकी होगी। आप मित्रों के लिए उन की कुछ गज़लें जो मुझे बहुत पसंद हैं, यहां पढ़वाता हूं :
मैं इस उम्मीद पे डूबा के तू बचा लेगा
अब इसके बाद मेरा इम्तेहान क्या लेगा
ये एक मेला है वादा किसी से क्या लेगा
ढलेगा दिन तो हर एक अपना रास्ता लेगा
मैं बुझ गया तो हमेशा को बुझ ही जाऊँगा
कोई चराग़ नहीं हूँ जो फिर जला लेगा
कलेजा चाहिए दुश्मन से दुश्मनी के लिए
जो बे-अमल है वो बदला किसी से क्या लेगा
मैं उसका हो नहीं सकता बता न देना उसे
सुनेगा तो लकीरें हाथ की अपनी जला लेगा
हज़ार तोड़ के आ जाऊँ उस से रिश्ता वसीम
मैं जानता हूँ वो जब चाहेगा बुला लेगा
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खुल के मिलने का सलीक़ा आपको आता नहीं
और मेरे पास कोई चोर दरवाज़ा नहीं
वो समझता था, उसे पाकर ही मैं रह जाऊंगा
उसको मेरी प्यास की शिद्दत का अन्दाज़ा नहीं
जा, दिखा दुनिया को, मुझको क्या दिखाता है ग़रूर
तू समन्दर है, तो हो, मैं तो मगर प्यासा नहीं
कोई भी दस्तक करे, आहट हो या आवाज़ दे
मेरे हाथों में मेरा घर तो है, दरवाज़ा नहीं
अपनों को अपना कहा, चाहे किसी दर्जे के हों
और अब ऐसा किया मैंने, तो शरमाया नहीं
उसकी महफ़िल में उन्हीं की रौशनी, जिनके चराग़
मैं भी कुछ होता, तो मेरा भी दिया होता नहीं
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तुम्हारी राह में मिट्टी के घर नहीं आते
इसीलिए तो तुम्हें हम नज़र नहीं आते
मुहब्बतों के दिनों की यही ख़राबी है
ये रूठ जाएँ तो फिर लौटकर नहीं आते
जिन्हें सलीका है तहज़ीब-ए-ग़म समझने का
उन्हीं के रोने में आँसू नज़र नहीं आते
ख़ुशी की आँख में आँसू की भी जगह रखना
बुरे ज़माने कभी पूछकर नहीं आते
बिसाते -इश्क पे बढ़ना किसे नहीं आता
यह और बात कि बचने के घर नहीं आते
‘वसीम’ जहन बनाते हैं तो वही अख़बार
जो ले के एक भी अच्छी ख़बर नहीं आते
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कितना दुश्वार है दुनिया ये हुनर आना भी
तुझी से फ़ासला रखना तुझे अपनाना भी
ऐसे रिश्ते का भरम रखना बहुत मुश्किल है
तेरा होना भी नहीं और तेरा कहलाना भी
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हुस्न बाज़ार हुआ क्या कि हुनर ख़त्म हुआ
आया पलको पे तो आँसू का सफ़र ख़त्म हुआ
उम्र भर तुझसे बिछड़ने की कसक ही न गयी ,
कौन कहता है की मुहब्बत का असर ख़त्म हुआ
नयी कालोनी में बच्चों की ज़िदे ले तो गईं ,
बाप दादा का बनाया हुआ घर ख़त्म हुआ
जा, हमेशा को मुझे छोड़ के जाने वाले ,
तुझ से हर लम्हा बिछड़ने का तो डर ख़त्म हुआ.
XXX
क्या दुःख है, समंदर को बता भी नहीं सकता
आँसू की तरह आँख तक आ भी नहीं सकता
तू छोड़ रहा है, तो ख़ता इसमें तेरी क्या
हर शख़्स मेरा साथ, निभा भी नहीं सकता
प्यासे रहे जाते हैं जमाने के सवालात
किसके लिए ज़िन्दा हूँ, बता भी नहीं सकता
घर ढूँढ रहे हैं मेरा , रातों के पुजारी
मैं हूँ कि चराग़ों को बुझा भी नहीं सकता
वैसे तो एक आँसू ही बहा के मुझे ले जाए
ऐसे कोई तूफ़ान हिला भी नहीं सकता.
XXX
उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है
जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है
नई उम्रों की ख़ुदमुख़्तारियों को कौन समझाये
कहाँ से बच के चलना है कहाँ जाना ज़रूरी है
थके हारे परिन्दे जब बसेरे के लिये लौटें
सलीक़ामन्द शाख़ों का लचक जाना ज़रूरी है
बहुत बेबाक आँखों में त’अल्लुक़ टिक नहीं पाता
मुहब्बत में कशिश रखने को शर्माना ज़रूरी है
सलीक़ा ही नहीं शायद उसे महसूस करने का
जो कहता है ख़ुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है
मेरे होंठों पे अपनी प्यास रख दो और फिर सोचो
कि इस के बाद भी दुनिया में कुछ पाना ज़रूरी है
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उड़ान वालो उड़ानों पे वक़्त भारी है
परों की अब के नहीं हौसलों की बारी है
मैं क़तरा हो के तूफानों से जंग लड़ता हूँ
मुझे बचाना समंदर की ज़िम्मेदारी है
कोई बताये ये उसके ग़ुरूर-ए-बेजा को
वो जंग हमने लड़ी ही नहीं जो हारी है
दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत
ये एक चराग़ कई आँधियों पे भारी है
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लहू न हो तो क़लम तरजुमाँ नहीं होता
हमारे दौर में आँसू ज़ुबाँ नहीं होता
जहाँ रहेगा वहीं रौशनी लुटायेगा
किसी चराग़ का अपना मकाँ नहीं होता
ये किस मक़ाम पे लाई है मेरी तनहाई
के मुझ से आज कोई बदगुमाँ नहीं होता
मैं उस को भूल गया हूँ ये कौन मानेगा
किसी चराग़ के बस में धुआँ नहीं होता
‘वसीम’ सदियों की आँखों से देखिये मुझ को
वो लफ़्ज़ हूँ जो कभी दास्ताँ नहीं होता
लेखक दयानंद पांडेय वरिष्ठ पत्रकार और उपन्यासकार हैं. उनसे संपर्क 09415130127, 09335233424 और [email protected] के जरिए किया जा सकता है। यह लेख उनके ब्लॉग सरोकारनामा से साभार लिया गया है।