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महाराष्ट्र

साहब, हमका नवभारत टाइम्स पढ़े का है तनिक अंग्रेजी सिखाई दो!

मैं नवी मुम्बई में एक मध्यमवर्गीय ‘आवासीय सहकारी संस्था’ में रहता हूँ। पिछले तीन वर्षों से हिन्दी की उठापटक कर रहा हूँ इसलिए भारत सरकार के लगभग सभी मंत्रालयों से चिट्ठियाँ आती रहती हैं। कई बार प्रधानमंत्री कार्यालय और राष्ट्रपति भवन से सूचना कानून के तहत लगाए आवेदनों के उत्तर आते हैं। इस कारण से वाशी डाकघर में सभी जानने लगे हैं। इस कारण ये लोग मेरा थोड़ा बहुत मान भी करते हैं कि मुझे बड़े-बड़े लोगों की चिट्ठियां आती हैं पर उन्हें कौन बताए कि 20 पत्र लिखने के बाद एक उत्तर आता है। हर मंत्रालय की कमोवेश यही हालत है। जनता की समस्याओं को हवा में उड़ा देना। लेकिन मैं कहाँ हार मानने वाला हूँ।

<p>मैं नवी मुम्बई में एक मध्यमवर्गीय 'आवासीय सहकारी संस्था' में रहता हूँ। पिछले तीन वर्षों से हिन्दी की उठापटक कर रहा हूँ इसलिए भारत सरकार के लगभग सभी मंत्रालयों से चिट्ठियाँ आती रहती हैं। कई बार प्रधानमंत्री कार्यालय और राष्ट्रपति भवन से सूचना कानून के तहत लगाए आवेदनों के उत्तर आते हैं। इस कारण से वाशी डाकघर में सभी जानने लगे हैं। इस कारण ये लोग मेरा थोड़ा बहुत मान भी करते हैं कि मुझे बड़े-बड़े लोगों की चिट्ठियां आती हैं पर उन्हें कौन बताए कि 20 पत्र लिखने के बाद एक उत्तर आता है। हर मंत्रालय की कमोवेश यही हालत है। जनता की समस्याओं को हवा में उड़ा देना। लेकिन मैं कहाँ हार मानने वाला हूँ।</p>

मैं नवी मुम्बई में एक मध्यमवर्गीय ‘आवासीय सहकारी संस्था’ में रहता हूँ। पिछले तीन वर्षों से हिन्दी की उठापटक कर रहा हूँ इसलिए भारत सरकार के लगभग सभी मंत्रालयों से चिट्ठियाँ आती रहती हैं। कई बार प्रधानमंत्री कार्यालय और राष्ट्रपति भवन से सूचना कानून के तहत लगाए आवेदनों के उत्तर आते हैं। इस कारण से वाशी डाकघर में सभी जानने लगे हैं। इस कारण ये लोग मेरा थोड़ा बहुत मान भी करते हैं कि मुझे बड़े-बड़े लोगों की चिट्ठियां आती हैं पर उन्हें कौन बताए कि 20 पत्र लिखने के बाद एक उत्तर आता है। हर मंत्रालय की कमोवेश यही हालत है। जनता की समस्याओं को हवा में उड़ा देना। लेकिन मैं कहाँ हार मानने वाला हूँ।

बात कुछ दिन पुरानी है। उस दिन की घटना ने मुझे चौंकाया। हमारी संस्था के चौबीस घंटे के सेवक हैं श्री बहादुर सिंह। यह भला मानुष अहर्निश संस्था की दो इमारतों की सुरक्षा में तैनात रहता है। रीवा का रहने वाला है और पाँचवीं कक्षा तक पढ़ा है।

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एक दिन दफ्तर से लौटा तो उसने प्राप्त हुई चिट्ठियों का बण्डल मुझे सौंपा और कहने लगा ‘साहब! आप को सरकार से इतनी सारी चिट्ठियों क्यों आती हैं?

मैंने बताया कि मैं हिन्दी के लिए थोड़ा काम करता हूँ, सरकार से उसी के लिए जवाब आता है और मैं आगे बढ़ने लगा।

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तभी उसने टोका, साहब! एक शिकायत हमें भी भई रही, आप कोई मदद कर सकत हो का?

मैंने कहा ‘बोलो हो सकेगा तो ज़रूर कर दूँगा।’

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उसने कहा ‘या तो आप हम को अंग्रेजी सिखा दो या फिर हिन्दी के पेपरन (अख़बारों) में अंग्रेजी बंद करवा दो।’

मैंने अनजान बनते हुए कहा ‘हिन्दी पेपर तो हिन्दी में ही होता है ना!’

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उसने नवभारत टाइम्स और नवभारत नाम के मुम्बई से छपने वाले अखबार के पुराने अंक दिखाते हुए कहा ‘ई देखो साहब, कितनी जगह एबीसीडी लिखी है. हमको तो एबीसीडी काला अक्षर भैंसा बराबर। इतनी अंग्रेजी आती होती तो चौकीदार ना होते।’

दोनों अख़बार उसने उलट-पलट कर दिखा दिए।

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दुखी मन से आगे बोला ‘हम तो अनपढ़ नहीं थे पर अब लगता है हम अब भी अनपढ़ हैं। का करिहैं अब हिन्दी का पेपर भी पढ़ नहीं सकत।’ 

उसके चेहरे पर अबूझ सी पहेली थी, फिर बोला ‘साहब अब तो हिन्दी का पेपर पढ़न वास्ते अंग्रेजी सीखन ज़रूरी भई, हम का करें!’

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मैं अवाक् था कि एक पाँचवीं तक पढ़ा आदमी इतनी बड़ी बात कह गया, “हम तो अनपढ़ नहीं थे पर अब लगत है हम आज भी अनपढ़ हैं।”  यह बात क्यों इन अखबारों के संपादकों और मालिकों को समझ नहीं आती। हिन्दी समाचार चैनलों और इन तथाकथित हिन्दी अख़बारों ने देश के उन करोड़ों लोगों को फिर से अनपढ़ बना दिया है, जिन्होंने ने अपनी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की है और जो अंग्रेजी लिखना-पढ़ना नहीं जानते।

बात उसकी सही थी और मैं तो पहले से अख़बारों की हिंग्रेजी से चिढ़ा हुआ था, लेकिन मेरे पास कोई समाधान नहीं है।

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मैंने उसे ढांढस दिया ‘ऐसा मत बोलो, तुम पढ़े-लिखे हो, अपने आप को अनपढ़ मत कहो, इन अख़बारों को छोड़ो और दोपहर का सामना, यशोभूमि अथवा ‘दबंग दुनिया’ में से कोई भी अख़बार पढ़ लिया करो उनमें एबीसीडी नहीं छपती।’ (शायद उस मजबूर इंसान को अनपढ़ वाला ख्याल चोट पहुँचा रहा था।)

मैंने अपनी राह पकड़ी और सोचते-२ इमारत की तीसरी मंजिल तक पहुँच गया जबकि घर पहली मंजिल पर ही था।

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प्रवीण कुमार <[email protected]>

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