टीवी टुडे नेटवर्क का मीडिया स्कूल टीवीटीएमआइ आपसे दो लाख से ज्यादा रूपये लेगा. इसी तरह देश के दर्जनों अखबार और चैनल के अपने मीडिया स्कूल हैं. आप इनके विज्ञापनों से गुजरेंगे तो लगेगा कि कोर्स खत्म होने के साथ ही एंकर श्वेता सिंह, राहुल कंवर, पुण्य प्रसून वाजपेयी की छुट्टी कर दी जाएगी और प्राइम टाइम पर आप होंगे. शुरु के दो-चार दस दिन आपको ऐसा एहसास भी कराया जाएगा.
आप पहले ही दिन से कहीं भी आ जा सकते हैं, माइक छू सकते हैं, स्टूडियो खाली होने पर मॉक एंकरिंग कर सकते हैं, जिन चेहरे से मिलने की आपको हसरत रही है, वो आपको कैंटीन में चाय-कॉफी ऑफर करेंगे. लेकिन सालभर फैंटेसी की ये दुनिया कब खत्म हो जाएगी, आपको पता तक नहीं चलेगा. करीब तीन से चार लाख गंवाने के बाद आप आइआइएमसी, जामिया, डीयू से पढ़े लोगों की ही तरह कतार में होंगे. प्रोफेशनली जो सीखेंगे, वो काम तब तो आए जब उसके लिए अवसर भी हों. ये बात मैं इस दावे के साथ इसलिए कह रहा हूं कि मैंने अपने कुछ छात्रों को बहुत साफ-साफ समझाया लेकिन उन्होंने इसकी चमकीली दुनिया के आगे मेरी सलाह को दरकिनार कर दिया और अब अफसोस करते हैं.
अभी अखबारों में ऐसे सलाहकारों की बाढ़ आई हुई है. ये सलाहकार जिस अंदाज में करियर की बात करते हैं, वो विज्ञापन के करीब होते हैं. आप एक-एक लाइन पढ़िए, महसूस कीजिए. मैं आपको दावे के साथ बताता हूं कि जिस साहस, काम करने का जुनून, जज्बा व्लॉ-ब्लॉ की बात ये कर रहे हैं, आपमे ये दिख गया तो पूरी कोशिश होगी कि आपको दरकिनार कर दिया जाए. टीवी टुडे नेटवर्क अपनी क्लास में मोबाईल, रिकॉर्डिंग तक की इजाजत नहीं देता. खिलाफ बोलना-लिखना तो बहुत दूर की बात है. मैं बार-बार इस संस्थान की चर्चा इसलिए कर रहा हूं कि ये सबसे ज्यादा अवसर और प्रोफेशनलिज्म के दावे करता है जबकि भीतर की सच्चाई बेहद कुरूप और कोर्स करने के बाद आपको तोड़ देनेवाली है. यकीन न हो तो थोड़ी मेहनत करके यहां से निकले लोगों की बैच के बारे में पता कीजिए.
मेरे पास भी ऐसे सलाह लिखने के ऑफर आते हैं लेकिन मुझे लगता है हजार-दो हजार लिखने के तो मिल जाएंगे लेकिन इससे पूरी की पूरी पीढ़ी बुरी तरह गुमराह होगी. जितना संभव हो पाता है, इनबॉक्स में जवाब दे पाता हूं लेकिन ऐसे अखबारी सलाह आपको गुमराह करेंगे मुझसे इस पेशे को बेहद चमकीला, पैसे और जज्बे से भरा बताने के लिए कहा जाएगा जबकि इसकी सच्चाई कुछ और है. मैं आपसे ये बिल्कुल नहीं कह रहा, मीडिया में मत आइए. लेकिन इस तरह की राइट अप पढ़कर नहीं, ढंग की दो-चार किताबें पढ़कर आइए. इन विज्ञापननुमा सलाहों में आपके सपने बेचे जाते हैं जबकि आपको सपने बिकने नहीं देना है, उन्हें सहेजना है.
सिर्फ एंकरिंग और रिपोर्टिंग नहीं है पत्रिकारिता
मीडिया संस्थानों के विज्ञापनों पर गौर करेंगे खासकर जो होर्डिंग्स,कटआउट, किऑस्क या बसों पर लगाए जाते हैं तो आपको लगेगा कि पत्रकारिता का मतलब सिर्फ एंकरिंग या रिपोर्टिंग है. इसमे यही दो काम है जिसमें इज्जत है, पैसा है, शोहरत है, ग्लैमर है. यहां तक कि एंकरिंग करते हुए जिन खूबसूरत चेहरे के साथ कैमरामैन को दिखाया जाता है, वो मीडिया के साइड कैरेक्टर की तरह..
मीडिया के मेरे जो दोस्त एंकर, रिपोर्टर और विशेष संवाददाता हैं वो बेहतर महसूस करते हैं कि न्यूजरूम में उनकी क्या हैसियत है ? उनकी स्टोरी कैसे मारी जाती है, एंकरिंग के नाम पर कैसे केले बेचने जैसी हांक लगानी पड़ती है. आठ-आठ, दस-दस हजार रुपये पर कोल्हू की तरह जोता जाता है. दूसरी तरफ असाइनमेंट, फीड, पीसीआर, गेस्ट कॉर्डिनेशन आदि जगहों पर दर्जनों काम है जिसके बारे में ये संस्थान अपने विज्ञापनों में एक लाइन चर्चा तक करना जरूरी नहीं समझते. वो कोर्स के नाम पर केवल एंकर, रिपोर्टर बनने के आपके सपने को बेचते हैं. असल में सिनेमा और खुद शो के दौरान एंकर-रिपोर्टर को पेश किया जाता है तो आम दर्शकों के बीच ऐसी छवि बनती है कि पूरा चैनल क्या ये देश भी उन्हीं के दम पर चल रहा है. नतीजा मीडिया में आने की तमाम वजहों में से सबसे बड़ी वजह ये भी होती है कि हमारी शक्ल टीवी पर दिखेगी.
मैं एक साल में कम से कम दो से तीन हजार ऐसे छात्रों से मिलता हूं जो या तो मीडिया का कोर्स कर रहे होते हैं या फिर करने जा रहे होते हैं. अधिकांश लोगों के भीतर रिपोर्टर या एंकर बनने की इच्छा रहती है. कुछ तो बहुत ही खुले तौर पर जाहिर करते हैं, कुछ थोड़ी महीनी से..दो-चार बार ऐसा भी अनुभव रहा है कि बिना ये ध्यान दिए कि देखने में सुंदर है, पूछ बैठा- आप मीडिया में क्या करना चाहती हैं और तपाक से जो जवाब मिला वो मेरी अज्ञानता पर चोट थी- ऑविएसली एंकरिंग.
एंकर या रिपोर्टर बनने के सपने देखना बुरी बात नहीं है..बुरी बात इसमे है कि उसके कारण आपको बाकी के काम कमतर लगने लग जाएं और आपके भीतर इस बात को लेकर कॉम्प्लेक्स हो कि आपका चेहरा टीवी पर नजर नहीं आ रहा. ऐसा नहीं है कि ये सिर्फ नए लोगों में होता है. मैं न्यूज चैनल के एक से एक धुरंधर बॉस को देखता हूं जो स्क्रीन पर आने के लिए मार किए रहते हैं..स्पेस खुद से बनाते हैं और कुछ नहीं तो एंकर के साथ खुद पैनल में बतौर एक्सपर्ट बैठ जाते हैं. खैर
एक स्थिति तो ये है कि मीडिया संस्थान लाखों रूपये लेकर आपको सड़क पर छोड़ देता है. अभी पर्ल एकेडमी की फी देखी तो चार साल के कोर्स की कुल रकम पन्द्रह लाख से भी जयादा है. दूसरी स्थिति है कि आपको नौकरी तो मिल जाती है लेकिन एंकरिंग या रिपोर्टिंग की नहीं और आप फ्रस्ट्रेशन में होते हैं. अपने को कमतर मानने लग जाते हैं. आपकी इस कुंठा का विस्तार भी यही मीडिया संस्थान करते हैं क्योंकि इनके चैनल एंकर को रिंग मास्टर की तरह पेश करता है.
ऐसे में आपके लिए बेहद जरूरी है कि आप मीडिया कोर्स करते समय एंकरिंग- रिपोर्टिंग के अलावा बाकी के दर्जनों काम को पहले बारीकी से समझें. ये पहले दिन से तय कर लें कि आपको इनमे से दोनों काम नहीं मिलेंगे. कुछ ऐसे भी काम हो सकते हैं जो डीटीसी की पर्ची काटने से भी ज्यादा बोरिंग काम है. कुछ काम आपकी हैसियत और रूतबे के खिलाफ हो. मसलन पन्द्रह लाख देकर कोर्स करने के बाद आप ये तो नहीं चाहेंगे कि गेस्ट कॉर्डिनेशन में आकर गेस्ट को वाशरूम कहां है, साथ ले जाएं..फीकी चाय का इंतजाम करें, आउटडोर शूट में तंबू-टेंट का इंतजाम करें आदि. इसी बीच आपके किसी बैचलमेट को एंकर बना दिया जाए जिसका आधार टैलेंट न होकर शारीरिक सुंदरता हो, चमचई हो, सामनेवाले को खुश रखने की आदत हो.. मीडिया के उन दर्जनों काम को पहले समझना जरूरी है जिससे गुजरने के बाद आपको लगे कि इससे बेहतर बीएड, एमए, एमबीए जैसे दूसरे कोर्स करना है..आप इस कोर्स को चुनते वक्त अपने स्वभाव का विश्लेषण करें कि ये सब आप कर पाएंगे.
मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार के एफबी वॉल से.
Kamta Prasad
May 28, 2016 at 12:31 pm
बेरोजगारी हर जगह है। पेशवर कोर्स करने पर नाम और नामा दोनों की ख्वाहिश होती है। किसी एक क्षेत्र पर फोकस करने का कोई अर्थ नहीं.