Sandeep Kumar : पत्रकार साथियों, कृपा करके कल्पेश याग्निक की मौत को शहादत मत बनाइये। इस बात को प्लीज ग्लोरिफाई मत कीजिये कि खबरों का खिलाड़ी, एक कर्मवीर न्यूज रूम में चला गया, कि एक पत्रकार के लिए इससे अच्छा क्या हो सकता है…वगैरह, वगैरह। अच्छा बताइये भला आपमें से कितने लोग इसे लेकर रोमांचित हैं और न्यूज रूम में अपनी जान देना चाहते हैं।
क्या हम कभी चादर के नीचे से अपना सर निकाल कर उन वजहों के बारे में बात करेंगे जिनमें एक पचपन साला, एकदम फिट दिखने वाला पत्रकार असमय मौत का शिकार हो जाता है।
डेस्क पर काम करने वाले साथी सच बताएं क्या उनको रात को सपने नहीं आते कि आज पेज पर फलां खबर गलत छप गई है, अमुक खबर रिपीट हो गई है, आज पेज नंबर और तारीख गलत छप गई है और सुबह क्लास लगनी तय है।
रिपोर्टिंग के साथी क्या रात भी इस चिंता में करवटें नहीं बदलते कि फलां खबर मुझसे मिस हो गई है और अगर सुबह वह प्रतिस्पर्धी अखबार में नजर आ गयी तो मेरी खैर नहीं, कि संपादक जी कच्चा चबा जाएंगे?
अखबारों के न्यूज रूम में शाम का दृश्य भयावह होता है। लगभग हर आदमी का बीपी बढ़ा रहता है। गाली-गलौज, चिल्लाचोट, अफरातफरी, शोर-शराबा बेहद आम हैं। सरकार से मालिक, मालिक से संपादक, संपादक से समाचार संपादक और वहां से वरिष्ठï उप संपादक, उप संपादक तक डांट और चीख का एक अनवरत सिलसिला है जो कम ज्यादा अनुपात में हमेशा चलता ही रहता है। खबरों के लिए जुनूनी माने जाने वाले कई संपादक अपने संपादकीय साथियों पर किसी त्रासदी की तरह घटित होते हैं। क्या चीखने चिल्लाने वाला सिर्फ दूसरे को कष्ट देता है? नहीं बीपी तो उसका भी बढ़ता ही है और यह तय है।
कुछ वर्ष पहले इंदौर भास्कर के ही हमारे साथी प्रवीण दीक्षित की दिल का दौरा पडऩे से मौत हो गई थी। सबकी आवाज बुलंद करने वाला मीडिया अपने मामले में एकदम बेबस है। किसी अखबार या किसी मीडिया संस्थान में भर्ती की कोई खुली व्यवस्था ऊपर के लेवल पर नहीं है। आपकी पहचान और आपका काम, इन दोनों का मेलजोल ही आपको आगे ले जाता है।
मेन स्ट्रीम अखबार में काम करने वाले साथियों की दिनचर्या आपको बताता हूं। सुबह 10 या 11 बजे मीटिंग में आकर खबरों पर चर्चा करना, उसके बाद फील्ड पर निकलना, शाम को खबरें फाइल करना, रात में पेज पर खबर लगने के बाद तक रुकना यानी तकरीबन 11 बजे तक छूटना। डेस्क के साथियों के छूटने का समय रात के दो से चार बजे के बीच। यह अनियमितता शरीर पर बहुत बुरा असर डालती है। इसे अपने व्यक्तित्व की एनार्की से जोड़कर सेलिब्रेट मत कीजिये। कल्पेश याग्निक या किसी अन्य पत्रकार की ऐसी मौत को ग्लोरिफाई मत कीजिये। इस विषय पर मंथन कीजिये कि ऐसा क्यों हो रहा है।
बिजनेस स्टैंडर्ड के पत्रकार संदीप कुमार की एफबी वॉल से.
तनाव से बचने के लिए बीच बीच में छुट्टियां लेकर घूमते रहें… इसके लिए देखें नीचे दिए गए दो वीडियो…