नितिन त्रिपाठी-
एवोल्यूशन और प्राकृतिक आयु समझने का सबसे अच्छा उदाहरण है सलमोन मछली. यह मछली मीठे पानी के श्रोत में पैदा होती है, फिर जैसे ही थोड़ी बड़ी होती है तैरते हुवे समुद्र की ओर चली जाती है.
अपना लंबा समय समुद्र में बिताती है, फिर जब आयु इस योग्य हो जाती है कि बच्चे पैदा कर सकें तो हज़ारों किमी की दूरी तय कर वापस तटों की ओर आती है. हैवी साइज होता है तो रास्ते में उसे शिकार नहीं मिलना तो वह अपने शरीर की जमा फैट को गला कर हज़ारों किमी तैरते हुवे तट पर आती है. प्रजनन क्रिया सम्पन्न होती है. पर अब वापसी के लिये फैट नहीं बचा शरीर में. सौ प्रतिशत salmon मछलियाँ प्रजनन क्रिया के पश्चात तट पर ही दम तोड़ देती हैं. अगली पीढ़ी को अपना जींस पास कर देती हैं.
वैसे हो सकता है कभी कोई salmon फिश ने वापसी में कोई युति लगा ली हो और वापस पहुँच भी गई हो. पर वह बच्चे तो पहले ही पैदा कर चुकी है, इस ट्रिक का जींस नेक्स्ट जनरेशन में नहीं जाएगा.
यही प्रकृति के इवोल्यूशन का मूल सिद्धांत है. प्रकृति किसी भी प्रजाति को तब तक सपोर्ट करती है जब तक वह अपना जींस अगली पीढ़ी को पहुँचाने में सक्षम रहता है. इसी लिये मनुष्यों में भी युवावस्था तक प्रकृति फाइटिंग स्किल्स बॉडी को प्रदान करके रखती है कि वह सामान्य बीमारियों से लड़ सकें. एक बार प्रजनन आयु समाप्त हो गई, प्रकृति अपने हाल पर छोड़ देती है. अब सामान्य ख़ान पान / माहौल से जनित बीमारियाँ घेर लेती हैं. अब चूँकि प्रजनन आयु समाप्त भी हो चुकी है तो यह नेक्स्ट पीढ़ी में पास न कर पायेंगे और फिर एक दिन मृत्यु हो जाती है.
मानवीय शरीर तीस के पश्चात क्षय होने लगता है. अच्छे ख़ान पान, देख रेख, चिकित्सा सब की लिमिट है, प्रकृति के शारीरिक क्षति का प्रोसेस चलता रहता है. मानवीय आयु सामान्यतः नब्बे सौ क्रॉस नहीं होती, एक्सकेप्शंस अलग हैं.
पर मनुष्य ने प्रकृति की सुनी ही कब है. उसने केले से लेकर तरबूज़ तक, टमाटर से आम तक विविध प्रजातिओं को उनके प्राकृतिक गुण के विपरीत पैदा कर दिया है. भविष्य में मानवीय शरीर पर ऐसे ही प्रयोग हों, जेनेटिक चेंजेस हो जायें, बच्चे लैब में पैदा होने लग जायें, वह जींस मिल जाये जो बूढ़ा करता है – मनुष्य उसे परिवर्तित कर अपनी आयु बढ़ाने का दिमाग़ रखता है, इतिहास रखता है. ऐसा दो वर्षों में हो सकता है, पचास वर्ष भी लग सकते हैं और हो सकता है कभी न ढूँढ पाये.