प्रिंट मीडिया के कर्मचारियों की दुर्दशा के लिए खुद सुप्रीम कोर्ट ही जिम्मेदार!
हमारे देश में सुप्रीम कोर्ट को सुप्रीम पॉवर माना जाता है पर आम आदमी के लिए जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट का रवैया होता जा रहा है, उसे देखकर तो नहीं कहा जा सकता है कि किसी कमजोर को सुप्रीम कोर्ट से कोई राहत मिल रही है। कई मामलों में तो सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद कमजोर को और सताया गया है।
देश में प्रिंट मीडिया के लिए मजीठिया वेज बोर्ड सबसे बड़ा उदाहरण है। सुप्रीम कोर्ट ने ही 2008 में प्रिंट मीडिया के लिए मजीठिया वेज बोर्ड लागू करने का आदेश पारित किया। सुप्रीम कोर्ट ने ही अवमानना के केस में प्रिंट मीडिया के मालिकानों को यह कहकर राहत दे दी कि उन लोगों को सही तरह से जानकारी नहीं थी। तब अवमानना का केस नहीं चलने के बाद तो उन्हें नियम-कानूनों की जानकारी ठीक से हो गई होगी। सुप्रीम कोर्ट ने तब ही क्यों नहीं कराया अपने आदेश को अमल में?
दो-चार प्रिंट मीडिया के मालिकान जेल में चले जाते तो तभी मजीठिया वेज बोर्ड सभी प्रिंट मीडिया में लागू हो जाता। पर क्या हुआ ? सुप्रीम कोर्ट ने मजीठिया वेज बोर्ड की लड़ाई लड़ रहे कर्मचारियों को लेबर कोर्ट में धक्के खाने के लिए भेज दिया। जब सुप्रीम कोर्ट का आदेश है तो फिर सुनवाई कैसी? सुनवाई तो अवमनना की थी जिसमें सुप्रीम कोर्ट कुछ कर नहीं पाया। उल्टे प्रिंट मीडिया मालिकानों ने मजीठिया वेज बोर्ड को लागू कराने की मांग करहे कर्मचारियों को स्थानांतरित और बर्खास्त करना शुरू कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने क्या किया ? उसके आदेश के सम्मान की जो कर्मचारी लड़ाई लड़ रहे थे उनको नौकरी और गंवानी पड़ी।
हां सुप्रीम कोर्ट ने इतना कर दिया कि मजीठिया वेज बोर्ड की लड़ाई लड़ रहे कर्मचारियों को लेबर कोर्ट में धक्के खाने के लिए भेज दिया। सुप्रीम कोर्ट के कई केस में छह माह की समय सीमा में केस के निपटारे के आदेश के बावजूद लेबर कोर्ट ने भी सुप्रीम कोर्ट को कोई तवज्जो नहीं दी। जब लेबर कोर्ट में सुप्रीम कोर्ट के आदेश का हवाला दिया जाता है तो वह सुप्रीम कोर्ट में चले जाने की बात करता है।
जो सुप्रीम कोर्ट अपने ही आदेश को अमल में न लाने की ताकत रखता हो। जो सप्रीम कोर्ट उसके आदेश को ठेंगा दिखाने वालों का कुछ न बिगाड़ पाता हो। जो सुप्रीम कोर्ट उसके ही आदेश के हक में खड़े हुए प्रिंट मीडिया के कर्मचारियों को राहत न दिलवा पाया हो। उसके बारे में क्या कहा जाए ? अब यही कहा जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट भी केंद्र सरकार के दबाव में काम कर रहा है। केंद्र सरकार को देश में अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए प्रिंट मीडिया की जरूरत है तो वह मालिकानों का साथ दे रही है और सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार और मीडिया मालिकानों के दबाव में उसके ही आदेश के सम्मान में खड़े होने वाले प्रिंट मीडिया के कर्मचारियों और उनके परिजनों को मरने के लिए छोड़ दे रहा है।
उत्तर प्रदेश में लेबर कोर्ट का हाल यह है कि इसी माह में 12 लेबर कोर्ट के जज के रिटायर्डमेंट होने की बात सुनने को मिल रही है। गौतमबुद्धनगर के लेबर कोर्ट में जज साहब रिटायर्ड होने वाले हैं तो वह कोई सुनवाई नहीं कर रहे हंै। यह प्रदेश का वह कोर्ट है जहां पर इन जज महोदय के आने से पहले दो साल तक कोई जज नहीं रहे। इन परिस्थितियों में मजीठिया वेज बोर्ड की लड़ाई लड़ रहे साथियों को कैसे न्याय मिलेगा क्या कोई जिम्मेदार तंत्र बता सकता है ?
मेरा इस लेख के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट से ही प्रश्न है कि क्या उसके आदेश के पक्ष में खड़े होना अपराध है ? क्या हक की लड़ाई लड़ने वाले कर्मचारी कुछ गलत काम कर रहे हैं ? क्या आज की तारीख में प्रबंधन की दमनकारी और शोषणकारी नीतियों के खिलाफ खड़ा होना अराजकता में आ गया है? क्या मजीठिया वेज बोर्ड मांग रहे जिन कर्मचारियों का स्थानांतरण या टर्मिनेशन हुआ है उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी सुप्रीम कोर्ट की नहीं है ?
देश में मजीठिया वेज बोर्ड का ऐसा मामला बन चुका है यदि मजीठिया वेज बोर्ड के साथियों को समय रहते न्याय नहीं मिला तो अब सुप्रीम कोर्ट पर कोई विश्वास नहीं करेगा ?
हैदराबाद गैंगरेप के आरोपियों को जब पुलिस ने एनकाउंटर में मार गिराया तो जनता ने यह जानकर भी कि यह गलत तरीके से किया गया, पुलिस की सराहना की। क्यों ? क्योंकि अब लोगें को कोर्ट पर विश्वास नहीं रह गया है। बिहार समेत कई राज्यों में लोग अब खुद ही सड़कों पर न्याय कर दे रहे हैं। क्यों ? क्योंकि अब लोगों का न्यायपालिका जैसी सर्वोच्च संस्था से विश्वास उठता जा रहा है। अब देश में जो एनआरसी और नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ जो देश व्यापी आंदोलन चल रहा है यह भी न्यायपालिका पर से उठता विश्वास ही है।
अब तो ऐसा लगने लगा है कि मजीठिया वेज बोर्ड के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने प्रिंट मीडिया में काम रहे कर्मचारियों के सामने और बड़ी दिक्कतें खड़ी कर दी हैं। मालिकानों ने अपनी दमनकारी नीतियों को और आक्रामक कर दिया है। जो कर्मचारी लड़ रहे हैं वह तो परेशान है ही। जो अंदर काम कर रहे हैं उन्हें भी मालिकानों की दमनकारी नीतियों का शिकार होना पड़ रहा है। इस भ्रष्ट व्यवस्था में न ही श्रम विभाग और न ही न्यायालय से कर्मचारियों को कोई मिल रही है।
मेरा सुप्रीम कोर्ट से सवाल है कि जो लोग कई सालों से बेरोजागर होते हुए मजीठिया वेज बोर्ड की लड़ाई लड़ रहे हैं वे कैसे अपने परिवार का पालन पोषण कर रहे होंगे। केस लड़ने वालों के सामने सबसे बड़ी परेशानी यह है कि यदि आपको न्याय चाहिए तो केस खत्म होने तक आप कोई दूसरी नौकरी भी नहीं कर सकते हैं।
लेखक चरण सिंह राजपूत लंबे समय तक सहारा मीडिया में कार्यरत रहे. वे सोशल एक्टिविस्ट भी हैं.
anu chauhan
December 29, 2019 at 4:02 pm
bahut hi acha likha hai. sachmuch hi print media me kaam karne walo ki bahut hi buri halat hai. jabardasti resignations liye gye hain. divyahimachal jaise kshetriye akhwaron ne bhi digital media jaise paintre apna liye hain. sub editors kam to akhwar ka kar rhe haim lekin naukri unki digital media me dikhai gyi hai.. management ko court to kya bhagwan bhi dar nhi rha hai.