गिरिजेश वशिष्ठ-
अजित अंजुम के साथ बातचीत में रवीश ने कहा कि एनडीटीवी में उन्हें हाजिरी के लिए अंगूठा लगाने से छूट थी. जब चाहें आ सकते थे. नयी पीढ़ी संपादकीय कर्मियों की इस गरिमा को जानती तक नहीं है. जिस इकोसिस्टम में आज के पत्रकार तैयार होते हैं वो इस बात के पीछे का तर्क तक नहीं ढूंढ सकते कि पत्रकार के ड्यूटी के घंटे छह क्यों होते थे और फ्लैक्सी अवर क्यों थे.
हमने भी कार्पोरेट आयोजनों में लाल काले कपड़े पहने हैं लेकिन ये जबरदस्ती थी. कोशिश होती थी जिस दिन ऐसी ड्रेस पहननी है उस दिन आयोजन से ही गच्चा मार जाएं.
मेरी डेस्क पर आकर एचआर हैड टोक कर गई कि आप कुर्ता पहनकर क्यों नहीं आए. आज दिवाली है. मैंने कहा कि मुझे पूजा में शामिल नहीं होना था. उसने कहा कंपनी के हित के लिए ये जरूरी है. ये कंपनी के लिए पूजा है इसी तरह एक बार टीशर्ट लाकर बांटी गई. कहा गया कि आपको हफ्ते में एक नियत दिन ये पहनकर आना है. मैंने अपने सहयोगियों से कहा कि ये गुलाम बनाने की मानसिकता है. मैं एचआर में टीशर्ट लेने नहीं गया. मेरे संपादक ने पीछे पड़कर टीशर्ट इश्यू करवाने को कहा. बल्कि एक बार उसे पहनना भी पड़ा. मेरे सहयोगियो को ये रवैया अजीब लगा था. हालांकि बाद में वो टीशर्ट पहनकर में गया . लेकिन जबरदस्ती क्यों पहनी जाए.
वो आपके गले में पट्टा लटकाने को तैयार हैं. सैकड़ों पत्रकारों के माथे पर ठप्पा लगाने की उपलब्धि कुछ कम नहीं होती लेकिन आज के पत्रकारों को ये गुलामी लगती ही नहीं है. उन्हें लगता है कि नौकरी है.
यही कारण है कि उपर से हुकुम आता है तो पत्रकार सीधे दौड़ पड़ते हैं. वो अपनी बात तक नहीं कहना चाहते. कोई प्रतिकार ही नहीं है . आप स्वतंत्रता की बात करते हैं तो मालिक के गुलाम कैसे हो सकते हैं.
मैं मानता हूं कि नौकरी है . बच्चे पालने हैं और सबकुछ करना पड़ता है. सहारा की नौकरी में भी शनिवार को जेब्रा और जिराफ वाले कपड़े पहनकर जाना पड़ता था लेकिन ज्यादातर पत्रकार टाई जेब में रखते थे और प्रबंधन को कोसते रहते थे. जब वहां बुलेटिन में एंकर से सहारा प्रणाम करवाने का मामला आया तो कई पत्रकारों ने नौकरियां छोड़ दीं.
नयी पीढ़ी को ये बातें पता होना चाहिए. मालिक अखबार का है , संस्थान का है. आपका नहीं. वो आपको माध्यम उपलब्ध कराता है और उस माध्यम को उपलब्ध कराने के बदले पैसे लेता है लेकिन पार होने के लिए पुल उपलब्ध कराने वाला आपको गुलाम समझे तो गलत है.
जब मैं दैनिक जागरण में काम करता था तो वेतन डेस्क पर लिफाफे में मिलता था. वहीं दस्तखत कराकर अकाउंट का आदमी ले जाता था.
बाद में अकाउंट में वेतन आने का कल्चर शुरू हो गया. बहरहाल पत्रकारों को ये पता होना ही चाहिए. ये नौकरी नहीं है. मजबूरी में आपको हो सकता है कुछ फालतू चीजों का पालन करना पड़े . क्रांति न करें लेकिन ये विचार ज़िंदा रखें. अपने सहयोगियों को बताते रहें कि उनका हक क्या है. नयी पीढ़ी को पता चलना ही चाहिए.