अभूतपूर्व…. ये शब्द हिन्दुस्तान के प्रधान संपादक को बेहद पसंद है। गाहे-बगाहे खबरों में इस शब्द की टैगलाइन लगवाकर बड़ा इतराते हैं। मगर अपने हिन्दुस्तान के कारनामे के बाद इस शब्द के इस्तेमाल में थोड़ी भी शर्मिंदगी महसूस कर लेंगे तो इस शब्द की सार्थकता बनी रह जाएगी।
मुद्दे पर आते हैं। हिन्दुस्तान के मैनेजमेंट ने इसबार एडिटोरियल स्टाफ को दिवाली पर कोई गिफ्ट नहीं दिया। गिफ्ट तो छोड़िए, 100 रुपए की सोनपापड़ी भी नहीं बांटी। पिछले डेढ़-दो दशक या शायद उससे भी ज्यादा के समयकाल में ऐसा पहली बार हुआ है। बिहार के नंबर वन अखबार हिन्दुस्तान की यह चिंदीचोरी अभूतपूर्व है।
भांति-भांति के गुणा गणित लगाकर कर्मचारियों का बोनस पहले ही डकार चुकी इस कंपनी ने इसबार कर्मचारियों के मुंह पर सीधा तमाचा मारा है। हालांकि हिन्दुस्तान के कर्मचारियों ने इस जलालत के घूंट को पीकर पचा भी लिया। क्योंकि पिछली बार तो और तबियत से उन्हें जलील किया गया था। गिफ्ट के नाम पर ऐसी OTT का सब्सक्रिप्शन पकड़ा दिया गया था जिसके बारे में लोग उस दिन से पहले कभी सुने भी नहीं थे। जिन कर्मचारियों में छटांक भर भी स्वाभिमान बचा था उन्होंने उस सब्सक्रिप्शन कूपन को लौटा दिया था। नौकरी बचाने में माहिर अधिकारियों ने उस कूपन को सहर्ष स्वीकार कर लिया था पर उसका उपयोग समझ नहीं आया तो ईमेल्स के समंदर में ही कहीं उपलाता छोड़ आगे बढ़ गए थे।
खैर, संपादकों को हिन्दुस्तान के इस अभूतपूर्त कार्य पर शर्म नहीं भी आए तो कोई बहुत बड़ी बात नहीं होगी। जब उनकी गाड़ियों की डिक्की दिवाली गिफ्ट और मिठाइयों से भरी पड़ी हो तो उन्हें कर्मचारियों के मन की कड़वाहड़ का स्वाद क्या ही समझ में आएगा।
ये पूरी कहानी पटना संस्करण की है। रिसेप्शन काउंटर पर सजे मिठाइयों के रंगबिरंगे डब्बे देखकर कर्मचारियों ने दिवाली की पहले वाली रात तक इंतजार किया कि शायद उनके नाम भी कुछ होगा।पर उनके नाम तो एक ठंडी कचोरी और एक जी बिगाड़ने वाली चंद्रकला के अलावा कुछ नहीं था।
भड़ास को भेजे गये इंटर्नल मेल पर आधारित