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साहित्य

ऐसी कविता लिखने वाला व्यक्ति किसी क्रांतिकारी राजनीतिक धारा से नहीं बल्कि भारतीय प्रशासनिक सेवा से जुड़ा रहा है!

चंद्रभूषण-

एनपी सिंह की कविताएं… सत्ता के बीच से जनता को देखना… कवि नागेंद्र प्रताप सिंह का स्वर भारतीय परंपरा और व्यवस्था के प्रति कटुता की हद तक तीखा है। और यह तीखापन उन्होंने इसके सबसे खराब पहलुओं के लिए नहीं, इसके श्रेष्ठतम समझे जाने वाले पक्षों के लिए सुरक्षित रख छोड़ा है। दुष्यंत, राम, कृष्ण, भीष्म और युधिष्ठिर जैसे महानायकों की खबर उन्होंने 2019 में आए अपने पहले कविता संग्रह ‘शब्द! कुछ अनकहे से’ की पहली ही कविता में ली है। यह कविता ‘दृष्टिदोष’ एक दार्शनिक प्रस्थापना खड़ी करती है कि भारतीय महाकाव्य परंपरा समाज की भलाई के बजाय व्यक्ति के महिमामंडन को ध्यान में रखते हुए रची गई है। ‘समष्टि’ की कीमत पर ‘व्यष्टि’ को खड़ा करते हुए। एकबारगी यह किसी बड़े आलोचनात्मक निबंध का विषय लगता है। छोटे कद वाली आधुनिक कविता में इसे निभाना मुश्किल है। फिर भी उन्होंने कोशिश की है।

किन्हीं ‘अतीत के द्रष्टा’, ‘समालोचना के ठेकेदार’ को संबोधित करते हुए यह कविता शुरू होती है, फिर अगले ही हिस्से में मुद्दे पर आ जाती है- ‘तुमने गर्भवती मां के परित्याग को/ मर्यादा की अग्नि में शहादत कहा है/ ढूंढ़ा है उसमें जन-आस्था का बिंब/ वैयक्तिक अहं की ज्वाला में/ झुलसती नारी के पति को/ पुरुषोत्तम कहा है तुमने।’ भारत के सबसे बड़े काव्य नायक ‘राम’ को लेकर इससे बहुत मिलती-जुलती बात एक बार हमसे त्रिलोचन जी ने कही थी। हमसे, यानी 25 साल पहले दिल्ली से निकलने वाले रेडिकल वाम पाक्षिक ‘समकालीन जनमत’ की टीम से।

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पूरी रात चली उस बातचीत में वे इस एक अकेले बिंदु पर बोलते रहे। कहा कि कोई अनजान आदमी भी दोपहर में रास्ते पर जा रही किसी गर्भवती स्त्री से थोड़ी देर ठहर जाने को कहता है और उसे पानी पिलाकर छाया में बिठा देता है। लेकिन विकट वन में अकेले विलाप करती जिस सीता को देखकर ‘नदियों ने लहरें रोक लीं, मोरों ने नाचना छोड़ दिया और हिरनियों ने आधी चबाई हुई घास मुंह से गिरा दी’, उसको सफाई का मौका देना तो दूर, बिना किसी पूर्व सूचना के जंगल में छुड़वा देने वाले व्यक्ति को ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ कहना पौरुष और मर्यादा, दोनों की अवमानना है!

हजारों साल पुराने एक काव्य नायक की प्रशंसा और निंदा, दोनों आप समान तटस्थता के साथ कर सकते हैं। लेकिन अभी जिस समय में हम जी रहे हैं, उसमें ऐसे नायक भगवान के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके हैं और उन्हें आगे करके सरकारें बनाई जा रही हैं। यह समय सिर्फ और सिर्फ उनकी प्रशंसा का है। बल्कि पूजा का। हालत यह है कि कोई इतना भी कह दे कि ‘राम का जन्म अयोध्या में इस स्थान पर ही हुआ था, यह भला कैसे जाना जा सकता है’, तो उसे धर्मद्रोही ही नहीं, शायद राष्ट्रद्रोही घोषित कर दिया जाए। ऐसे में कोई कविता अगर भारत की महाकाव्य परंपरा के निषेध को अपना प्रस्थान बिंदु बनाती है तो इसे खुद में एक राजनीतिक कार्रवाई की तरह ही देखा जाना चाहिए।

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आश्चर्य की बात है कि ऐसी कविता लिखने वाला व्यक्ति किसी क्रांतिकारी राजनीतिक धारा से नहीं बल्कि भारतीय प्रशासनिक सेवा से जुड़ा रहा है। नागेंद्र प्रताप (एनपी) सिंह इस काव्य संग्रह के प्रकाशन के समय भी एक जिलाधिकारी थे और इसके दो-ढाई साल बाद उन्होंने सेवा से अवकाश ग्रहण किया। एनपी सिंह की काव्य दृष्टि में जैसी कड़वाहट भारतीय परंपरा को लेकर है, वैसी ही भारतीय व्यवस्था के प्रति भी है। खासकर नौकरशाहों के प्रति, जो वे खुद थे।

उनकी कविता ‘दासत्व का बादशाह’ का एक हिस्सा देखें- ‘आम जन के लिए शून्य संवेदना/ अधीनस्थों पर आहत शेर-सी गर्जना/ आकाओं के समक्ष सिद्धांतविहीन अर्चना/ चेतना के केंद्र में कुर्सी/ वाणी में वक्र संभाषण/ शक्ति केंद्रों के समक्ष करता शीर्षासन/ कौन हूं मैं? भ्रष्टाचार के प्रजनन-संवहन में करता सहज योगदान/ नितांत ‘स्व’ की गुफा में सिमटा/ लोकहित का करता पिंडदान/ आभासी नृप-सा करता व्यवहार/ निरीह जनों से सतत दुर्व्यवहार/ फुटपाथी झोपड़ियों तक स्वामी को सीमित कर/ करता क्षण-प्रतिक्षण तिरस्कार/ वातानुकूलित कमरों में मानसिक जुगाली/ और भरता अर्थहीन हुंकार/ गुलाम वंश की अविच्छिन्न विरासत ढोता/ दासत्व का बादशाह/ लोकसेवक हूं मैं!’

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कोई सोच सकता है कि पुरानी परंपरा को फटकारने की नई परंपरा प्रगतिशील आंदोलन के उदय के साथ ही बनने लगी थी। और नौकरशाही का क्या है, उसे तो कोई भी फटकार सकता है। तबतक, जबतक फटकारने वाले की अपनी गर्दन किसी नौकरशाह के हाथ में नहीं आ जाती। लेकिन एनपी सिंह की कविताएं सत्तारूढ़ राजनेताओं यानी ‘जननायकों’ के प्रति भी उतनी ही कांटेदार हैं। ऐसी ही एक कविता के कुछ हिस्से देखें-

‘मैं कहता रहा, तुम सुनते रहे/ मैं बोलता गया, तुम मानते गए/ जब तुम कहने लगे, मैंने अनसुना कर दिया/ मैंने कहा बदल दूंगा व्यवस्था/ जला दूंगा भ्रष्टाचार और अव्यवस्था/ तुमने विश्वास कर लिया/ मैंने कहा विकास का हूं अग्रदूत/ आतंक का विनाशक शांतिदूत/ आमूल-चूल परिवर्तन का क्रांतिदूत/ और तुमने यकीन कर लिया/ … मैंने अभिनय पौरुषेय का क्या किया/ तुम दीवानगी में मदहोश हो गए/ मैंने कहा परिवर्तन आ रहा है, झूमो/ तुमने नटराज नृत्य को भी बौना कर दिया/ … मैं आश्वस्त हूं कि फिर बनोगे शिकार मेरे शब्दजाल का/ मैं फिर कहूंगा, तुम फिर सुनोगे/ और जब तुम भूल से पूछोगे कोई सवाल/ मैं बहरा बनकर मुस्कुरा दूंगा।’

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मुझे ये कविताएं सीधे श्रीमुख से, अंग्रेजी में कहें तो ‘फ्रॉम द हॉर्सेज माउथ’ लगीं। एक संवेदनशील व्यक्ति अपने दुखी-दरिद्र समाज और उसे हांकने वाली ताकतों को स्टेट मशीनरी के बीच में खड़ा होकर जिस तरह देख सकता है, वह इनमें साफ दिखता है। कविता का माध्यम इस कथ्य की शक्ति है, लेकिन दूसरे नजरिये से देखें तो वही इसकी सीमा भी है। शक्ति इस मायने में कि स्वामीजन यह सोचकर इसे दरकिनार कर सकते हैं कि ‘अरे यह तो बिना ताल-छंद वाली कविता है, ऐसी कविता कौन पढ़ता है?’ यानी बातें यहां इत्मीनान से कही और संजोई जा सकती हैं। और सीमा इस मायने में कि हिंदी कविता की भाषा और इसका क्राफ्ट बहुत कम समय में अजनबी लगने लगते हैं। यहां लोगों को वाल्मीकि और कालिदास याद रहते हैं, प्रसाद और महादेवी साफ बिसर जाते हैं।

एनपी सिंह का कविता संग्रह पढ़ना पुराने अंदाज में एक नए कथ्य का पारायण करने जैसा है। कई तरह की कविताएं पढ़ने का धैर्य आप में है तो ‘शब्द! कुछ अनकहे से’ जरूर पढ़ें। दिल्ली के प्रभात प्रकाशन ने इसे छापा है।

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