Sanjaya Kumar Singh-
रॉबर्ट वाड्रा पर आरोप पहले से हैं। सच पूछिए तो 2014 से पहले हैं और वाड्रा पर कार्रवाई 2014 में नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद ही होनी चाहिए थी। घोटाले हरियाणा में जमीन की खरीद-फरोख्त में बताये गए थे और वहां भी भाजपा की सरकार है यानी पूरी डबल इंजन। इसके बावजूद हुआ क्या – सिर्फ पूछताछ और वह भी चुनाव के समय। भ्रष्टाचार पर मोदी जी ने इतना हंगामा मचाया था जैसे देश का सारा धन विदेश में ही रखा हो। भूखी-नंगी जनता को यकीन दिला दिया गया कि वे सत्ता में आए तो विदेश से काला धन वापस ले आएंगे और हर व्यक्ति को 15 लाख रुपए मिलेंगे। बाद में कह दिया गया कि वह जुमला था। लेकिन रॉबर्ट वाड्रा का भ्रष्टाचार? सिर्फ चुनावी मुद्दा बना हुआ है। कल अखिलेश यादव ने ईवीएम मिलने का आरोप लगाया तो आज यह खबर इंडियन एक्सप्रेस में पहले पन्ने पर छप गई।
अखिलेश की खबर अंदर होने की सूचना ही पहले पन्ने पर है। जर्नलिज्म ऑफ करेज के टैग लाइन वाले अखबार ने आज छापा है कि वाड्रा ने 11 साल तक अपनी आय कम बताई है। एक दो नहीं 106 करोड़। एक दो साल नहीं 11 साल। आयकर विभाग विज्ञापन निकाल कर दावा करता है कि उसकी नजर हर लेन देन पर है और जो नियम हैं उससे होना भी चाहिए। फिर भी, चार साल मोदी जी केंद्र की सत्ता में नहीं थे – ये तो समझ में आता है। लेकिन बाकी के सात साल सबको पता था कि वाड्रा के खिलाफ कार्रवाई करनी है, वाड्रा और उनके अकाउंटेंट को भी पता ही होगा फिर भी अंडर रिपोर्टिंग चलती रही। ना करने वाले को डर ना देखने वाले को फिक्र – उधर चुनाव के समय पूछताछ के नाम पर परेशान करने का काम भी जारी रहा। आज ईवीएम के आरोप को छोड़कर इस घिसी पिटी खबर को पहले पन्ने पर छापा जा रहा है। इसमें वाड्रा का पक्ष भी है। लेकिन प्रचारकों की राजनीति यही है।
यह बाईलाइन वाली खबर है और सबको पता है कि ऐसी खबरें लीक की जाती हैं। लीक करने वाला तो अपना काम कर रहा है। मीडिया से रुका नहीं जा रहा है तो कम से कम समय देखकर इसे अंदर प्रकाशित किया जाता और ईवीएम पर अखिलेश यादव के आरोप को प्रमुखता देता। ठीक है बरामद ईवीएम पर लिखा हुआ है कि वह प्रशिक्षण के लिए है। लेकिन अखिलेश यादव ने यह आरोप भी लगाया है कि सरकारी अधिकारियों को निर्देश दिए गए हैं कि जहां जीत का अंतर कम हो वहां गिनती धीरे की जाए ताकि बाद में उसे मैनेज किया जा सके। उन्होंने यह भी कहा है कि उनके पास सबूत है। पर यह आरोप अंदर और ऊपर राबर्ट वाड्रा। यही है – मोदी है तो मुमकिन है। इंडियन एक्सप्रेस भी दुम हिलाएगा।
वैसे, ईवीएम का मामला भी कम गंभीर नहीं है। अगर यह वाकई छेड़-छाड़ से मुक्त है तो इसपर किताब लिखने वाले विद्वानों से यह बात क्यों नहीं कहलवा दी जाती है? क्या यह कम दिलचस्प है कि जब कोई पार्टी सत्ता में नहीं हो तो उसके नेता ईवीएम पर किताबें लिखें और सत्ता में आने के बाद ईवीएम के खिलाफ ना कोई शिकायत सुने और ना जांच कराने को तैयार हों। वह भी तब जब हर जांच में जब भी गड़बड़ी मिलती है, वोट भाजपा को ही जाता दिखता है। मीडिया और दल विशेष के नेताओं ने पहले ईवीएम के खिलाफ हौवा बनाया पर मोदी है तो मुमकिन है में जायज शिकायतों को भी अंदर के पन्ने पर डाल दिया गया है। ठीक है कि यह संपादकीय विवेक का मामला है। और कोई संपादक नहीं चाहता कि उसपर उंगली उठे। लेकिन यह तभी संभव है जब काम वैसा ही हो। हँसुआ के बिआह में खुरपी के गीत सब कोई बूझे ला।