आज के अखबारों में भारतीय रेल का यह विज्ञापन है। पूरे पन्ने के इस विज्ञापन में 350 शब्द भी नहीं हैं और इस हिसाब से यह एक पन्ने की प्रेस विज्ञप्ति है। इसे देश भर के कई प्रमुख अंग्रेजी-हिन्दी अखबारों में सरकारी पैसे से छपवाया गया है। और इसमें जो सबसे मुख्य बात है (या जो शीर्षक है या सबसे बड़े अक्षरों में है) वह है, यात्री सुरक्षा हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता। इसे पिछले पांच साल में न जाने कितनी पर कहा बताया गया है और अब यह विज्ञापन। इसे छपवाने वाले से कोई पूछे कि यात्री सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता नहीं देने का विकल्प है क्या? क्या रेलवे के पास यह विकल्प है कि वह पैसे कमाने या ट्रेन समय से चलाने के लिए यात्रियों की सुरक्षा को नजरअंदाज कर दे? जाहिर है यह विकल्प रेलवे के पास नहीं है। हो नहीं सकता। फिर हमारे ही पैसे से हमें ही यह सूचना देने का क्या मतलब?
बात इतनी ही नहीं है। दिलचस्प यह है कि इसी विज्ञापन में कहा गया है, 1.5 लाख से अधिक सुरक्षा संबंधी पदों पर नियुक्तियां की जा रही हैं। इतने पद खाली हैं और सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता? अगर ये पद नए सृजित किए गए होते तो यही विज्ञापन होना चाहिए था या विज्ञापन में यही कहा जाना चाहिए कि सुरक्षा के लिए हम 1.5 लाख खाली पदों को भर रहे हैं। पर ऐसा है नहीं और प्रचार की भूखी सरकार प्रचार के लिए प्रचार कर रही है। जनता के पैसे अखबार वालों को लुटा रही है। इसे बड़ें अक्षरों में प्रमुखता से लिखा जाता तो पोल खुल जाती कि सुरक्षा संबंधी एक-दो नहीं डेढ़ लाख पद खाली हैं। लिखना जरूरी भी है, क्योंकि इससे वोट मिलेंगे। पांच साल ये पद क्यों नहीं भरे गए इसपर विज्ञापन चुप है। वैसे तो ऐसे विज्ञापन कम ही लोग पूरा पढ़ते हैं। इसलिए भी सिर्फ शीर्षक देखने वालों के लिए एक लोकलुभावन घोषणा है और पूरा पढ़ने वालों के लिए डेढ़ लाख ही नहीं, अगले दो वर्षों में 2.3 लाख अतिरिक्त पदों पर भर्ती करने का लॉलीपॉप भी है।
कहने और समझने की जरूरत नहीं है कि बहुमत से पगलाई यह सरकार वोट के लिए कुछ भी करेगा की तर्ज पर सब कुछ मुमकिन है कहने-करने पर उतर आई है। सरकार कितनी बेशर्म हो सकती है इसकी ना तो कोई सीमा है और ना कोई पैमाना हो सकता है पर सरकार जनता को कितना बेवकूफ समझती है इसकी भी सीमा नहीं है क्या? भारतीय रेल का मुख्य काम रेलगाड़ियां चलाना है और इसमें यात्रियों की आवश्यकताओं और सुविधाओं का ख्याल रखना जरूरी है। यह सब वाजिब कीमत में होना चाहिए और इसमें सर्वोच्च प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि ट्रेन समय से चले। यह समय भी रेलवे ही तय करती है और उसमें यात्रियों का कोई दबाव नहीं होता है। कम समय में पहुंचाने वाली ट्रेन के ज्यादा पैसे लिए जाते हैं और ट्रेन लेट होने पर यात्रियों को कोई हर्जाना नहीं दिया जाता है।
यह सब रेलवे के एकाधिकार का नतीजा है। और समय पालन में रेलवे का रिकार्ड बहुत ही खराब है। ट्रेन यात्रियों के पास झेलने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। केंद्र में भाजपा की सरकार आने के बाद और लोगों के साथ मैंने भी महसूस किया कि ट्रेनें लेट चल रही हैं और उनपर कोई नियंत्रण नहीं है। पूर्व रेल मंत्री सुरेश प्रभु का नाम पर रेल यात्रा को “प्रभु भरोसे” कहा जाने लगा था। उनकी खूब निन्दा हुई और एक समय आया जब उन्हें रेल मंत्रालय से चलता कर दिया गया। नए रेल मंत्री ने बातें तो खूब कीं पर कोई सुधार नहीं हुआ लेकिन डैमेज कंट्रोल के काम बढ़ गए। सोशल मीडिया पर भक्तों द्वारा ही नहीं, आधिकारिक तौर पर भी, कहा गया कि पटरियां खराब हैं, कमजोर हैं और इसलिए ट्रेन धीमे चलाई जाती है ताकि दुर्घटना न हो। इसलिए लेट हो जाती है। इसके बावजूद दुर्घटनाएं हुई, होती रहीं। ट्रेन समय से चलाने पर कोई ठोस बात नहीं हुई ना कोई सुधार बताया गया।
अब आज इस विज्ञापन में सब कुछ है – ट्रेन समय से चलने के बारे में कुछ नहीं है। हालत यह है कि दिल्ली से बनारस के बीच चली बहु प्रचारित हाई स्पीड ट्रेन को शुरू होने से पहले रेल मंत्री ने जो वीडियो शेयर किया उसकी रफ्तार बढ़ाई हुई थी। हाई स्पीड ट्रेन का हाई स्पीड वीडियो। इस ट्रेन का उद्घाटन निर्धारित समय पर किया गया। उसमें कोई देरी नहीं हुई और ना उसे टाला गया पर ट्रेन अगले ही दिन लेट हो गई। सोशल मीडिया पर इसका खूब मजाक उड़ाया गया तो प्रधानमंत्री ने इसे बनाने वाले इंजीनियर से जोड़ दिया। असल में मजाक तो सरकार और प्रधानमंत्री के दावों का बनाया जा रहा था पर वे रेलवे के इंजीनियर का बचाव करने कूद पड़े, बिलावजह। और अपने अंदाज में निन्दा करने वालों पर कटाक्ष किया उनका मजाक उड़ाया। कायदे से रेलवे को विज्ञापन पर पैसे ही खर्चने थे तो इसपर होना चाहिए था कि बहुप्रचारित नई ट्रेन लेट क्यों हो गई। असल में यह रेलवे की नौकरियों का लालच देकर वोट बटोरने की फूहड़ कोशिश है।
वरिष्ठ पत्रकार और अनुवादक संजय कुमार सिंह की रिपोर्ट। संपर्क : [email protected]