दीपक शर्मा-
डॉक्यूमेंट्रीज़ में आपने भी जानवरों को देखा होगा। किस तरह वो बिना कुछ किए घंटों बिता देते हैं। ठंडे खून वाले कई जीव तो दिनों और महीनों बस पड़े रह सकते हैं। क्या गजब की एकरसता और निष्क्रियता!
किसी और जानवर ने कभी बोरियत को नहीं जाना। उकताहट का सवाल सिर्फ एक ही प्रजाति ने उठाया है। आप जानते हैं कौन- जी हां, हमेशा मशरूफ़ रहने के लिए शापित वानर!
जहां तक बाकी जानवरों को सवाल है,, विज्ञान सहमत है कि वो एकरसता से भागने के बजाए उसे पाने की कोशिश में रहते हैं। जो हमारे लिए उकताहट है, वो उनके लिए सबसे श्रेयस्कर अवस्था है। क्योंकि जब वो निष्क्रिय नहीं होते, या कुछ नहीं कर रहे होते हैं तो एक ही और अवस्था है जिसमें जीने को मजबूर होते हैं- डर।
गौर से देखें तो क्या डर ही हर कर्म के पीछे की असल प्रेरणा नहीं है? धार्मिकों से लेकर तानाशाहों तक, मज़दूरों से लेकर धनिकों तक। ईश्वर का डर, तख़्त लुट जाने का डर, भूख का डर, स्पर्धा में पीछे छूट जाने का डर…
इस हिसाब से देखें तो अगर कुछ ईश्वरीय हुआ तो जड़ता और अकर्मण्यता। लेकिन इंसानों की पूरी की पूरी कवायद ही इस जड़ता और उससे पैदा हुई उकताहट के खिलाफ है। इंसान ही हैं जिन्हें हर वक्त कुछ ना कुछ घटित होता हुआ चाहिए- “हैपनिंग”। खुद से ना हो रहा हो तो पैदा कर लो एडवेंचर.. लेकिन एक भय जीवन में सतत चाहिए जो जीवन को चलाए रखे। उसके बिना रस नहीं। इंसानों के अलावा और कौन सी प्रजाति है जो डर में भी रस लेती है। हॉरर सिनेमा का अरबों रुपयों का सालाना कारोबार है।
एकरसता को स्वीकार करने की असमर्थता इंसान को अपने पूर्वज वानरों से दोयम बनाती है। हर वक्त कुछ नए की चाह के रोग के चलते ही कुदरत ने उसे अपनी प्रजाति की बाकी की बिरादरी से निकाला दे रखा है।