जनसत्ता 2 मई के अंक में संपादकीय पृष्ठ पर मुकेश भारद्वाज द्वारा रचित भाई डी पी त्रिपाठी की प्रशस्ति पढ़ी। मुझे घोर आश्चर्य हुआ कि जो पत्र किसी भी बड़े लेखक, वैज्ञानिक, कलाकार के बारे में अवसर विशेष पर भी कोई टिप्पणी छापने से गुरेज करता है उसमें इस तरह की प्रशस्ति कैसे छप गई। संभव है मुकेश भारद्वाज की जनसत्ता में अलग हैसियत हो। बहरहाल मेरी नजर में देवी प्रसाद त्रिपाठी का व्यक्तित्व बेहद रहस्यमय है। इसमें कोई दो राय नहीं कि साहित्य और समाज की गहरी समझ के साथ ही उनकी राजनीतिक समझ भी काबिले तारीफ़ है। लेकिन जैसा कि मुकेश भारद्वाज इंगित करना चाहते हैं देवी प्रसाद त्रिपाठी की प्रतिबद्धता न तो सिंह वाली है न मिमियाती हुई है बल्कि भारतीय राजनीति के अवसरवादी यथार्थ से ही संचालित है।
अगर ऐसा न होता तो त्रिपाठी कांग्रेस और राष्ट्वादी कांग्रेस की जगह किसी साम्यवादी दल के सदस्य होते। रही बात उनके साहित्यिक अवदान की तो हिंदी साहित्य में त्रिपाठी का ऐसा महत् अवदान मेरी नजर में तो कुछ दिखाई नहीं देता। अगर मुकेश भारद्वाज उनके साहित्यिक अवदान की चर्चा कर देते तो हम जैसे साहित्यकार अवश्य उससे लाभान्वित होते। खैर अब जब यह प्रचलन जनसत्ता में शुरू हो ही गया है तो मैं भी अपनी प्रशस्ति किसी से लिख कर भिजवाता हूँ। यूँ मैं प्रभावी तो दूर प्राथमिक स्तर का राजनेता भी नहीं हूँ लेकिन एक जेनुइन लेखक तो हूँ ही और प्रतिबद्ध भी। इसलिए मेरी प्रशस्ति का प्रकाशन हो सकता है ऐसी मुझे उम्मीद है। अग्रिम धन्यवाद सहित। यदि जनसत्ता एक निष्पक्ष और निर्भीक समाचार पत्र है जैसा कि उसका दावा रहा है तो यह प्रतिक्रिया अवश्य प्रकाशित हो सकेगी।
जयपुर निवासी लेखक शैलेंद्र चौहान से सपर्क 07838897877 या [email protected] के जरिए किया जा सकता है.