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सियासत

क्या एनडीटीवी वालों ने मोदी को जितवा दिया?

Samarendra Singh : डॉ प्रणॉय रॉय, रवीश कुमार, पुण्य प्रसून वाजपेयी, सिद्धार्थ वरदराजन, विनोद दुआ समेत उन सभी को नरेंद्र मोदी की इस शानदार जीत के लिए ढेर सारी बधाई, जिन्होंने अपनी एकतरफा खबरों और विचारों से पांच साल तक ध्रुवीकरण कायम रखा। उनके अथक प्रयासों के बगैर यह मुमकिन नहीं होता। हमारे यहां हार की वजहों पर बात नहीं होती है. पर्दा डाल दिया जाता है. जीत की वजहों पर चर्चा खूब होती है. जैसे अभी चर्चा हो रही है कि नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी ने आखिर कैसे जीत हासिल की. अमित शाह की व्यूह रचना पर बात हो रही है. संघ शक्ति की बात हो रही है. चर्चा इस पर भी हो रही है कि नरेंद्र मोदी की इस जीत से देश कैसे हार गया है.

मुझे लगता है कि इस चर्चा के साथ-साथ विपक्ष की हार पर भी चर्चा होनी चाहिए. न केवल विपक्ष की हार पर बल्कि देश की समाजवादी धारा की हार पर चर्चा होनी चाहिए. दरअसल आज दक्षिणपंथी बीजेपी जिस जमीन पर खड़ी है, वह जमीन समाजवादी-वामपंथी विचारधारा की जमीन थी. उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, कर्नाटक… इन सभी राज्यों की जमीन समाजवादी और वामपंथी विचारधारा की जमीन रही है. आज इसी जमीन पर बीजेपी का दबदबा है. आखिर ऐसा क्यों है? आखिर समाजवादी जमीन और इस जमीन पर मौजूद लोगों के मिजाज में ऐसा बदलाव क्यों आया है?

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इस पर बात होनी चाहिए. बात इस पर भी होनी चाहिए कि इस बदलाव में मौजूदा समाजवादी और वामपंथी नेतृत्व और उसका चरित्र किस हद तक जिम्मेदार है. लोहिया, जयप्रकाश नारायण, कर्पूरी ठाकुर, मधुलिमये, रामकृष्ण हेगड़े, ज्योति बसु जैसे नेताओं को केंद्र में रख कर मौजूदा समाजवादी नेतृत्व का मूल्यांकन होना चाहिए. कांग्रेस के भी मौजूदा नेतृत्व का मूल्यांकन होना चाहिए. उनके संघर्ष और उनके अंतरविरोध पर चर्चा होनी चाहिए. शायद कुछ जवाब मिले.

Ajeet Singh Tomar : बात प्रशंसा की नही आत्मबल की भी है आज जिस विधानसभा में मेरी मतगणना में ड्यूटी लगी थी वहां मेरी टेबल पर 4 मतगणना एजेंट थे। हार जीत किसकी हुई मैं उस तफसील में नही जा रहा मगर गैर भाजपाई दल का कोई संयोजक/नेता अपने एजेंट की खबर लेने नही आया जबकि भाजपा के कई स्तर के नेता अपने एजेंट के सम्पर्क में थे। गैर भाजपाई एजेंट्स ने 2 बजे भूख से तड़फकर लज्जाजनक स्थिति में भाजपा उम्मीदवार के एजेंट से खाने का पैकेट लिया और अपनी क्षुधा शांत की। देखने मे यह छोटी सी बात है मगर देखा जाए तो यह बड़ी गम्भीर बात है भाजपा अपने कार्यकर्ताओं को अपनी ताकत बनाने में सफल हुआ है वो उनका मूल्य समझता हैऔर समूचे विपक्ष के पास यतीम बच्चों जैसा कार्यकर्ताओं का कैडर है। जीत का एक रास्ता भूख से होकर भी गुजरता है जो आगे चलकर सपनों की सुरंग में तब्दील हो जाता है।

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Zaigham Murtaza : सुना है अखिलेश यादव ने हार पर मंथन करने के लिये बैठक बुलाई है और मायावती अभी भी हार को साज़िश मान रही हैं। ये क्यों नही मान रहे कि यादव और जाटव के अलावा अगर दलित और ओबीसी ही आपसे नही जुड़ रहे हैं तो ये आपकी विफलता है, मशीन की नहीं? बहरहाल, मित्र सूची में कोई इन दोनों से मिलने वाला हो तो जाकर इतनी से बात कह दे… ऊंची दीवारों, ac वाले साउंड प्रूफ कमरों, गाड़ी के काले शीशों और हवा में उड़ते हेलीकाप्टर तक जनता की कमज़ोर आवाज़ नही पहुंचती है… जनता की बात सुनने के लिए ज़मीन पर उतारना पड़ता है और संघर्ष करना पड़ता है। आपका वोटर हेलकॉप्टर, कार और नेता देखने आ सकता है लेकिन आखिर में वोट उसे देता है जिस तक उसकी पहुंच है। बीजेपी के नेता हवा में उड़ भी जाएं तो ज़मीन पर संघ के दर्जन संगठन 5 साल काम करते हैं। आपके वोटर की आपसे अपेक्षा भी ज़्यादा नही है। वोटर लिस्ट में नाम जुड़वाना, कटवाना, राशन कार्ड, आधार, थाने में पैरवी, उत्पीड़न से बचाव… इतना सस्ता वोटर और आपके इतने ज़्यादा नख़रे? और हां ये जाटव और यादव से आगे सोचिये। चलिए देर हो चुकी है लेकिन इतनी भी नही की माफी न मांगी जा सके… और हाँ, माफी ट्विटर पर मत मांगिये… ट्विटर आपका वोटर मनोरंजन के लिए देखता है… इसलिए ज़मीन पर तो उतर कर बात कीजिये।

Nitin Thakur : ठीक है कि भाजपा जीत के बाद दावा करे कि अथाह विकास ने उन्हें जिता दिया लेकिन सच यही है कि पुलवामा-बालाकोट के नाम पर राष्ट्रवादी हवा बहाने वाले मोदी भी जानते थे कि विकास के सहारे रहे तो हारेंगे। उनके पूर्ववर्ती अटल बिहारी वाजपेयी ये करके देख चुके थे। उन्होंने तो कारगिल जैसा मोर्चा जीतकर भी उसे उतना नहीं भुनाया जितना मोदी ने सर्जिकल स्ट्राइक का हल्ला मचाया। सेना के पराक्रम और सैनिकों की शहादत को कैश करने की पराकाष्ठा थी कि मंच से खड़े होकर उनके नाम पर नए वोटरों से वोट मांग लिए। वो अब एक अलग कहानी है कि देश का चुनाव आयोग, जो बधिया कर दिया गया है चुपचाप तमाशा देखता रहा। उसने अगर कुछ किया तो वो इतना भर था कि मोदी-शाह को क्लीन चिट देता रहा। एबीपी न्यूज़ ने स्टिंग में दिखाया कि कैसे सेना के नाम पर वोट मांग रहे मोदी के खिलाफ वाराणसी में एक पूर्व सैनिक का पर्चा खारिज करवा के ही चुनाव आयोग के अधिकारी ने सांस ली। उसने कैमरे पर बताया कि किस तरह वो घंटों खपाता रहा ताकि पर्चे में कमी निकले।

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बीबीसी के पूर्व ब्यूरो चीफ मार्क टली मानते हैं कि शुरू से लेकर आखिर तक और प्रचार खत्म होने की रात केदारनाथ की गुफा में बिताकर मोदी ने राष्ट्रवाद में हिंदू तत्व को बनाए रखा। मार्क टली ठीक कह रहे हैं। उनकी बात प्रज्ञा ठाकुर को टिकट देने से पुष्ट होती है। जीतते ही सेक्युलरिज़्म पर कहर बरपाना भी यही बताता है। यूं भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का आनुषांगिक संगठन हिंदुत्व का दामन छोड़ेगा, ये कल्पना करना ही सिरे से गलत है। वाजपेयी का दौर और था लेकिन अब जब पूरे विश्व में दक्षिणपंथ का उभार है तब भारत उससे अप्रभावित नहीं रह सकता। इस समय राष्ट्रवाद या धर्म चुनावी जीत का बड़ा फैक्टर है। नेहरू की राजनीतिक विरासत संभालनेवाले भी मंदिर-मस्जिद में चक्कर काट कर इसे पुष्ट ही कर रहे हैं। किसी में हिम्मत नहीं है कि भारतीय मानस में गहरे पैठे धर्म को चुनौती देकर वोट ले ले।

बीजेपी ने वैसे भी राजनीतिक विमर्श को सड़क, पानी, बिजली से हटाकर मंदिर के आंगन में पहुंचा दिया है। ये उसका ग्राउंड है और यहां जो उससे लड़ेगा उसका हारना कुछ साल तक तय है। उसके एजेंडे को स्वीकार्यता मिल रही है। आपका मानस ना माने लेकिन हकीकत यही है। 13 राज्यों में 50% से ज्यादा वोट मिलना यही बता रहा है। बेरोज़गार चाहे नौकरी ना मिलने की शिकायत करे, किसान चाहे फसल के दाम ना मिलने का शिकवा करे, छात्र चाहे परीक्षा परिणामों के ना आने से दुखी हो मगर उसे लगता है कि ये सब मोदी के दोष नहीं। इस बारीकी से नरेंद्र मोदी ने खुद को शासन की असफलताओं से दूर कर लिया है कि वो शोध का विषय बन चुका है। एक बड़े तबके के मन में बैठा दिया गया है कि मोदी हटे तो देश को बाहरी ताकतें घेर लेंगी और अंदर बैठे भ्रष्ट लोग इसे बेच डालेंगे। इस तथ्य पर परदा डाला जा चुका कि ये देश 1962 के बाद कोई लड़ाई नहीं हारा और ना ही देश की रीढ़ भ्रष्ट तत्व कभी तोड़ सके। इसके अलावा भी बहुत कुछ लिखा जा सकता है मगर पोस्ट लंबी नहीं करनी है और बात विपक्ष की भी करनी है।

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दूसरी तरफ कांग्रेस, सपा, बसपा, राजद हैं। ये उत्तर भारत के प्रमुख खिलाड़ी हैं। मोदी ने इन्हें लोगों के सामने महामिलावटी साबित कर दिया। मोदी का संदेश चाहे झूठा हो या सच्चा लेकिन इतना प्रभावशाली है कि सन्नी देओल, गौतम गंभीर, हंसराज हंस जैसे कठपुतले भी जीत कर संसद पहुंच गए हैं। राहुल गांधी अगर अपनी सीट खो दें और कन्नौज-बदायूं-फिरोज़ाबाद जैसी सपा के प्रभुत्व वाली सीटें भी छिन जाएँ तो कहने को क्या बचा है। राहुल की बगल में बैठनेवाले ज्योतिरादित्य अपने पिता और दादी की सीट गंवा चुके हैं। मल्लिकार्जुन खड़गे करीब एक लाख वोट के अंतर से हार गए हैं। सबसे बुरा है प्रज्ञा ठाकुर का दिग्विजय सिंह को रौंद देना। दिग्विजय सिंह से हमने कभी सहानुभूति नहीं रखी लेकिन प्रज्ञा इसका विकल्प हर्गिज़ नहीं।

मैंने कुछ सीटों पर गठबंधन और कांग्रेस या कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के वोट मिलाकर देखे. ज़्यादातर यही पाया कि एकजुट होने पर भी इन्हें बीजेपी के हाथों मुंह की खानी पड़ती, इसलिए बहानेबाज़ी बंद करनी चाहिए। कांग्रेस के पतन पर तो अलग से निबंध लिखा जा सकता है लेकिन योंगेद्र यादव की इस टिप्पणी पर अभी सोचना बाकी है कि कांग्रेस को मर जाना चाहिए। अब राजद लालू के बिना भविष्य तलाशे और अखिलेश तय करें कि क्यों कभी राहुल के साथ और कभी मायावती के साथ मिलने के बावजूद लोग उन्हें नहीं बर्दाश्त कर रहे हैं। अचरज है कि जिन तीन राज्यों में कांग्रेस ने हाल ही में सरकार बनाई वहां कि 65 में से 62 सीटें वो नहीं बचा सकी। विपक्ष पीएम की राडार जैसी बेवकूफाना बातों के बावजूद नहीं साबित कर सका कि उसके पास मोदी से बेहतर नेता हैं।

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इस सबके बीच बस तारीफ एक ही बात की करूंगा। धन्य है वो शख्स जिसने राहुल को वायनाड से भी लड़ लेने की सलाह की क्योंकि यदि ऐसा ना होता तो राहुल गांधी के लिए शर्म और गहरी हो सकती थी। बावजूद इसके मोदी की मेहनत पर प्रशंसा होनी चाहिए तो राहुल गांधी की तारीफ इसलिए होनी चाहिए क्योंकि उन्होंने इस बार खुद के प्रति परसेप्शन बदला है। उनके बड़े बड़े विरोधियों के मुंह से हमने सुना कि अब राहुल परिपक्व हो रहे हैँ। लोकतंत्र की उम्र बहुत लंबी है। सब उम्मीद कर सकते हैं कि एक दिन राहुल गांधी की छवि ऐसी बनेगी कि उन्हें राजनीतिक पंडितों के अलावा आम लोग भी गंभीर विकल्प मानने लगेंगे।

अंत में एक निजी निराशा और बात खत्म। चुनाव से पहले मैंने अपनी एक हसरत ज़ाहिर की थी। मैं चाहता था कि कन्हैया कुमार संसद पहुंचें और मोदी भी। कन्हैया हार गए। कई लोग मेरी उस हसरत का स्क्रीनशॉट लेकर उड़े फिर रहे हैं। मुझे समझ नहीं आ रहा कि मैंने जो लिखा क्या वो अलोकतांत्रिक या अकल्पनीय है? स्मृति ईरानी अगर राहुल को हरा सकती है या ज्योतारादित्य अपने ही आदमी के हाथों हार सकते हैं तो कन्हैया का आज नहीं तो कल सांसद बनना भला क्या मुश्किल है? वो कम से कम प्रज्ञाओं से तो बेहतर ही है। कोई तो होता जो किसान, मज़दूर , छात्र की बात करता और वो भी तर्कों के साथ। अगर उनकी जगह गिरिराज जैसा बड़बोला जीता है तो मज़ाक उनका मत उड़ाइए जो कन्हैया की जीत चाहते थे बल्कि तरस बेगूसराय के लोगों पर खाइए।

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एक और बात, इसे जनमत का अपमान कह कर मुझे लोकतंत्र मत सिखाइए। बहुमत का फैसला मानना ज़रूरी है लेकिन विश्लेषण उसका भी किया जा सकता है और गलत लगे तो गलत कहा भी जा सकता है। मोदी तो बार-बार सत्तर साल तक कांग्रेस को जिताते रहने वाले बहुमत को मंच से खड़े होकर अपमानित करते रहे हैं, फिर हम तो इरोम शर्मिला (2014) या कन्हैया कुमार की हार पर निराशा जता रहे हैं। हम भी जानते हैं कि ये अंतिम विश्वयुद्ध नहीं था। चुनाव भर था। चुनाव पल-पल में बदल जाता है, लेकिन एक नागरिक के तौर पर संतुलित संसद चाहना गलत नहीं हो सकता और ना मज़ाक का विषय। बाकी पत्रकार के तौर पर कल जो कर रहे थे वही आज करना है और आने वाले कल में भी करेंगे। वो काम है सवाल पूछना। जब तक वही प्रतिबंधित ना हो जाए तब तक पत्रकारिता करते रहेंगे चाहे बीजेपी आए या कांग्रेस।

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2 Comments

2 Comments

  1. मोहन

    May 25, 2019 at 10:35 am

    आज भड़ास पर आपका लेख पढ़ा शानदार विश्लेषण लगा बात मानने या न मानने की हो तो तर्क हो सकते है लेकिन लोकतंत्र की यही खुबी है कि जो जीता वही सिकंदर लेकिन जो सिकंदर से लड़ा और हथियार नही डाले वह और भी महान..धन्यवाद इस शानदार लेख के लिए

  2. Pappu Gandhi

    May 26, 2019 at 5:38 pm

    Kanhaiya ko jitana mansik diwali yapan hai desh todne wala hi kisan chatra ki baat karega .kya murkhta hai vampanthi gadho

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