सोहन दीक्षित-
मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले प्रो.कमल दीक्षित भले ही अब सशरीर हमारे बीच नहीं हैं लेकिन वे मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता को समर्पित एक विचारधारा के रूप में सदैव हमारे बीच रहेंगे। श्रद्धेय प्रोफेसर कमल दीक्षित के यूँ चले जाने के मायने उनसे जुड़े और उन्हें जानने वाले लोगों के लिए क्या है, यह शब्दों में बयां करना आसान नहीं। वे महान पत्रकार एवं संपादक, श्रेष्ठ शिक्षक, कुशल संचारक, विचारक, आध्यात्मिक और अद्वितीय व्यक्तित्व के धनी थे। कोई उन्हें मीडिया का इनसाइक्लोपीडिया, तो कोई उन्हें पत्रकारिता का भीष्म पितामाह कहता था। उनका निधन हो जाना मेरे और मेरे परिवार के लिए बहुत बड़ी क्षति है। मैं तो उन्हें पत्रकारिता की दुनिया का चलता फिरता विश्वविद्यालय मानता हूँ। किसी भी समय मेरे हर सवाल का जवाब उनके पास होता था। वे इतने सरल थे कि किसी भी समय उन्हें फ़ोन करते समय कभी कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं हुई।
मैं बुधवार (10 मार्च) शाम जब कालापीपल में अपने घर पर कुछ अध्ययन कर रहा था तभी एक फोन पर खबर मिली कि प्रो.कमल दीक्षित जी नहीं रहे। जब यह खबर मुझे मिली तो यकीन नहीं हुआ। इस खबर को सुनते ही जैसे मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई हो। यकीन करना बहुत मुश्किल हो रहा था। लेकिन सच्चाई को कौन नकार सकता है। वे ही तो थे जिनकी वजह से मैं पत्रकारिता में आया। दरसल, पत्रकारिता की ओर मेरा रुख स्कूल की स्कूली शिक्षा के समय से था लेकिन उस इच्छा को बल प्रो.दीक्षित ने ही दिया। वे अपनी मजबूत इच्छाशक्ति के साथ बीते कुछ सालों से कैंसर से जंग लड़ रहे थे लेकिन कैंसर के साथ कोरोना से लड़ते हुए वे हार गए। उनके निधन की खबर मिलने के बाद से आज तक एकाएक अनेक संस्मरण मन में दौड़ रहे हैं। उनसे जुड़ी यादों को लिखते हुए बहुत भावुक हो रहा हूँ। उनसे मेरा रिश्ता बहुत गहरी आत्मीयता का था।
एक संयोग और ईश्वर का वरदान ही कहूंगा कि मेरा परिचय ऐसे हस्ताक्षर से हुआ जिनकी वजह से मेरे जीवन में वे बदलाव हुए जिसकी कल्पना भी मैं नहीं कर सकता था। स्कूल की पढ़ाई-लिखाई में मुझ जैसे एक एवरेज स्टुडेंट को उन्होंने ही हिम्मत दी जिसकी वजह से मैंने पत्रकारिता जैसे पेशे को अपने भविष्य के लिए चुना। पांच साल पहले शाजापुर में साइंस सेंटर (ग्वा). की ओर से आयोजित तीन दिवसीय संचार लेखन कार्यशाला में मेरा परिचय सर से हुआ था। वे वहां बतौर प्रशिक्षक प्रशिक्षण देने आए थे। साइंस सेंटर की वह तीन दिवसीय कार्यशाला तो उसी समय खत्म हो गई लेकिन उनके अंतिम समय तक मुझे उनसे प्रशिक्षण मिलता रहा। उन्होंने ही मेरा एडमिशन माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में करवाया। एडमिशन लेने के बाद से उनके पास जाने लगा और जब भी जाता तो घंटो बैठकर उनसे बातें करता। उनका आकर्षक व्यक्तित्व और व्यवहार था ही ऐसा कि जो एक बार उनसे मिला वह हमेशा के लिए उनका हो गया और दीक्षित सर उनके।
मैं जब कभी विश्वविद्यालय में दिनभर की पढ़ाई के बाद सीधे उनके गुलमोहर स्थित घर जाता तो बड़े प्यार से कहते ‘पंडित तू थक गया होगा, आ बैठ… फिर कई बार उन्होंने खुद उनके हाथों से मुझे चाय बनाकर पिलाते तो कभी किचन में जाकर कुछ खाने का ले आते। मेरा उनसे खून का रिश्ता नहीं था। लेकिन जब भी मुझे उनका स्नेह मिलता तो उनमें मुझे अपने दादाजी दिखाई देते। मैं जब भी शाम के समय उनके घर जाता तो कहते पंडित आज साथ खाना खाएंगे। उन्हें पोहा बहुत पसंद था। कहते थे कि मेरा घर जरूर भोपाल में है लेकिन मुझमे इंदौर बसता है।
बातचीत के दौरान कभी वे मुझे उनके बचपन की बातें बताया करते तो कभी उनके पत्रकारिता के अनुभव बताया करते। उनका एक एक किस्सा किसी किताब से मिले ज्ञान से कम नहीं होता। उन्होंने बताया था कि कैसे इंदौर में एक बार उन्हें अखबार के दफ्तर में ही कई दिन गुजारकर लगातार काम करना पड़ा था। मैंने मीडिया की शिक्षा के लिए माखनलाल विश्वविद्यालय में दाखिला जरूर लिया था लेकिन असल शिक्षा मैंने सर से ही प्राप्त की। उनकी हर बात में न केवल पत्रकारिता बल्कि जीवन को भी मूल्यनिष्ठ बनाने की चिंता होती।
जिस उम्र में लोग चारपाई से उतरने के लिए भी किसी के सहारे के लिए तकते हैं उम्र के उस पड़ाव में भी अकेले ही दूर दूर की यात्राएं करते। इसीलिए उनके निधन पर भोपाल से प्रकाशित स्वदेश ने अपनी खबर में कितनी सुंदर हेडलाइन दी ‘ओ! यायावर रहेगा याद’। उन्हें घूमना फिरना बहुत पसंद था। उन्हें चाहने वाले अक्सर उन्हें इतना प्रवास ना करने और घर पर आराम करने के लिये समझाते लेकिन वे मुस्कुराते हुए कह देते कि जब में आराम करना शुरू कर दूंगा तो स्वयं ही ख़त्म हो जाऊँगा। उन्हें मैंने कभी फ्री बैठे नहीं देखा। वे कभी अपनी पत्रिका राजीख़ुशी के लिए तो कभी मूल्यानुगत मीडिया के लिए निरंतर लिखते हुए मिलते। तो कभी छत पर टहलते हुए किसी ना किसी विषय पर उनका चिंतन हमेशा जारी रहता। माखनलाल विश्वविद्यालय से तो वे कई सालों पहले सेवानिवृत हो गए थे लेकिन विश्वविद्यालय और वहां के विद्यार्थियों की वे हमेशा चिंता करते थे। इस उम्र इतना एक्टिव देख कर बहुत प्रेरणा मिलती थी।
उन्हें बाते करना बहुत अच्छा लगता था। वे मुझसे अक्सर मीडिया, समाज और सामयिक विषयों पर बहुत देर तक बाते करते। जब मैं मीडिया को थोड़ा बहुत जानने और समझने लगा तो उन्होंने मुझे ‘मूल्यानुगत मीडिया’ की जिम्मेदारी दे दी। मूल्यानुगत मीडिया अभिक्रम समिति की एक बैठक होने के बाद उन्होंने कहा कि अब पत्रिका का काम तुम्हें ही संभालना है। अब मैं सिर्फ एडिटोरियल तुम्हें भेज दिया करूंगा बाकी की चिंता अब तुम्हारी। मैं हैरान था। लेकिन उन पर पूरा भरोसा भी था। उन्होंने कुछ कहा है तो सोच समझकर ही कहा होगा। मैंने उस काम को करना शुरू कर दिया। बतौर उपसंपादक लगभग दो सालों तक मूल्यानुगत मीडिया पत्रिका का संपादन करने का सौभाग्य मुझ नाचीज़ को मिला। जब कभी मेरे शुरूआती दो-तीन महीनों में मूल्यानुगत मीडिया के संपादन में मुझसे कोई गलती हुई तो डांटते हुए मुझसे कहते कि ‘तूने इस बार काम को जल्दीबाजी में किया है। बेटा कभी किसी काम में जल्दीबाजी ठीक नहीं होती। मैं तुम्हे लंबी पारी खेलते हुए देखते हुए देखना चाहता हूँ।’ अफ़सोस की मेरी किसी अच्छी शुरुआत से पहले ही वे चले गए।
मेरे पास बहुत यादें हैं उनसे जुडी। उनके व्यक्तित्व और उनकी उपलब्धियों के बारे में कितना भी लिखूंगा कम ही होगा। मैं उन्हें इतना जान सकने के बाद निःसंदेह यह कह सकता हूँ कि जब कभी मुझसे कोई आदर्श पत्रकार के गुणों के बारे में पूछेगा तो उसका जवाब सिर्फ एक होगा वह ‘प्रोफेसर कमल दीक्षित।’ उनका जाना मेरे लिए एक एक गुरु और सच्चे मार्गदर्शक का चले जाना है।