Kanwal Bharti : जीतनराम मांझी ने दलित राजनीति को झकझोर कर रख दिया है. उन्होंने बहुत से अनसुलझे सवालों को भी सुलझा दिया है और लोकतंत्र में दलितों की हैसियत क्या है, इसका भी आईना दिखा दिया है. दलित आखिर जाएँ तो जाएँ कहाँ? किसी भी पार्टी में उनकी इज्जत नहीं है, सिर्फ उनका उपयोग है. यह लोकतंत्र, यह धर्मनिरपेक्षता और यह समाजवाद (जो सिर्फ हवाई है) दलितों के हितों की बलि पर ही तो जिन्दा है.
आखिर कब तक लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर दलित वर्ग अपने आप को बलि चढ़ाता रहेगा ? मांझी ने अच्छे से समझा दिया है कि दलित को शासक बनाना कोई दल नहीं चाहता. शायद इसीलिए वह अपने हितों के लिए हमेशा सत्ता के साथ रहा है? यह उसकी विवशता ही है, क्योंकि अगर वह सत्ता की धारा के विरुद्ध जायेगा, तो अपना वजूद खो देगा. अब समझा जा सकता है कि मायावती का भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री बनना, केंद्र की सत्ता के साथ रहना, पासवान, उदित राज और अठावले आदि का सत्तारूढ़ दल में पलायन करना उनके वजूद के लिए कितना जरूरी था.
जीतन राम मांझी का भी भाजपा में जाना तय है. क्योंकि जेडी (यू) में तो वह अपमानित हो ही चुके हैं, और राजनीति में जो हैसियत उन्होंने बना ली है, उससे पीछे लौटने का मतलब है, आत्मघात करना. लेकिन आत्मघात तो भाजपा में जाकर भी होना है. और अब स्पष्ट हो गया कि आखिर, भाजपा ने मांझी को कहीं का नहीं छोड़ा. मैंने उन्हें इसी अर्थ में अलविदा कहा था. यह अलविदा दलित राजनीति के लिए भी है. क्योंकि डा. आंबेडकर के मिशन से भटकने वाले दलित नेताओं का यही अंजाम होना है.
जाने-माने दलित चिंतक और साहित्यकार कंवल भारती के फेसबुक वॉल से.
Comments on “डा. आंबेडकर के मिशन से भटकने वाले दलित नेताओं का यही अंजाम होना है”
manjhi jaisa shasak bihar ko dubara mile to jald hi bhyanak grih yuddh ho jayega.
jo huwa wah achchha huaa. jo raha hai wah v achchha ho raha hai. jo hoga wah v achchha hoga.
jay hind