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छत्तीसगढ़

ऐसी ही करतूतों के कारण मीडिया को कहा जाता है प्रेस्टीट्यूट

प्रधानमंत्री को खुश करने के लिए राज्य सरकार ने कलेक्टर को नोटिस दिया और राज्य सरकार को खुश करने के लिए एक अखबार ने अमित कटारिया के खिलाफ पत्नी को जिन्दल का पायलट बनाने की खबर छाप दी। और खूब प्रमुखता से रंग-रोगन व फोटो के साथ छापी गई। अखबार लिखता है- ‘सलमान स्टाइल में प्रधानमंत्री की अगवानी करने के बाद सुर्खियों में आए जगदलपुर कलक्टर अमित कटारिया के बारे में चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं।’

प्रधानमंत्री को खुश करने के लिए राज्य सरकार ने कलेक्टर को नोटिस दिया और राज्य सरकार को खुश करने के लिए एक अखबार ने अमित कटारिया के खिलाफ पत्नी को जिन्दल का पायलट बनाने की खबर छाप दी। और खूब प्रमुखता से रंग-रोगन व फोटो के साथ छापी गई। अखबार लिखता है- ‘सलमान स्टाइल में प्रधानमंत्री की अगवानी करने के बाद सुर्खियों में आए जगदलपुर कलक्टर अमित कटारिया के बारे में चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं।’

सवाल यह उठता है कि अखबार की खबर के अनुसार अमित कटारिया दोषी हैं तो यह खबर पहले क्यों नहीं छपी थी। मैं अमित कटारिया को नहीं जानता और ना इस बात की चर्चा कर रहा हूं कि खबर किस अखबार में छपी है – मुद्दा सिर्फ यह है 2011 की खबर छापकर अखबार क्या बताना और कहना चाहता है। यही नहीं – “पुरस्कार तो नहीं पायलट की नौकरी” शीर्षक से एक बॉक्स भी है। इस बॉक्स और शीर्षक से अखबार ने अपनी ही खबर को शक के घेरे में डाल दिया है। और यह पैंतरा आज का नहीं, बहुत पुराना है। अगर मुकदमा हो जाए तो अखबार यह दलील देगा कि हमने तो सवाल उठाया था, शंका जताई थी। 

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दूसरी ओर, पाठकों ने इस कटिंग को जहां-तहां खूब चिपकाया। जनता यह नहीं पूछती है कि यह खबर अचानक अब क्यों। कटारिया ने अगर विमान उड़ा सकने वाली अपनी पत्नी को जिन्दल के यहां नौकरी दिला ही दी तो यह कोई अपराध नहीं है और अगर है तो खबर अब तक क्यों नहीं छपी। इसीलिए ना कि अमित कटारिया एक दंबग अफसर हैं और पहले डर लग रहा था। अब जब राज्य सरकार ने उन्हें नोटिस जारी कर दिया है और इसके लिए राज्य सरकार की थू-थू हो रही है तो चले आए सहारा बनकर। कुछ नहीं तो राज्य सरकार का विज्ञापन मिलता रहे। 

एक सज्जन बता रहे थे कि राज्य सरकार के खिलाफ (छत्तीसगढ़ नहीं) एक खबर छपी तो विज्ञापन बंद हो गए। बगैर किसी घोषणा सूचना के। मामला निपटने तक कुछ करोड़ के विज्ञापन छूट चुके थे क्योंकि अखबार तो रोज छपना ही था। अब यह अखबार की मजबूरी है और इस मजबूरी का फायदा राज्य सरकार तो उठाती ही है। अखबारे वाले भी झुकने के लिए कहने पर रेंगने तो तैयार रहते हैं। इसमें सही गलत कुछ नहीं होता सिर्फ अपना फायदा देखा जाता है।

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संजय कुमार सिंह के एफबी वॉल से 

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