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सुख-दुख

उप्र मान्यता प्राप्त समिति चुनाव में कौन क्यों हारा, बता रहे नवेद शिकोह

नवेद शिकोह-

उ.प्र.राज्य मुख्यालय संवाददाता समिति चुनाव में विभिन्न पदों पर हारे टॉप टेन पोजीशन पर रहे रनरअप प्रत्याशियों की हार की समीक्षा-

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टॉप 10 रनरअप

जो ख़ूब वोट पाकर भी हार गये। जानिए किसको कितने मिले वोट, साथ ही हार के संक्षिप्त कारण भी समझें-

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अध्यक्ष पद पर हारे

1- ज्ञानेंद्र शुक्ला- 187 वोट पाए।
कारण- देर से प्रचार शुरू किया।बेहद कम समय और सीमित संसाधनों में सभी वोटरों तक नहीं पंहुच सके। विशाल प्रिंट मीडिया पत्रकार समूह तक पंहुचने और अपने मुद्दों को उन तक पंहुचने के लिए कम समय मिला। पहली बार इतनी सादगी से चुनाव लड़कर दिग्गजों को टक्कर देकर सेकेंड पोजीशन पाना बड़ी उपलब्धि। विपक्ष के सबसे बड़े चेहरे के तौर पर उभरे।

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2- मनोज मिश्रा- 180 वोट मिले।
शानदार तरीके से पूरी भव्यता के साथ प्रोफेशनल तरीके से चुनाव लड़े। लम्बे अंतराल तक बड़ी टीम के साथ कम्पेनिंग का सिलसिला चला। कई बड़े दिग्गज पत्रकारों को अपने पक्ष में करके अपना रणनीतिकार बनाया। समय से चुनाव ना होने के खिलाफ मुहिम भी इनकी यूएसपी रही।
चुनाव प्रचार की भव्यता को लेकर विरोधियों ने दुष्प्रचार किया और विरोधी इसमें सफल हुए।
इनकी बड़ी टीम का मैनेजमेंट देख रहे कुछेक का दूसरे खेमे से पुराना राब्ता भी घातक रहा।

सचिव पद पर हारे

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भारत सिंह 159 वोट हासिल किए।
लम्बे समय से ज़मीनी मेहनत करके शानदार चुनाव लड़े और अपने काम, पहचान, पत्रकारिता की ग्राउंड और शख्सियत का ख़ालिस वोट पाए। किंतु बीस प्रतिशत वोट जो जाति का होता है वो सब प्रतिद्वंद्वी के हिस्से में चला गया। चुनाव के दो दिन पहले अंत में कुछ बड़ी ताकतों ने मिलकर इनके प्रतिद्वंद्वी के पक्ष में समर्थन करने का फैसला कर दिया।

कुलसुम तलहा – 118 वोट प्राप्त किए।

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प्रचार कम किया। जनसंपर्क बिल्कुल भी नहीं किया। अंग्रेजी पत्रकारिता की शानदार और लम्बी पारी खेलने वाली इकलौती ब्रॉन्ड प्रत्याशी। जिसके कारण क्रीम पत्रकारों ने एकजुट होकर खूब वोट दिए। क्योंकि हर किसी को मिले कुल वोटों में करीब बीस प्रतिशत वोट धर्म-जाति के होते हैं, कुलसुम को सिर्फ पत्रकारिता के ग्राउंड के ही वोट मिले। एक प्रतिद्वंद्वी ने उनके धर्म-जाति के वोट कतर लिए।

कोषाध्यक्ष पर हारे

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अनिल सैनी- 220 मत प्राप्त किए।
इतना विशाल जनसमर्थन पाकर मिसाल क़ायम की। प्रतिद्वंद्वी आलोक त्रिपाठी पुराने पत्रकार हैं जो सैनी के मज़बूत जनसमर्थन पर भी भारी पड़े। आलोक को प्रिंट मीडिया के पत्रकारों ने एकजुट होकर मत दिया। ख़ूब जमीनी मेहनत के बाद भी प्रिंट मीडिया के विशाल वर्ग में सैनी अपनी मजबूत पकड़ नहींं बना सके। दुर्भाग्यवश ये कड़वा सच बार-बार लिखना पड़ रहा है कि हर चुनाव में धर्म-जाति का थोड़ा-बहुत/बीस प्रतिशत (पूरा कतई नहीं) असर रहता है। मुस्लिम-पिछड़ा पैनल भी चलता है। ये फार्मूला भी फेल होना था क्योंकि कोषाध्यक्ष में हुमायूँ भी चुनाव लड़े थे।

उपाध्यक्ष पर हारे

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हेमंत मैथिल 120 वोट पाए।

एक बड़ी चुनावी पर्सनालिटी के साथ नाम जुड़ने के कारण उस मीडिया पर्सनालिटी के खिलाफ भव्य प्रचार टीम ने मैथिल को टारगेट पर ले लिया। मैथिल ने जाति के नाम पर पांच फीसद वोट भी नहीं मांगा और ना पाया।

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संयुक्त सचिव पर हारे

हरीश कांडपाल ने 150 मत प्राप्त किए।
चंद वोटों से हारे। प्रचार कम किया। प्रिंट मीडिया एकजुट था जहां अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं कर सके। कैमरा पर्सन बिरादरी एकजुट होती है पर कांडपाल के मुक़ाबले इंद्रेश रस्तोगी का खड़ा होना कांडपाल की हार का कारण बना। क्योंकि कैमरा पर्सन के वोट बंट गए।

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दया बिष्ट ने 135 वोट हासिल किए।
चंद वर्षों मे ही लखनऊ की पत्रकारिता में विशिष्ट पहचान बनाने वाली इस महिला जर्नलिस्ट ने इतना विशाल जनसमर्थन पाकर मिसाल कायम की। यदि चुनाव प्रचार में थोड़ी और तेज़ी लातीं तो जीत सकतीं थी।

नवेद शिकोह- 123 मत प्राप्त किए।

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प्रचार नहीं किया। सोशल मीडिया पर खुद को हराने की अपील की। निरन्तर कड़वा सच लिखने के कारण सभी ख़ेमे और पैनलों ने इन्हें हराने के लिए एकजुटता तय की।
पत्रकारिता से जुड़े राष्ट्रीय और स्थानीय मुद्दों पर लिखने, निष्पक्षता, निडरता, पत्रकारिता की लम्बी बैकग्राउंड के सकारात्मक पहलुओं के होते खाटी पत्रकारों ने 123 मत देकर जीत के करीब पंहुचाया। बड़े-बड़े दिग्गजों को उनकी शख्सियत का 80 फीसद वोट मिलता है और करीब बीस प्रतिशत धर्म जाति का समर्थन होता है। नवेद का बीस फीसद वाला सारा वोट, वोट कटवा कतर गए।

राघवेंद्र सिंह- 121 मत मिले।
चुनाव का पहला अनुभव सुखद रहा। जीत के बार्डर के नजदीक पंहुचना बड़ी उपलब्धि रही। औरों की अपेक्षा इन्होंने भी इतना प्रचार नहीं किया जितना दूसरे कर रहे थे। मुकाबले में दिग्गज युवा थे जो बहुत आगे तक अपनी लीड बनाने में कामयाब हो गये थे।

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