बदला तो काफी कुछ है यदि देखना चाहें तो… क्या वाकई रात का अँधेरा इतना घना है कि जंगल से निकलने के सारे रास्ते गुम हो गए? इन साढे चार सालों में चारों ओर व्यवस्थाओं की इतनी खोह..और खाइयां खोद दी गई हैं कि आदमी की जिंदगीं गुआंतोनामो और साइबेरिया की कुख्यात जेलों के कैदी जैसी हो गई। चारों ओर झूठ और भ्रम के ऐसे मकडज़ाल छाए हैं जैसे कि किसी हारर फिल्म के सेट्स में रचे जाते हैं। इंदौर प्रेस क्लब के आयोजन राजेन्द्र माथुर स्मृति व्याख्यान में चर्चित एंकर पुण्यप्रसून वाजपेयी को सुन रहा था।
इस आयोजन में मैं और साथी पत्रकार फिलहाल प्रदेश के सूचना आयुक्त विजयमनोहर तिवारी विशेष वक्ता थे। हम दोनों ने अपने वक्तव्य को राजेंन्द्र माथुर की पत्रकारिता, उनके कृतित्व व व्यक्तित्व तक ही केंद्रित रखा। पुण्यप्रसून मुख्य वक्ता थे उनके बोलने का विषय था- “नोट, वोट, खसोट तथा यह चुनाव”। ये विषय टीवी ब्रेकिंग की टैग लाइन जैसी लगा। संभव है कि पुण्यप्रसून ने ही आयोजकों को अपने बोलने का यह टाँपिक दिया हो। आँकड़ों की जितनी पुर्चियां उनकी नोटबुक में दबीं थी इससे लगा कि पुण्यप्रसून इस विषय पर पूरी तैय्यारी के साथ आए थे।
यह कोई परिसंवाद या पैनल डिस्कसन तो था नहीं कि मंच पर ही मैं नोट-वोट-खसोट पर पुण्यप्रसून के समानांतर अपना नजरिया रख पाता सो इस लेख के आखिरी हिस्से में वो मेरा नजरिया है जिसके जानिब से मैं देश में बदलाव की प्रक्रिया को देखता हूँ। आँकड़े और अँग्रेजी दो ऐसी ग्रंथियां हैं जो हमारे जैसे देसी श्रोताओं को अवसाद में ला देती हैं। पुण्यप्रसून अपनी एंकरिंग में आँकडों की बम्बार्डिंग कर दर्शकों को चकित कर देने में माहिर हैं। हथेलियों को मसलते हुए जब वे एक ही साँस में पूरा मसला, मेले के किसी बाजीगर की भाँति आग के गोले सा उगलते हैं तो सुनने वाला अपनी सुधि-बुधि खो देता है।
उस दिन के व्याख्यान में भी कुछ ऐसा ही हुआ। अपनी रौ में वो बोल गए.. इंदौरिए अपने शहर पर बहुत गर्व करते हैं.. लेकिन जब देश ही नहीं बचेगा तो इस खूबसूरत इंदौर को बचाकर क्या करोगे..? इस डायलॉग पर आनंद मोहन माथुर सभागार में इंदौरियों ने ही तड़तड़ाहट के साथ तालियां बजाईं। मुझे न पुण्यप्रसून का ये डायलॉग समझ में आया और न ही इसके प्रत्युत्तर में बजी तालियां। वे किस खतरे की बात कर रहे थे..! क्या देश वाकय खतरे में है..जैसा कि शताब्दी के महान संपादक राजेंन्द्र माथुर की स्मृति में व्याख्यान देने वाला मुख्य वक्ता बोल रहा है..? कभी-कभी हमारे विवेक को शब्दों के मुलम्मे ऐसे ढँक लेते हैं जैसे सड़ी मिठाइयों को चमकीले बर्क। पुण्यप्रसून जैसों के पास शब्दजाल और आँकड़ों के चमकीले बर्क का ऐसा ही जखीरा है, यही उनकी पूँजी भी।
मैंने रज्जूबाबू पर अपनी बात रखते हुए यह कहा था कि ..उनके जैसा संपादक लिखता ही नहीं बोलता भी नापतौल कर था। वे कहते थे कि पब्लिक कम्युनकेटर का एक एक शब्द अर्थपूर्ण और जवाबदेह होना चाहिए। रज्जूबाबू का हर व्याख्यान लिखित होता था जबकि वे स्वयं में विविध विषयों के इनसाइक्लोपीडिया थे। पुण्यप्रसून ने अपने व्याख्यान में ये कैफियत दी कि वे भी आँकड़े खोजकर और लिखकर लाए हैं। बहरहाल उन्होंने आँकड़ों के बरक्स बताया कि अपने देश के राज्य, मसलन मप्र., उप्र., गुजरात, बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ व अन्य किस तरह इथोपिया, नामीबिया, सूडान, कांगो, ग्वाटेमाला, जंबिया, जिबांबे से भी गए गुजरे हैं। और यह दशा पिछले चार सालों में और भी बदतर हुई।
पुण्य प्रसून एक और आँकड़ा लेकर प्रस्तुत हुए। जिसमें इस बात का ब्योरा था कि अपने प्रधानमंत्री ने पिछले साढ़े चार सालों में 22 महीने 10 दिन की यात्रा की। इसका फलितार्थ क्या था..देश नहीं जानता। उनके आँकड़ों के पिटारे से यह भी निकला कि जीएसटी से पहले विभिन्न मदों में लिए जाने वाले सेस की कुल रकम जितनी थी उसका एक तिहाई कोष में नहीं जमा किया गया। कुलमिलाकर उनके भाषण का निष्कर्ष यह था कि देश पर अराजकता का घटाघोप छाया हुआ है और इसके लिए सीधे-सीधे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जिम्मेदार हैं..।
वे यदि फिर सत्ता में आते हैं तो देश अंधकूप में ही साँस लेगा। यह बात अलग है कि पुण्यप्रसून ने पुर्चियों में लिखे आँकड़ों का स्त्रोत स्पष्ट तौर पर जाहिर नहीं किया जिसकी तस्दीक़ की जा सके। आँकड़ों से सुख-दुख के सूचकांक नहीं नापे जा सकते। वह तो चेहरा देखकर ही महसूस किए जा सकते हैं।
बहरहाल व्याख्यान के बाद रेस्टहाउस लौटते हुए वातावरण को हल्का करने की गरज से मैंने अपने ड्राइवर से पूछा कि किसे प्रधानमंत्री बनना चाहिए तो वह छूटते ही बोला- मोदी को। मैंने पूछा क्यों..? उसका जवाब था..कल तक पाकिस्तान हमारी सीमा में घुसकर झापड़ मारके लौट जाता था और हम यूएन में जा के कहते थे -उसे रोकिए नहीं तो मुझे गुस्सा आ जाएगा।” और आज पाकिस्तान रातभर चैन से सोता नहीं कि कब कोई हिंदुस्तानी मीसाइल उसकी खटिया-टटिया पलट थे।
पुण्य प्रसून जी आम आदमी को आँकड़ों के लूडो गेम से क्या लेना-देना। वह जो महसूस करता है उसकी यह महसूसियस सांख्यिकी में दर्ज होने का विषय नहीं। मुश्किल यही है कि एसी में साँस लेने वाला मीडिया देसी जज्बातों को महसूस करने में प्रायः फेल ही हो जाता है। चलिए आँकड़ों में उलझने और उलझाने की बजाय सुनाते हैं ये छोटे-छोटे चार सच्चे किस्से, ये किस्से आपकी सोसाइटी, के, मुहल्ले के या नात-रिश्तेदारों के भी हो सकते हैं।
मेरे पड़ोस में एक इंजीनियर साहब हैं। हाल ही में उन्हें एक निर्माण परियोजना की नई साइट मिली है, जिससका बजट अरबों में है। मैंने यूँहीं बधाई देदी भई-अब तो तुम्हारी चाँदी कटेगी, वे खुश होने की बजाय मायूसी के साथ बोले- भैय्या वे दिन अब हवा हो गए जब वाकई चाँदी कटा करती थी…अब तो कुछ रहा नहीं..।
अब तो मजदूरी सीधे उनके खाते में, नाप-जोख पेमेन्ट सब डिजिटलाइज। ट्रेजरी से सीधे खाते में पेमेंट। अपने हाथ कुछ बचा नहीं.. ऊपर से तीसरी आँख की नजर। मैने अफसोस व्यक्त करते हुए दिलासा दी ये तो वाकई पेट पर लात मारने जैसी बात हुई..। क्या आपको भी नहीं लगता कि भ्रष्टाचार करने में कुछ मुश्किलें तो बढ़ी हैं?
एक दिन मोहल्ले की किराना दूकान वाले भाई साहब ने जोरदार वाकया बताया। उनके ज्यादातर ग्राहक मोहल्ले के लेबर-मजदूर हैं। एक दिन मिस्त्रीगीरी करने वाले एक ग्राहक से यूँ ही मजाक में कह दिया- मिस्त्रीजी अब तो बस करों घर में पहले से ही कई चहक रहे हैं और फिर नए का नंबर लगा दिया। मिस्त्री बमक पड़ा- देखो महराज जब सरकारइ ने सब थाम रखा है तो आपकी छाती में नाहक दर्द क्यों? बच्चा पेट में आया तो गोद भराई का रुपया। तकलीफ हुई तो जननी प्रशव योजना। फिर पैदा हुआ तो दवाई और जचकी का खर्चा। खेलने-खाने के लिए आँगनवाड़ी। लड़की हुई तो लाड़ली लक्ष्मी का फिक्स डिपाजिट। लड़का हुआ तो पढ़ने से लेकर पोषक, किताब ऊपर से वजीफा। कहे की चिंता.. दिन में सात सौ कमाता हूं, एक दिन की कमाई में माहभर का राशन। आज झुग्गी है कल प्रधानमंत्री आवास में शिफ्ट होंगे। महराज चिंता मत करिए मजे ही मजे हैं। आप तो सिर्फ़ अपनी ग्रहकी देखिए पिछली कोई उधारी हो तो बताइए..।
अभी पिछले हफ्ते एक प्रोफेसर मित्र ने बेटे को परीक्षा में फर्स्ट आने पर नई बुल्लेट का तोहफा दिया। मैंने पूछा- पेट्रोल-डीजल की इतनी कड़की पर भी बेटे को बाइक वह भी बुल्लेट..! वे बोले आखिर कमाता किसके लिए हूँ। डेढ़ लाख महीने मिलते हैं मियां-बीबी और एक बेटा-बेटी। तब स्कूटर मेंटेन करना मुश्किल था, आज कार से जाते हैं। रही बात मँहगाई की तो उसे माँल्स में, पब में, दारू घर अहाते में, जूलरी की दुकानों में, आटो डीलर्स के शो रूम्स में जाकर देख सकते हैं।
वहां नहीं तो हर दूसरे हाँथ में नए वर्जन के एंन्ड्रायड मोबाइल। देखों न वेतन कहाँ से कहाँ पहुँच गया, चपरासी भी चालीस पार। कमाई है तभी न मँहगाई है। ये सब राजनीति के चोंचले हैं। दुनिया बदल रही है। यार कहाँ पड़े हैं अभी वहीं के वहीं।
मेरे सहकर्मी के छोटे भाई की कंपनी को उसके मल्टीनेशनल स्पोंसर ने बेस्ट स्टार्टअप कंपनी का सम्मान दिया, वह भी हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट में आमंत्रित करके। तीन साल पहले अच्छी-खासी नौकरी छोड़कर छोटी पूँजी के साथ काम शुरू किया था। आज 20 करोड़ रुपए सालाना टर्नओवर है. बीस-पच्चीस कर्मचारी हैं। काम आगे बढ़ नहीं दौड़ रहा है। मेरे सहकर्मी आज दफ्तर में यह खुशी बाँटते हुए वहीं लोकप्रिय उक्ति सुना रहे थे “जिन खोजा तिन पाइंया गहरे पानी पैठ”।
ये चारों वाकये गढ़े हुए नहीं हैं यकीन न हो तो आके तस्दीक़ कर सकते हैं।
गिलास आधी भरी है, या आधी खाली यह देखने का नजरिया आपका है। ऐसे ही कई उदाहरण आप अपने इर्द-गिर्द देख सकते हैं। दरअसल हमारा नजरिया अपने विवेक से ज्यादा थोपे हुए विचारों से बनता है, इसलिए किसी को गिलास आधा भरा हुआ दिखता है, किसी को सिर्फ आधा खाली।
इन साढ़े चार वर्षों में काफी कुछ बदला है, हर क्षेत्र में..। अपने देश की सूरत भी और सीरत भी। असंतुष्ट होना हमारी स्थाई भाव है और विकास की भूख का बढ़ते जाना हमारा नागरिक धर्म। ये दोनों तत्व राजसत्ताओं को सुस्ताने नहीं देते। यदि ये न होते तो आज हम सेटेलाइट और डिजिटल युग तक कैसे पहुंच पाते।
आँकड़ों के मकड़जाल से अलग हटकर देखें तो भी नंगी आँखों से काफी कुछ दिखता है। गांधी को समर्पित स्वच्छ भारत का जो अनुष्ठान शुरू हुआ यह उसका ही प्रताप है कि दुनिया के कई देशों के महापौर अपने प्रदेश के इंदौर शहर को देखने पहुंचे। हम जिस शहर में रह रहे हैं ईमानदारी से इसका आँकलन करिए तो पाएंगे कि हमारे परिवेश और पर्यावास में अमूलचूल परिवर्तन आया है। कहीं कम और कहीं ज्यादा हो सकता है क्योंकि कि काम करने वाले हमारे ही अपने हैं जो कभी अराजकता के गटरतंत्र के हिस्सा रहे हैं।
स्वच्छ भारत ही स्वस्थ्य भारत बना सकता है। तीन चौथाई बीमारियों की वजह वही सँडाध है जहाँ दस फीसद प्रभुवर्ग से अलग शेष नब्बे फीसद भारत रहता है। इस सरकार ने इस योजना को उन महात्मा गांधी के चरणों में समर्पित की जिनके नाम को पिछले साठ सालों से कापी राइट की तरह इस्तेमाल करते हुए राजपाट चलाया जा रहा था।
इन साढ़े चार सालों में केंद्र सरकार किसी मंत्री पर किसी बड़े या छोटे घोटाले का लाँछन नहीं लगा। क्या यह कम उपलब्धि है। जो एक रुपया दिल्ली से चलकर दस पैसे में परिवर्तित होकर गांव पहुंचता था यदि सड़क संरचनाओं और केंद्र की ग्रामीण योजनाओं को देखें तो लगेगा कि कम से कम साठ से सत्तर तक तो पहुंचता ही है। डिजिटलाइजेशन ने सब्सिडी के फर्जीवाड़े को न सिर्फ़ रोका ऐसे लाखों-लाख भूत-प्रेतों को भी पकड़कर ठिकाने लगाया जिनके नाम से गरीबों का हक मारा जा रहा था। फर्जी मस्टर और भूत-प्रेतों की मजूरी में काफी कुछ अंकुश लगा है। भ्रष्टाचार का असाध्य कोढ़ भला इतना जल्दी कहां ठीक होता है।
साढ़े चार साल पहले तक हम दुनिया के मंचों में रिरियाते फिरते थे कि यहां पाकिस्तान घुसा वहां चीन ने अतिक्रमण किया.. हाय हाय कोई मेरी सुने। और अब ये दोनों दुनिया के मंच में वही कर रहे हैं क्या ये बदलाव नहीं दिखा..? आज दुनिया के बड़े से बड़े देश हमारी आर्थिक और सामरिक ताकत की नोटिस लेते हैं। क्या ये बदलाव हमें गर्वोन्नत नहीं करता? और भी बहुत से तथ्य हैं लेकिन वे तभी दिखेंगे जब आप निर्पेक्ष भाव से देखना चाहें।
मध्य प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार जयराम शुक्ल की यह रिपोर्ट इंदौर से प्रकाशित अखबार प्रजातंत्र में प्रकाशित हो चुकी है. संपर्क: 8225812813