रोशन मिश्रा-
चौथे खम्भे पर चढ़कर बांसुरी बजाने का आनन्द ही कुछ और है। ऐसा आप बांसुरी बजाने वाले की भाव-भंगिमाओं को देखकर अनुमान लगा सकते हैं। फोर्थ पिलर्स मे से यदि एक भी पिलर कमज़ोर होकर हिलने-डुलने लगे तो पूरे सिस्टम पर खतरा मंडराने का भय बना रहता है। यहां वाले फोर्थ पिलर्स मे से जो चौथे नम्बर वाला पिलर है ना, उसे पूरे सिस्टम की बुनियाद के तौर पर देखा जाता है। ज़रा सोचिए, जिसकी बुनियाद पर पूरा सिस्टम खड़ा हो अगर वही कमज़ोर पड़कर लड़खड़ाने या लुढ़कने लग जाये तो फ़िर क्या होगा? भरोसा बाज़ार में किसी पंसारी की दुकान पर नहीं मिलता। इस भरोसे को खरीदा नहीं; बल्कि कमाया जाता है। शायद, चौथे खम्भे ने पूंजीवाद को ही ‘भरोसे’ का एकमात्र जरिया समझ लिया है।
आज चौथा खम्भा बुरी तरह से लुढ़क गया है। कोई भी खम्भा यकायक नहीं लुढ़कता। वो लुढ़कने से पहले हिलना-डुलना शुरू करता है। फ़िर लुढ़कने की तरफ अग्रसर होता जाता है। बाकी के तीनों खम्भे बहुत चतुर हैं। वे चाहते हैं कि चौथा खम्भा हमारे साथ तो रहे लेकिन लुढ़कने की शर्त पर। लुढ़कने वाले इंसान और वस्तुओं पर कभी भरोसा नहीं करना चाहिए। इन्हें ही बिना पेंदे का लोटा कहा जाता है। अगर चौथा खम्भा गुप्त रोग से पीड़ित है; तो इसके लिए मेरे जैसे वे सारे लोग जिम्मेदार हैं जिन्होंने इसकी मनमानी और लापरवाही पर दोनों हाथों से तालियां बजा-बजाकर इसे लगातार प्रोत्साहित किया। अब पछताये होत क्या, जब चिड़िया चुग गयी खेत।
घुरहू चचा कल रात को सपने में बता रहे थे कि चौथे खम्भे को भोंपू और शोर-शराबे वाला रोग लग गया है। जहां देखो बेसुरी आवाज़ में चिल्लाने लगता है। चौथे खम्भे वाले सड़क पर चलते किसी भी आम आदमी को पकड़कर उसके मुंह में जबरदस्ती भोंपू डाल दे रहे हैं। पहले गिने-चुने महीनों में वायरल फीवर फैलता था। लेकिन, आज यही ‘वायरल’, फीवर न होकर चलन बन गया है। भोंपू वाले ज़माने में हर कोई इसी वायरल की चपेट में आना चाहता है। हद हो गयी है यार! बिना जांच-पड़ताल किए ही भोंपू के सहारे किसी को रातों-रात ‘ बेचारा नायक’ बनाने का फ़ैशन चल पड़ा है।
सपने में घुरहू चचा बता रहे थे- ” दवा खाते-खाते घर-द्वार गिरवी रखने की नौबत आ गयी; तब भी मर्ज़ विदा होने का नाम नहीं ले रहा। हालत इतनी बुरी हो गयी है कि घर-द्वार के रास्ते एक तरफ दवाई गटकी जा रही है और मल-द्वार के रास्ते उसी दवाई की कीमतें बाहर निकल जा रही हैं। फ़िर भी मर्ज़ जस का तस बना हुआ है। ये बीमारियां भी लाइलाज़ बनती जा रही हैं। ये मर्ज़ इतने बड़े निर्लज्ज और नालायक हो गये हैं कि महंगी से महंगी दवाइयां इनको नियन्त्रित करने में नाकाम हो जा रही हैं। ऐसा लगता है जैसे दवाईयों की जगह कूड़ा-करकट खा रहे है हम।”
ये घुरहू चचवा भी कम गणितबाज नहीं है। बीमारी इसको है और दोष दवाईयों को देता है। दवाइयां तो अपनी जगह सही ही हैं। बीमारियों की असली वज़ह तो ये चौथा खम्भा है। इसी खम्भे के कारण बीमारियां निर्लज्ज और दवाइयां बेवफ़ा होती जा रही हैं। लेकिन, घुरहू चचा को इतना ज्ञान कहां है कि मूल कारणों पर विचार कर सकें। चौथे खम्भे को शाम ढलते ही 8पीएम की पीड़ा सताने लगती है। घुरहू चचवा बता रहा था कि चौथे खम्भे वाले ब्राण्डेड हो गये हैं। उन्हें अपने नेचर और ‘कैप्टन विद सिग्नेचर’ के साथ कोई समझौता करना पसंद नहीं है।
एक वक्त था जब चौथे खम्भे पर हर कोई यकीन करता था। इसी चौथे खम्भे ने अच्छे-अच्छों को छठी का दूध याद दिलाया है। बाकी के तीनों खम्भे भी चौथे वाले से भयभीत रहते थे। उगते सूरज को प्रणाम करने की परम्परा बहुत पुरानी है। जिनके पास आज़ाद क़लम की ताक़त होती है उन्हें दरबारों में उठा-बैठकी करने से परहेज़ करना चाहिए। दरबारों में ‘आज़ादी’ भयभीत होकर कहती है – हां, मैं ही आज़ाद हूं।
कुछ लोगों के कारण चौथे खम्भे पर जंग लगता जा रहा है। जंग और ‘जंग’ में अब कुछ ख़ास अन्तर नहीं रहा। शरीर में जंग लग जाये तो उसका निदान खोजा जा सकता है; लेकिन जब विचारों को जंग लग जाये तो उसे ‘जंग’ के पास से गुजरने में देर नहीं लगता। चौथा खम्भा अब न तो जंग से बचने लायक बचा है और न ही जंग के विरुद्ध जंग छेड़ने लायक। लेकिन, अभी उतना भी नालायक नहीं हुआ है।
सोच रहा हूं कि किसी अख़बारी संपादक का आशीर्वाद प्राप्त हो जाये तो उनके मार्गदर्शन में कुछ महीने लिखना-पढ़ना सीख लूं। मेरा मानना है कि किसी पत्रकार को सिर्फ अनुभवी होना ही पर्याप्त नहीं है; बल्कि उसके पास जानकारी भी होनी चाहिए। मैं अख़बारों में अभी भी उम्मीद देखता हूं। शायद! चौथी उम्मीद।
मेरी एक आरज़ू है, चौथे खम्भे को लेकर। किसी वक्त एक अख़बार निकला करता था – चौथी दुनिया। मैं भी चाहता हूं कि दो-तीन सालों बाद ख़ुद का अख़बार निकालूं। उसका नाम भी मैंने सोच लिया है – चौथा खम्भा!
लेखक रोशन मिश्रा, द पॉलिटिकल मुखिया के फाउंडर हैं. संपर्क- [email protected]