Anu Shakti Singh-
लुग्दी साहित्य अर्थात् पल्प का जो रूप भारत में है उसे समाज का दर्पण कैसे कहा जा सकता है? यह तो ठीक वही हुआ कि ऑल्ट बालाजी का सॉफ्ट माइंडलेस पोर्न समाज का प्रतिनिधि बन जाए…
फ़ैंटेसी और फैक्ट्स में फ़र्क़ होता है। भारतीय लुग्दी साहित्य कमोबेश फ़ैंटेसी ही है। फ़ैंटेसी को मनोरंजन के लिए देखा, पढ़ा और सराहा जा सकता है। इसके ज़रिये व्यक्तित्व निर्माण नहीं किया जा सकता है। यह व्यक्तित्व निर्माण साहित्य का मुख्य काम है जिसमें लुग्दी कहीं फिट नहीं बैठता…
मैंने गुलशन नंदा का नीलकंठ और वेदप्रकाश शर्मा की क्रांति सीरीज़ चौदह साल की उम्र में पढ़ा था। नीलकंठ की केवल दो पंक्तियाँ याद रहीं, अव्वल – “ट्रेन है कोई छकरा नहीं!” यह स्टेशन मास्टर बेला से कहते हैं।
दूसरी पंक्ति, बेला झुकी है और आनंद ने उसके उभारों को गुदगुदा दिया।
गुलशन नंदा ने मेरे कैशोर्य में खंडाला को इतना उथला रोमांटिक डेस्टिनेशन बना दिया, जिसके प्रेत से अभी भी ख़ौफ़ खाती हूँ।
वेद प्रकाश शर्मा की क्रांति सीरीज़ तो और भी कमाल थी। वहाँ जेम्स बॉण्ड को और कोई काम नहीं था, क्रीमिया की पैंट उतारने के अलावा। शुक्र है कि बाद के दिनों में पीयर्स ब्रांसनन ने इस कॉन्सेप्ट को क्लियर किया कि जेम्स बॉण्ड कुछ काम धाम भी करता है।
चौदह साल की उम्र और घर पर आये दीदी-भैया लोगों की सुकृपा की वजह से इन उपन्यासों का हाथ में पड़ना। एटम बम हिरोशिमा और नागासाकी में फूटे थे, फिर मेरे ज़हन में।
ख़ैर, सवाल है इन उपन्यासों के कोर्स में लगाने का। अगली बारी लाल किताब की होगी और कसप सरीखे क्लासिक बाट जोहेंगे।
कह गये रामचंद्र सिया से, ऐसा कलियुग आएगा…