Rahul Singh Shekhawat : आखिर विंग कमांडर अभिनन्दन वर्तमान की रिहाई में एयरफोर्स के दूसरे जांबाज सिद्धार्थ वशिष्ठ और अन्य शहीद जवानों की शहादत क्यों गुम हुई? ये गुम ही हुई या फिर किसी ने डाका डलवा दिया। और क्या ये एक ही इतनी बड़ी खबर थी कि देश की बाकी सभी खबरों पर स्टे ही लगा दिया जाए। सामरिक और रणनीतिक मसलों पर, सूत्रों के हवाले से दिन भर रायता फैलाना क्या सिरदर्द करना नहीं है।
इसका जवाब अपने-अपने चैनल पर दिन भर स्प्रिंग की तरह उछलने वाले एंकर बताएंगे? या फिर एक एक घण्टे बहस की शक्ल में राष्ट्र के नाम प्रवचन देने वाले संपादक बता पाएंगे? इतना ही नहीं, लिपे-पुते एंकर और यहां-वहां खड़े खबरचियों के पास पूरे दिन टेलीविजन स्क्रीन पर तोतारटन्त सरीखा दोहराने के अलावा ज्यादा कुछ भी नहीं था। पहली बार-पहली बार, जिनेवा कन्वेंशन-जिनेवा कन्वेंशन और शायद दो चार लव्ज़ रहे होंगे। बेलाग कहूं तो गाहे-बगाहे या फिर कहें कि अप्रत्यक्ष रूप से एकपक्षीय चुनावी जनमत तैयार करने में जुटे रहे।
एक से एक स्वम्भू बड़े नाम राजनीति और कूटनीतिक चाल बाजियों का अंतर समझाने, बताने और दिखाने में पूरी तरह से नाकाम थे। मेरे हमपेशेवर सुबह से शाम ढलने तक क्या बोल गए और कितना बोल गए होंगे, उन्हें भी इल्म नहीं होगा। क्या बेहतर नहीं होगा कि सारे घटनाक्रम पर अच्छे कंटेंट सामने लाया जाए। ऐसा करके भी भक्ति धर्म निभाया जा सकता है। इस नायाब कला को प्रिंट मीडिया के खलीफाओं से सीखा जा सकता है क्योंकि उसका शताब्दियों पुराना इतिहास है। प्रिंट मीडिया ने आजाद हिंदुस्तान में पूर्ववर्ती सरकारों के दबावों के बावजूद, बिना प्रतिस्पर्धा के दौर में ही अपना आर्थिक आधार मजबूत कर लिया था। खबरिया चैनलों की बाढ़ आने से पहले ही अखबार और पत्रिकाओं ने घाटे से बचने के लिए सफाई से कमाई के रास्ते तैयार कर लिए थे।
अगर दूरदर्शन को छोड़ दें तो प्राइवेट इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की उम्र कमोबेश 30 साल ही बैठती है। लेकिन भारी ऑपरेशनल कॉस्ट के दबाव में समानांतर चल रहे विस्तार और संक्रमण काल में समझौता वादी होकर वो बहुत जल्दी नंगा हो गया है। दरअसल, सत्ता से गलबहियां अथवा उसके दबाव में फर्जी राष्ट्रवाद के साथ ही छद्म धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भी बन रहा भ्रम ने देश में अविश्वसनीयता का एक नया खतरा पैदा कर दिया है। अब इसे अपरिपक्वता कहें या फिर इरादतन कवायद, लेकिन मीडिया की विश्वसनीयता और गम्भीरता दोनों पर संकट बढ़ रहा है। वैसे टेलीविजन पत्रकारिता का तकाजा या अंदाज ऐसा है कि फुर्सत भी नहीं मिल पाती है। पिछले 15-16 साल से टेलीविजन पत्रकारिता सीखने की कोशिश कर रहा हूँ।
लेकिन, सच कहूं तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए 1 मार्च यानि विंग कमांडर की रिहाई का मौका, प्रिंस के ट्यूब बेल के गड्ढ़े में गिरने की कवरेज के बाद दूसरा सबसे ज्यादा निराशाजनक दिन था। जिसमें कंटेंट ज्यादा नहीं था बस बोलते ही जाना था। दिलचस्प बात ये है कि राष्ट्रवाद का ज्वारभाटा प्रदर्शित करने के बावजूद न सिर्फ कथित राष्ट्रवादी बल्कि धर्मनिरपेक्ष दोनों ही सियासी जमातें मीडिया को जमकर गरियाती नजर आ रही हैं। वैसे अखबारों की स्थिति भी बहुत जुदा नहीं है। जहां एक कुत्ते के मरने पर एक स्पेशल पेज छप जाता है। वहां भी गुणवत्तापरक समग्र विश्लेषण और खबरों का ना सिर्फ अकाल ही नहीं बल्कि एकपक्षीय चुनावी जनमत तैयार तैयार करने की होड़ दिखती है।
देशभक्त अखबार तो पहले ही हिडन एजेंडा लागू करने में मस्त थे। तो अब दूसरे तथाकथित सन्तुलित अखबारों ने देशभक्ति के ज्वारभाटा को कैश करने के लिए बतौर विज्ञापन शुभकामनाएं छापने का नायाब फार्मूला निकाल लिया है। बहरहाल, इस माहौल में कुछ चैनल या चुनिंदा अखबार बचे हैं। लेकिन सवाल पूछना और खड़े करना तो देशद्रोह की श्रेणी में आ गया है। हालांकि देशभक्ति से लबरेज लोग तो उसमें भी भविष्य जा एजेंडा ढूंढ रहे हैं। एक और और चैनल का जरूर जिक्र करना चाहूंगा, जिसके संपादक इस बात से गदगद थे कि उनकी स्क्रीन का एक शॉट पाकिस्तान के उर्दू चैनलों में चल गया। यानि उनकी देश,सरकार या फिर कहें कि साहेब के प्रति भक्ति पर मुहर दुश्मन देश में लग गई। मानो ये आज की देशभक्त टेलीविजन पत्रकारिता का नया मापदंड है।
गजब ये है कि पत्रकारिता क्षेत्र के स्वनामधन्य हस्तियां PMO या किसी और आराध्यदेव (जिसमें कांग्रेस भी शामिल है) को टैग करके FB लाइक्स या रिट्वीट गिनकर आत्ममुग्ध हैं। इसी तरह प्रिंट की स्वनामधन्य हस्तियां भी टेलीविजन बहस में तो ज्ञान देकर अपना चेहरा तो चमकाते वक्त तो दार्शनिक लगती हैं। लेकिन अफसोस की बात ये है कि टेलीविजन पर प्रवचन के दौरान कही बातों का उनके अख़बारों में बहुत ज्यादा अक्स कहीं भी नजर नहीं आता। अंग्रेजों से लड़ते लड़ते देश का विभाजन हो गया और आज 21 सदी के दूसरे दशक के आखिरी में राइट-लेफ्ट सांचों में जकड़े मीडिया को राष्ट्रभक्त और देशद्रोही की नई कैटेगरी में डाल दिया गया है।
बाजार और अन्य किस्म के दबाव पहले भी थे और आगे भी रहेंगे। लेकिन वक्त आ गया है कि जिम्मेदार लोग आत्ममंथन करें कि आज सियासत के दोनों विंग आपको गरिया रहे हैं, जिन्हें आपने खड़ा करने में वक्त वे वक्त मीडिया ने ही मदद की थी। चाहे इमरजेंसी में इंदिरा गांधी की मुखालफत हो या 90 के दशक में राममंदिर निर्माण की लहर पैदा करने की मुहिम रही हो। उसके तुरंत बाद मंडल कमीशन के आंदोलन का दौर भी इसका गवाह है। और फिर चाहे डॉ मनमोहन सिंह सरकार के खिलाफ अन्ना हज़ारे की अप्रत्यक्ष सियासी महफिल की भीड़ को कैमरे से ज़ूम कर स्क्रीन के सहारे आंदोलन को बड़ा करने की नापाक कवायद रही हो।
बुरा लगेगा लेकिन सियासत की एक जमात मीडिया से घुंघरू बजवाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। तो मीडिया का सबसे ज्यादा फायदा उठाने वाली सबसे ताकतवर सियासी जमात ने पहले तो मीडिया को रखैल की तरह इस्तेमाल किया और अब देशद्रोही साबित करने पर उतारू है। कभी कैंडल नेशनिलज्म को टेलीविजन स्क्रीन ने एक पैसन नहीं बल्कि अरबन फैशन बनाने में मदद की। अगर वक्त रहते नहीं संभले तो वो दिन दूर नहीं जब हकूमत मीडिया के खिलाफ ही मोमबत्ती जुलूस निकालने का इंतजाम कर देगी। जिसकी कवरेज वो आपके अखबार या चैनलों में नहीं बल्कि अपने साइबर वारियर्स के सहारे सोसियल प्लेटफॉर्म पर प्रकाशित अथवा प्रसारित कर लेगी। सनद रहे कि मीडिया का धर्म किसी एक मुद्दे अथवा परिस्थिति में देश और समाज में रायशुमारी openion making तक सीमित है ना कि जाने या अनजाने किसी सियासी जमात के लिए जनमत तैयार करना।
वैसे भक्ति के दौर में बिकाऊ मीडिया और गोदी-मीडिया सरीखे विशेषण तो पहले ही मिल चुके थे। लेकिन टेलीविजन स्क्रीन पर जबरन पैदा की जा रही ग्लैमरस देशभक्ति की एवज में जैश ए मीडिया का नया नामकरण भी हो गया है। वैसे ये भी कम दिलचस्प नहीं है कि ये तमाम नाम भी समाज या सिस्टम के उस तबके ने तय किए हैं, जिसका खुद दामन साफ नहीं है। बहरहाल, मीडिया के कर्णधार ये जरूर सोचे कि ये कहाँ आकर खड़े हो गए हैं हम!
जयहिंद-वन्देमातरम
युवा टीवी पत्रकार राहुल सिंह शेखावत की एफबी वॉल से.